

Aarzoo Kee Maut (Stories by famous Pakistani author) / आरज़ू की मौत (पाकिस्तान की प्रसिद्ध कहानीकार की कहानियाँ)
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Author(s) – Afra Bukhari
लेखिका — अफ़रा बुख़ारी
Compilation by – Aamir Faraz
चयन — आमिर फ़राज़
Translator(s) – Dr. Rajendra Toki & R.P. Singh
अनुवाद — डॉ. राजेन्द्र टोकी एवं आर.पी. सिंह
| ANUUGYA BOOKS | HINDI |
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Description
Description
Her stories are primarily about exploitation. Every family, as neatly observed in her fiction, is a microcosm of the society to which it belongs.
— Muhammad Saleem-ur-Rehman
(Weekly Friday Times)
Many of Afra Bukhari’s short stories focus around the emotional and social travails of women. She describes her characters and their situation with gusto and feeling. In his new biography of the writer, James King makes the point that Virginia Wolf suggested that women are more interested than men in creating (or at the very least exploring) a language of feeling. This holds true for a writer like Afra Bukhari and one understands that this language of feelings is her greatest asset as a writer of short stories.
— Asif Farrukhi (Dawn Karachi)
अफ़रा बुख़ारी की कहानियों की कुछ आंतरिक परतें अभी तक सामान्य पाठकों तक नहीं पहुँच पाईं हैं। एक महिला होने के नाते उन्होंने स्त्री की समस्याओं से अपनी कहानियों का ताना-बाना बुना, लेकिन यह उनकी कुल पूंजी नहीं है। उनके लिए महिलाओं की समस्याएँ पुरुषों के दृष्टिकोण से निर्धारित होती हैं और पुरुषों की मानसिकता का अध्ययन भी उसी यथार्थवादी निष्पक्षता के साथ प्रचुर मात्रा में मौजूद होता है जो महिला पात्रों के उल्लेख में देखा जाता है। महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्होंने अपनी कहानियों के पात्रों को किसी कलात्मक, विश्लेषणात्मक या मनोवैज्ञानिक सांचे में ढालकर नहीं बनाया, ये पहले से ही अस्तित्व में थे। उनकी कला एक कुल्हाड़ी है, जिसके प्रहार से इन किरदारों के हिजाब उतर गए हैं जिससे वे अपने पूरे भीतरी सौंदर्य के साथ हमारे सामने खड़े हैं।
— रियाज़ अहमद (कवि, आलोचक)
अफ़रा बुख़ारी की कहानियों में ज़्यादा शोर नहीं है। वह भावनाओं और मनोवैज्ञानिक उलझनों को भी इस तरह बयान करती हैं जो उनके अन्याय का एहसास भी दिला देता है मगर धीमें-धीमें संकेतों से।
— डॉ. सोहेल अहमद खान (कवि, आलोचक)
…इसी पुस्तक से…
…उसकी बीवी ख़ूबसूरत थी। वो उसे पसन्द भी करता था लेकिन जब वो उसके क़रीब जाता तो उसके जज़्बात सर्द पड़ जाते और उसे ज़ेहन में एक घिनौना तसव्वुर उभर आता। उसे अपनी बीवी, बीवी न लगती।
