









Pahadi Fizaon Jaisi Tazgi (Remembering Rasool Gamzatov) / पहाड़ी फ़िज़ाओं जैसी ताज़गी (रसूल हमज़ातफ़ के बारे में संस्मरण)
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Translator(s) – Pragati Tipnis
अनुवाद — प्रगति टिपणीस
Editor(s) – Anil Janvijay
संपादक — अनिल जनविजय
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साल 2023-2024 रसूल हमज़ातफ़ शताब्दी का वर्ष है। उनकी शताब्दी सिर्फ़ रूस में ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में बड़ी धूमधाम से मनाई जा रही है। दुनिया के हर उस कोने में, जहाँ भी रसूल हमज़ातफ़ की कृतियाँ पहुँची हैं, विभिन्न कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं और उनकी रचनाओं को एक बार फिर और अधिक गहराई से पढ़ने और समझने की कोशिशें की जा रही है। भारत भी इन देशों में से एक है। रसूल हमज़ातफ़ की कविताओं को तो भारत में पसंद किया ही जाता है, परन्तु उनकी एकमात्र गद्य-पुस्तक ‘मेरा दग़िस्तान’ जब डॉ० मदनलाल ‘मधु’ के अनुवाद में हिन्दी पाठकों तक पहुँची तो उसे हाथों हाथ लिया गया। पिछले तीस सालों में इस किताब के 20 से अधिक संस्करण हिन्दी में प्रकाशित हो चुके हैं। हिन्दी के अलावा यह किताब गुजराती, मराठी, बांग्ला, नेपाली, असमिया, तेलुगु और कन्नड़ जैसी भारतीय भाषाओं में भी प्रकाशित हुई है। अब इस साल भी ‘अनुज्ञा बुक्स’ ने ‘मेरा दग़िस्तान’ का फिर से प्रकाशन किया है। भारत में रसूल हमज़ातफ़ को समर्पित कई गोष्ठियों का आयोजन भी किया जा रहा है।
कोहेकाफ़ पर्वतमाला की वादियों में कई देश बसे हुए हैं, दग़िस्तान भी उनमें से एक है। दग़िस्तान की एक पहाड़ी बस्ती त्सादा में कवि और अनुवादक पिता हमज़ात त्सदासा के घर बेटे रसूल का जन्म हुआ। इनके पूर्वज वैसे तो किसान थे, पर अपने इलाक़े की काव्य-प्रथा को आगे ले जाने में भी इनका बड़ा योगदान रहा। रसूल के पिता कविताएँ तथा नीति-कथाएँ लिखते थे। उन्होंने रूसी कवि अलिक्सान्दर पूश्किन की कविताओं एवं अन्य रचनाओं का रूसी से अवारी भाषा में अनुवाद किया था। रसूल की परवरिश अपने दो बड़े भाइयों के साथ कविताओं और साहित्य में रचे-बसे वातावरण में हुई और उसने छोटी उम्र से ही पिता की सरपरस्ती में कविताएँ लिखनी शुरू कर दीं।
रसूल की प्रारंभिक शिक्षा अपने ही इलाक़े के एक स्कूल में हुई। उच्च शिक्षा उन्होंने अवार शिक्षक-प्रशिक्षण संस्थान से सन् 1939 में प्राप्त की और एक साल के लिए बतौर शिक्षक अपने ही स्कूल में काम करने के बाद वे अवार थिएटर से जुड़ गये। उन्होंने वहाँ पर बतौर सहायक-निर्देशक काम किया। प्रॉम्ट बॉक्स में बैठकर वे नाटकों की प्रस्तुतियाँ देखते थे और ज़रूरत पड़ने पर कलाकारों को उनके संवाद वग़ैरह याद दिलाया करते थे। उन्होंने इक्की-दुक्की छोटी भूमिकाएँ ख़ुद भी अदा की थीं। उनका थिएटर अपनी प्रस्तुतियाँ लेकर एक से दूसरी जगह जाया करता था। इस प्रक्रिया में रसूल को कई पहाड़ी गाँवों में जाने और वहाँ के लोगों को क़रीब से जानने का मौक़ा मिला। अपनी इन यात्राओं के दौरान वे गाँवों के स्कूलों में अपनी रचनाएँ भी सुनाया करते थे।
द्वितीय विश्व युद्ध के समय हमज़ातफ़ की कृतियाँ अख़बार ‘बल्शिवीक गोर’ (पहाड़ों का बल्शिवीक) में छपा करती थीं। वे उन दिनों सैनिकों के पराक्रम की कहानियाँ, रेखाचित्र, लेख आदि लिखा करते थे और दग़िस्तान के वीरों द्वारा जर्मनी के ख़िलाफ़ लड़े जा रहे ‘महान देशभक्तिपूर्ण युद्ध’ में दिखाए गये वीरतापूर्ण कारनामों का बखान किया करते थे। सन् 1942 से उन्होंने रेडियो में बतौर प्रोग्राम एडिटर काम किया। शुरूआती दौर में वे कविताएँ त्सदासा के नाम से ही लिखते थे लेकिन बाद में उन्होंने पिता के नाम ‘हमज़ात’ से ही अपना तख़ल्लुस हमज़ातफ़ बना लिया।
हमज़ातफ़ जब 20 साल के थे तब उनका पहला काव्य-संग्रह ‘धधकता प्यार और भड़कती नफ़रत’ अवारी भाषा में आया था, जो उनकी मातृभाषा थी। इस संग्रह में युद्ध से जुड़ी कविताएँ संकलित हैं। अवार कोहेकाफ़ इलाके (काकेशिया) की एक क़ौम की भाषा है, वह क़ौम भी इसी नाम से जानी जाती है।
द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद रसूल सन 1945 में गोरिकी साहित्य संस्थान, मसक्वा (मॉस्को) में दाख़िला लेते हैं। बाद में एक बार हमज़ातफ़ ने यह बताया था कि उस समय उनकी पढ़ाई से ज़्यादा दिलचस्पी मसक्वा में थी। वे मुल्क की मौजूदा सरगर्मियों के बीच रहना चाहते थे। उन्हें लगता था कि साहित्य की बुनियाद तो उनको पिता से मिल ही चुकी है, उनकी एक किताब भी प्रकाशित हो चुकी है। लेकिन संस्थान में पढ़ाई शुरू होने पर उनका यह रवैया बिलकुल बदल गया। उन्होंने रूसी साहित्य, इतिहास और संस्कृति को गंभीरता से लिया और उनमें सीखने की प्रबल ललक पैदा हो गयी। वे अक्सर थिएटर और अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रमों में जाने लगे, संस्कृति को क़रीब से जानने लगे। अपने उन दिनों के बारे में उन्होंने लिखा था :
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Weight | 300 g |
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Dimensions | 9 × 6 × 0.5 in |
Product Options / Binding Type |
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