







The Fifth Way / द फिफ्थ वे
₹900.00 Original price was: ₹900.00.₹550.00Current price is: ₹550.00.
FREE SHIPMENT FOR ORDER ABOVE Rs.149/- FREE BY REGD. BOOK POST
Read eBook in Mobile APP
Amazon : Buy Link
Flipkart : Buy Link
Kindle : Buy Link
NotNul : Buy Link
अनुक्रम
- यह यात्रा
- मेरी कहानी – स्वामी परिज्ञान भारती
- आत्मीय आमंत्रण – स्वामी परिज्ञान भारती
भाग-1 / यह यात्रा
- मस्तिष्क को उद्वेलित करने वाले प्रश्न
- उसकी खोज
- अवरोहण—सांख्य-दर्शन : सृष्टि रचना की प्रक्रिया
- सात शरीर
1. भौतिक शरीर
2. भाव शरीर
3. मनस शरीर
4. विज्ञान या प्रज्ञा शरीर
5. आत्म शरीर
6. निर्वाण शरीर (ब्रह्म शरीर)
7. परिनिर्वाण शरीर
- तीन शरीर एवं संवेदनशीलता
- पीड़ा शरीर
- मनुष्य योनी के 777 जन्म
- अभद्र लोक
- भद्र लोक
- धर्म लोक
- अहंकार, मोह एवं प्रेम
भाग-2/आरोहण
- पाँचवाँ मार्ग
- ध्यान क्यों
- ध्यान के मुख्य चरण
-
- ध्यान (attention)
- एकाग्रता
- होश और साक्षी
- आत्म निरीक्षण
- ध्यान (Relaxation)
(अ) ध्यान कैसे करें
(ब) ध्यान में सावधानियाँ
(स) एक दिन ध्यान को भी छोड़ना होता है
- समाधि–समाधि और ध्यान में अंतर
1. सवितर्क और निर्वितर्क समाधि
2. सविचार और निर्विचार समाधि
3. सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात समाधि
4. सबीज समाधि, निर्बीज समाधि
5. ब्रज भेद, धर्ममेध समाधि
- आकाश साधना (सीधे छठे शरीर की साधना)
- शिव और शक्ति
- पानी कभी अशुद्ध नहीं होता
- सत्संग
- प्रभावित होना
- साधना पथ में साधकों के अनुभव
भाग-3 / साधकों के अनुभव
- संसार से संन्यास की और मेरे जीवन की यात्रा –शुभम
- समस्या ही समाधान बनी –अनुपम
- एक यार गोविन्द के शिष्य की यात्रा –श्रवण
- सब कुछ बदल गया –मुकेश
- कीचड़ में खिला कमल –स्वर्गीय सविना
- किस्मत ने दिया मौका, पर… –कमल उर्फ़ राजू
- मेरी बीमारी हार गई –दुर्गा
- मेरी साधना यात्रा –हरीश
- संशय से श्रद्धा की यात्रा –डॉ. नरेन्द्र
- साधना से बदलाव –नीना
- जटिलता से सरलता की यात्रा –दिनेश
- उस परम ध्वनि का एक कोमल स्वर –जैविक
- मेरे दुःखों का कारण मैं स्वयं –प्रिया
- मेरी साधना –डॉ. सुरभि
- सांसारिक जीवन से अंतर की खोज की उड़ान –दरिया
- मनसा, वाचा, कर्मणा –डॉ. आदिल
- अब हुं चेत गंवार –पुष्पेन्द्र
- मेरी साहसिक जीवन-यात्रा –सुनीता
- मेरे नए जीवन की शुरुआत –माँ प्रतीक्षा
- Description
- Additional information
Description
Description
यह यात्रा
- यह यात्रा रिट्रीट (घर वापसी की) है।
- यह यात्रा ‘पर’ से ‘स्व’ की है।
- यह यात्रा ‘होने’ से ‘न होने’ और ‘न होने’ से ‘है’ की है।
- यह यात्रा मात्रात्मकता (quantity) से गुणात्मकता (quality) की है।
- यह यात्रा क्षितिजिय (horizontal) से लम्बवत् (vertical) की है।
- यह यात्रा ससीम (limit) से असीम (limitless) की है।
- यह यात्रा क्षण भंगुर (momentary/ ephemera) से शाश्वत (eternal) की है।
- यह यात्रा ज्ञात से अज्ञात, प्रकट से अप्रकट और सगुण से निर्गुण की है।