बहुत दिन पहले की बात थी। एक रात वो छत पर अपने दूसरे बहन भाइयों के हमराह सो रहा था, अचानक बेदार हो गया। उसे प्यास लग रही थी और प्यास भी इतनी शदीद कि पानी पीने में अगर ज़रा सा तवक्कुफ़ भी हो जाता, तो उसका दम घुट जाता। वो उठा। आधी बन्द और आधी खुली आँखों से उसने स्लीपर ढूँढ़ें मगर ख़ुदा जाने वो कहाँ ग़ायब हो गये थे। सुबह को तो वहीं पड़े मिले मगर उस वक़्त वो उसे नज़र नहीं आये। वो नंगे पाँव छत से उतरने लगा। आधी सीढ़ियाँ बग़ैर आहट के तै करने के बाद वो चौंका और उल्टे पाँव वापिस मुड़ा। ऊपर पहुँचा तो प्यास ग़ायब थी। तब उसने महसूस किया कि जैसे वो जानबूझ कर नीचे उतरा था। उसने ख़ुद को मुत्मइन करने और समझाने की बहुत कोशिश की मगर बात फ़ैसला तलब रही। वो तसव्वुर इतने बरस गुज़रने पर भी उसके ज़ेहन में जूँ (यूँ) का तूँ मौजूद था। वो एक अच्छे इख़लाक़ और अच्छे किरदार का आदमी था। उसने दानिशता कभी किसी ग़ैर औरत के चेहरे पर नज़र ना डाली थी। वो ऐसी हरक़तों को बहुत मअयूब समझता था। बस यही एक घिनौना तसव्वुर था जो उसे हर वक़्त परेशान किये रखता था। वो उस तसव्वुर से डरता और ख़ौफ़ खाता था। वो उस पर पर्दा डाल देना चाहता था।
शादी के काफ़ी दिनों बाद तक उसकी हालत ना सुधरी तो मजबूरन वो अपनी बीवी को एक अलग मकान में ले गया।
वो अपनी बीवी की मनीख़ेज़ नज़रों से बचना चाहता था, लेकिन वो उसे अलग मकान में ले जाकर भी ख़ुश न कर सका। सारा दिन अकेले घर में पड़े रहने से उसे बड़ी कोफ़्त होती। शाम को वो घर आता तो खाना खाकर अमूमन थकावट या सरदर्द का बहाना करके बिस्तर पर लेट जाता और बहुत जल्द सो जाता। वह रात गये तक जागती रहती और अपनी बदनसीबी पर कुढ़ती। आख़िर एक दिन उसने ख़ाविंद से वापिस चलने पर इसरार किया।
“क्यों? क्या तुम यहाँ पर ख़ुश नहीं हो?”
उसके ख़ाबिंद ने नज़रे झुका कर दबे लहज़े में पूछा।
“नहीं।”
उसकी बीवी ने भरी आवाज़ में कहा और आँसुओं के मोती उसके गुलाबी रुख़सार पर लुढ़कने लगे। वो सिटपिटा गया। वो ख़ुद भी मुत्मइन ना था वो समझता था कि इन्साफ़ से काम नहीं ले रहा। उसने बीवी के आँसू ख़ुश्क़ किये और समझाने वाले लहज़े में बोला :
“देखो फ़रख़न्दा, घर में बहुत से लोग रहते हैं। बहनें हैं, भाई हैं, वालिदैन हैं…इनसान से कई बेऐतहातियाँ हो जाती हैं। कई ग़लतियों का इमकान होता है और ये ग़लतियाँ इन्सान को मुजरिम बना देती हैं और इन्सान भी अपने आपको माफ़ नहीं कर पाता… मुझ से भी एक बार ग़लती हो गयी थी।”
“मैं तो आपको मासूम समझती हूँ।” उसकी बीवी सादगी से बोली, “आपने ऐसा दानिशता नहीं किया था, आपका इसमें क्या कसूर! आप इस बरसों पुरानी बात को अब तक भूले क्यों नहीं?”
वो बौखला गया। हाँ वाकई वो अब तक उसे भूला क्यों न था? उसने दिल में चोर सा महसूस किया। मगर फ़ौरन ही वो इस सोच को टाल गया और चुपचाप बाज़ू सर के नीचे रखे तारों भरे आसमान को ताकता रहा। इस वक़्त उसे अपनी बीवी बड़ी मासूम और भोली लग रही थी। क्या वो सच कह रही थी? मगर वो सच-झूठ के झगडे़ में पड़ना ही नहीं चाहता था।
नया मकान भी उसकी ज़ेहनी पेचीदगी को हल ना कर सका था। उसने कई बार अपनी ज़ेहनी पेचीदगियों को सुलझाने की कोशिश की मगर कभी भी एक कड़ी को दूसरी कड़ी से मुतसल न कर सका। दरअसल वो बड़ा घुन्ना और बुज़दिल आदमी था और ख़ुद अपने आप से डरता था और बहुत सी बातें अपने आप पर ज़ाहिर नहीं होने देता था। इसलिए वो अपने तज्ज़िये में कामयाब ना हो सका वो मुज़्तरव और परेशान था।
एक दिन सड़क पर चलते उसने अचानक महसूस किया जैसे वो क़रीब से गुज़रने वाली औरतों को ग़ौर से दिलचस्पी से देख रहा है। उसने परेशान होकर नज़रें झुका लीं और घर लौट आया।
…इसी पुस्तक से…
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