- यह यात्रा अन्धकार से प्रकाश की ओर, असद से सद की ओर, मृत से अ-मृत (अमृत) की ओर है।
इस यात्रा का सबको खुला आमंत्रण है।
…इसी पुस्तक से…
मेरे पालक, मेरे चाचाजी लकवे के कारण बिस्तर तक ही सीमित हो गये थे। एक दिन जब मैं उनके पास गया तो उन्हें नींद आ रही थी, और उनके सीने पर एक पत्रिका उल्टी पड़ी हुई थी, खुली हुई। मैंने पत्रिका को उठाकर देखा, नाम था ‘ज्योति शिखा’। उसे लेकर मैं अपने कमरे में गया, पत्रिका खोली तो प्रवचन का नाम था ‘क्या ईश्वर मर गया है?’ अरे यह क्या! यही तो मेरा प्रश्न था, जो मुझे रात-दिन परेशान कर रहा था। एक श्वास में मैं सारा लेख पढ़ गया। पत्रिका के मुख पृष्ठ पर देखा, ये व्यक्ति कौन है, लिखा था ‘आचार्य रजनीश’। पूरी पत्रिका पढ़ डाली, छोटी सी ही थी। पढ़कर लगा यूरेका, यूरेका, मिल गया, शिद्दत से मुझे जिसकी तलाश थी, वो व्यक्ति मिल गया।
याद आया, उस समय मैं 1963-64 में उदयपुर के विद्या भवन टीचर्स ट्रेनिंग कॉलेज में बीएड कर रहा था। यह व्यक्ति मेरी कक्षा में प्रवचन देने आया था, नाम था आचार्य रजनीश। हाँ, यही व्यक्ति। लेकिन पूरे प्रवचन में मेरे पल्ले कुछ न पड़ा था। हाँ, उस प्रवचन की एक पंक्ति मुझे याद रह गयी, जिसमें उन्होंने कहा था– ‘किसी से यह कहना कि विचारों को छोड़ दो, ऐसा ही है कि किसी से आप कहें कि अपना बुखार छोड़ दो। न जाने क्यों यह पंक्ति मुझे याद रह गयी। तब मैं इसका कुछ भी अर्थ समझ नहीं पाया था। मुझे तो यह भी पता न था कि मेरे दिमाग में विचार चलते हैं।
लेकिन इस पत्रिका ने तो मुझे झकझोर कर रख दिया। कुछ वर्षों बाद उनकी किताबें भी बाजार में आने लगी। नगर में एक व्यक्ति उनकी किताबें खरीदा करता था। मैं उससे माँग कर पढ़ने लगा, किताब के बाद किताब। मेरा स्वास्थ्य सुधरने लगा, जीने की उम्मीद और लालसा बढ़ने लगी, अब मैं सत्य की खोज में लग गया।
उनकी एक बात ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया–‘मानो मत, जानों’ इसका क्या मतलब हुआ? मैं सोच में पड़ गया। पहला प्रश्न उठा– क्या मैं आत्मा, परमात्मा को मानता हूँ, या जानता हूँ? नहीं, बिल्कुल नहीं, मैं आत्मा, परमात्मा को जानता तो नहीं, मात्र मानता हूँ। धक्का लगा, लेकिन धक्का काम कर गया। निश्चय किया, अब कुछ भी मात्र मानूँगा नहीं, जान कर रहूँगा। लेकिन कैसे? यह पता न था।
अध्ययन जारी रहा, लेकिन 1974 में मैं एक महिला के प्रेम में पड़ गया। दो साल बाद उसकी शादी हो गयी। उसके विरह में मैं फिर डिप्रेशन का शिकार हो गया। अभी तक के आचार्य रजनीश के पढ़े प्रवचन कुछ काम न आये, मौत फिर सामने आकर खड़ी हो गयी। इस समय मैं ताओ उपनिषद पढ़ रहा था– वे ‘व्यक्त’ और ‘अव्यक्त’ के बारे में बता रहे थे। उसी में प्रेम का जिक्र आया, पढ़ते-पढ़ते आँखों से आँसू झरने लगे। मैंने उसी समय उन्हें समर्पण कर दिया, ‘लेकिन एक शर्त के साथ कि मैंने समर्पण कर दिया है, अब संन्यास आप देंगे।’ (मैं भी कैसा नादान था, समर्पण में भी कहीं शर्त होती है भला!)
संयोग देखिये, सात दिन बाद मेरे एक परिचित मित्र घर आये (वे पहले से ओशो के संन्यासी थे) आदेश के स्वर में बोले– ‘तुम्हें पूना चलना है, सत्रह मार्च को निकलना है, तैयार रहना।’ बस इतना कहा और निकल लिया। मैं हतप्रभ। मेरे पास पैसे नहीं थे, क्या होगा, ये कैसे सम्भव होगा, कुछ पता नहीं। मैं रोज की तरह स्कूल गया। मेरे सहायक अध्यापक ने बताया कि आपका टीए बिल आया है, बैंक से पैसे ले आओ। एक घंटे बाद मेरी जेब में डेढ़ सौ रुपये थे।
खैर, 21 मार्च, आचार्यश्री के संबोधि दिवस का मेरे लिए बहुत ही शुभ अवसर था। नहाने के बाद जब मैं कपड़े पहनने लगा तो उसी मित्र ने कहा– ये कपड़े नहीं, ये भगवा रंग के कपड़े पहनो। उस समय मैं कुछ न बोला, चुपचाप कपड़े पहन लिए। किन्तु मेरे मन में प्रश्न उठा, ये कपड़े कहाँ से आये और वो भी ठीक मेरे नाप के। लेकिन हुआ यह था कि मेरे एक मित्र एम. एल. ए. थे। मैं तब उनके पास जयपुर में ही था। उन्हें किसी काम से तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री मोरारजी देसाई से मिलने दिल्ली जाना था। उसने कहा, चल पी.एम. से मिलकर आते हैं। फिर मेरा हुलिया देखकर बोले, तेरे ये कपडे़ ठीक नहीं हैं, मैं व्यवस्था करता हूँ। उन्होंने सेक्रेटरी से कहकर मेरे लिए खादी के सफेद कुरते-पायजामा का इंतजाम करवा दिया। इन्हीं कुरता-पायजामा को मेरे मित्र ने बिना मेरी जानकारी के मेरी अटैची से निकालकर एक ही दिन में रंगवा-सूखा कर, प्रेस करवा कर चुपचाप वापस अटैची में रखवा दिए। घटनाक्रम देखिये– संन्यास का मुझे स्वप्न में भी खयाल नहीं था। मैं तो आचार्यश्री के दर्शन और प्रवचन सुनने गया था।
भगवा वस्त्र पहनते ही अचानक हल्केपन का अनुभव हुआ, मन एकदम शान्त, शरीर शिथिल और मन के अन्दर विचार शून्यता। अपने अन्दर एक दिव्यप्रेम की अनुभूति हुई। सब तैयार होकर कमरे के बाहर निकलने लगे। लेकिन मैंने पाया कि मैं किसी भी प्रकार की गति करने में असमर्थ हूँ। मित्र ने पीछे देखा, मैं खड़ा ही था, उसने पूछा– क्या हुआ? मैं बोल ही नहीं पाया। उसने धीरे से मेरा हाथ पकड़ा। मैंने भी हिम्मत की और धीरे-धीरे चलने लगा। अन्य मित्रों के साथ मेरा भी संन्यास हो गया। घर लौटने के लिए वापस बम्बई आकर शाम की ट्रेन में बैठा। बस बैठा ही था कि नाभि से सिर तक एक लहर सी चली, वैसी ही जैसी झूले मेें नीचे आते समय चलती है। मैं सिहर उठा, आनन्द से भर गया। मुझे कोई जानकारी भी नहीं कि ये सब मेरे साथ क्या हो रहा था। शरीर का एकाएक शिथिल होना, नाभि से सिर तक एक अति मीठी आनन्ददायक सिहरन क्या थी? ग्यारह दिन तक यह शिथिलता और सिहरन क्रमश: कम होती हुई बनी रही।
उस समय मुझे कुछ पता न था। यह तो बाद में ज्ञात हुआ कि यह सब ‘गुरु-प्रसाद’ (grace) था। जीवित सद्गुरु का शिष्य होना, गुरु द्वारा दीक्षा देना, समझाना, साधना के दौरान होने वाले अनुभवों को स्पष्ट करना, मार्गदर्शन तथा गुरु की उपस्थिति और शिष्य के समर्पण से बहुत कुछ अद्भुत, विस्मयकारी जो इस लोक का नहीं है, वह भी घटता है। यह शिष्य की असम्भव सी साधना-यात्रा को अति सरल बना देता है, जो अन्यथा व्यक्तिगत स्तर पर सम्भव ही नहीं है।
अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद मैं उनके साथ व्यक्तिगत सम्पर्क साधने में सफल नहीं हो सका। बुद्धा हॉल में उनके सामने बैठकर कभी-कभी प्रवचन सुनना, उनके प्रवचनों की किताबें पढ़कर अपना रास्ता खुद खोजना, यही मेरी नियति थी। मैं इस मार्ग पर चल पड़ा और चलता ही रहा। ध्येय यही था कि मेरा कहीं भी ठहराव न हो, मेरी साधना में प्रगति होती रहे, बस। (हालाँकि ठहराव के अवसर भी कुछ समय के लिए आये) आश्चर्य तो यह कि जब भी कभी मेरे सामने अस्पष्टता आयी न जाने कैसे मुझे मेरे अन्दर से ही स्पष्ट संकेत मिलते रहे, जो निश्चित रूप से मेरे नहीं थे।
जब मैं संन्यास के बाद लौटकर घर आया तो मैंने कुंडलिनी ध्यान (पूना आश्रम में मैंने इसका अभ्यास किया था) करना शुरू कर दिया। लेकिन कुंडलिनी ध्यान के बाद सीधा लेटकर शवासन (शरीर को पूरा ढीला छोड़ना) और जोड़ दिया। ध्यान तो न हुआ लेकिन मुझे गहरी नींद आ गयी। मैं सालभर से डिप्रेशन के कारण ठीक से सो नहीं पा रहा था, हल्की सी झपकी आती और नींद टूट जाया करती थी। ध्यान में नींद आने से मैं स्वस्थ होने लगा, भूख लगने लगी। मैं दो माह में स्वस्थ हो गया। जहाँ एक-एक सीढ़ी दीवार का सहारा लेकर चढ़ पाता था, अब दो-दो सीढि़याँ एक साथ चढ़ने लगा। डिप्रेशन चला गया।
दो महीने बाद ध्यान में नींद आनी बन्द हो गयी। अब मैं जाग्रत रहता लेकिन विचार बहुत आते थे। लेकिन मैंने हिम्मत नहीं हारी, लगा रहा। मुझे होश का कुछ पता न था। एक दिन स्कूल जाने में मैं लेट हो गया। साइकिल से चार किलोमीटर दूर स्कूल जा रहा था। मैं सोच रहा था, कहीं जिला शिक्षाधिकारी निरीक्षण के लिए स्कूल आ गये होंगे तो? वो पूछेंगे तो मैं यह कह दूँगा, वह यह कहेगा तो मैं वह कह दूँगा, ऐसे विचार चल रहे थे। अचानक मुझे लगा– अरे! मैं यह क्या सोच रहा हूँ, जो होगा, देखा जाएगा और मैं एकदम रिलैक्स हो गया। साइकिल के हैण्डल कसकर पकड़े हुए था, वे ढीले पड़ गये। वह मेरा पहला ‘होश’ था। इस होश के आने से मेरी साधना को गति मिल गयी। ‘मैं क्या सोच रहा हूँ’ अपने आपसे यह पूछना मेरे लिए जैसे एक ‘मंत्र’ बन गया। अब मैं अपने विचारों को वर्गीकृत (Classify) करने लग गया, इम्प्रैशन लेने में सावधानी आने लगी। वृथा लोग, वृथा बातें, वृथा काम छूटने लगे। मेरे जीवन में एक सहज अनुशासन आने लगा। सुबह घूमना, व्यायाम, प्राणायम करना, दिन में दो बार ध्यान करना, ओशो, कृष्णमूर्ति, महर्षि रमण, रामकृष्ण परमहंस आदि बुद्ध पुरुषों को पढ़ना, मेरी दिनचर्या बन गयी और फालतू की सब बातें छूटती गयीं।
ध्यान में नींद न आने के दो महीने बाद, एक दिन ध्यान करते-करते, अचानक मेरे विचार स्वतः ही रुक गये (मैं जमीन पर लेटकर ध्यान करता था) शरीर गुब्बारे की तरह फैल गया। मैं विचार शून्य, भाव शून्य, क्रिया शून्य, देह मुक्त जमीन पर पड़ा था, लेकिन जमीन का अनुभव नहीं हो रहा था। मेरी स्थिति वैसी ही थी, जैसी माँ के गर्भ में बालक पानी में तैर रहा हो, बिल्कुल भार मुक्त। कितनी दिव्य, अलौकिक और मधुर अनुभूति थी, कह नहीं सकता। जीवन में पहली बार शान्ति का अनुभव हुआ। ऐसी शान्ति, ऐसे विश्राम का अनुभव पहले कभी नहीं हुआ था।
Additional information
Additional information
Weight | N/A |
---|---|
Dimensions | N/A |
Product Options / Binding Type |
Related Products
-
-17%Select options This product has multiple variants. The options may be chosen on the product pageQuick ViewAutobiography / Memoirs / Aatmkatha / Sansmaran / आत्मकथा / संस्मरण
Das Digri Channal / दस डिग्री चैनल — अंडमान के बिंब प्रतिबिंब [संस्मरण]
₹599.00Original price was: ₹599.00.₹499.00Current price is: ₹499.00. -
Art and Culture / Kala avam Sanskriti / कला एवं संस्कृति, Paperback / पेपरबैक, Philosophy / Darshan Shastra / दर्शन शास्त्र, Religious / Aadhyatam / Dharm / आध्यातम / धर्म, Sampradayikta / Sociology / सांप्रदायिकता / समाजशास्त्र (Communalism)
Sristi aur Dharm / सृष्टि और धर्म
₹499.00Original price was: ₹499.00.₹450.00Current price is: ₹450.00. -
-23%Select options This product has multiple variants. The options may be chosen on the product pageQuick ViewArt and Culture / Kala avam Sanskriti / कला एवं संस्कृति, Education / General Knowledge / शिक्षा / सामान्य ज्ञान, Hard Bound / सजिल्द, New Releases / नवीनतम, Paperback / पेपरबैक, Philosophy / Darshan Shastra / दर्शन शास्त्र, Top Selling
Aadhunik Bharat Nirman mein Esaiayat ka Yogdan
₹500.00 – ₹780.00
आधुनिक भारत निर्माण में ईसाइयत का योगदान -
Select options This product has multiple variants. The options may be chosen on the product pageQuick View