



Padamshri Ramdayal Munda : Dhol, Bansuri ke Saath Shiksha, Bhasha, Sanskriti aur Rajneeti – पद्मश्री रामदयाल मुंडा : ढाेल, बाँसुरी के साथ शिक्षा, भाषा, संस्कृति और राजनीति – Aadivasi Hindi Sahitya, Tribal Culture
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अनुक्रम
- जल, जंगल, जमीन का सवाल –फैसल अनुराग से बातचीत पर आधारित
- डॉ. रामदयाल मुंडा के सपने –कुँवरसिंह पाहन
- आदिवासियों का अस्तित्व संघर्ष –डॉ. रामदयाल मुंडा
- डॉ. मुंडा के सपनों का झारखंड –डॉ. अशोक कुमार नाग
- डॉ. रामदयाल मुंडा का प्रभाव दो किस्तों में हुआ सम्पन्न – एक सामाजिक सांस्कृतिक अनुष्ठान –अशोक पागल
- डॉ. मुंडा : झारखंड के कोहिनूर –डॉ. रामप्रसाद
- डाॅ. रामदयाल मुंडा की राजनीतिक चिन्ता –डाॅ. वी.पी. केशरी
- अखरा का अप्रतिम मनीषी कलाकार पद्मश्री डॉ. रामदयाल मुंडा –गिरिधारी राम गौंझू ‘गिरिराज’
- डॉ. रामदयाल मुंडा जैसा मैंने उन्हें जाना –उत्तम सेनगुप्ता
- होंठों से वंशी का रूठ जाना –डॉ. शैलेश पंडित
- पद्मश्री डॉ. रामदयाल मुंडा : एक चिन्तन –सोमा सिंह मुंडा
- डॉ. रामदयाल मुंडा : ईमानदार जननायक –डॉ. देवशरण भगत
- पद्मश्री डॉ. रामदयाल मुंडा एवं राजनीति! –कुमार वरुण
- आदिवासी : मिथ और यथार्थ –रणेन्द्र
- रामदयाल मुंडा : अद्भुत व्यक्तित्व –डॉ. अनुज कुमार सिन्हा
- देश का एक महानायक खो गया –रमणिका गुप्ता
- झारखंड के सांस्कृतिक-बौद्धिक आन्दोलन के पुरोधा : डॉ. रामदयाल मुंडा –शैलेन्द्र महतो
- बनिया बनने में हजार-दो हजार वर्ष लगेगा आदिवासियों को –विनोद कुमार
- डॉ. रामदयाल मुंडा : एक असाधारण व्यक्तित्व –सबरण सिंह मुंडा
- महान विभूति पद्मश्री डॉ. रामदयाल मुंडा –उमेश कालिन्दी
- भाषिक और सांस्कृतिक उलगुलान के प्रणेता –बीरेन्द्र सोय
- कला-संस्कृति के अनन्य उपासक : डॉ. मुंडा –डॉ. जिन्दरसिंह मुंडा
- बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी : डॉ. मुंडा –प्रो. (डॉ.) सत्यनारायण मुंडा
- झारखंड के रवीन्द्रनाथ टैगोर थे डॉ. मुंडा –मेघनाथ
- और झारखंड का सूर्य डूब गया! –गिरिधारी राम गौंझू ‘गिरिराज’
- एक चुम्बकीय व्यक्तित्व –सविता केशरी
- उन्होंने माटी का कर्ज चुकाया –बलबीर दत्त
- डॉ. रामदयाल मुंडा मूलत: साहित्यिक संस्कार और सांस्कृतिक रूझान के व्यक्ति थे –अशोक प्रियदर्शी
- शालवन के अन्तिम शाल की याद –विद्याभूषण
- डॉ. रामदयाल मुंडा के बिना सांस्कृतिक आन्दोलन –गुंजल इकिर मुंडा
- निहितार्थ –अशोक पागल
- देशज अस्मिता के आधुनिक स्वप्नदृष्टा : रामदयाल मुंडा –अनिल अंशुमन
- डॉ. रामदयाल मुंडा–मेरे हीरो –श्री प्रकाश
- डॉ. रामदयाल–इन्सानियत की एक हद यह भी –डॉ. विसेश्वर प्रसाद केशरी
- डॉ. रामदयाल मुंडा : क्या भुलूँ क्या याद करूँ –डॉ. हरेन्द्र प्र. सिन्हा
- डॉ. मुंडा के लिए अखरा के मायने –राहुल मेहता
- गीत की अन्तिम कड़ी –अंजु कुमारी साहु
- अखड़ा में मुंडा मामा –वंदना टेटे
- मुंडा काका–हमारे आदर्श –सच्ची कुमारी
- मेरा काका रामदयाल मुंडा –सीमा केशरी
- जे नाची से बाँची –आलोका
- डॉ. रामदयाल मुंडा : अपने को जानने वालों को सम्मोहित करती आदिवासीयत से स्पंदित –स्टैन स्वामी
- डॉ. रामदयाल मुंडा का चिन्तन– आदिवासी स्वशासन की चुनौतियाँ –सुधीर पाल
- डॉ. मुंडा का साहित्य कुछ बोलता है –शान्ति नाग
- प्रकृति के मानवीकरण के चतुर चितेरे हैं रामदयाल मुंडा –दयाशंकर
- आदिवासी परम्परा और युगबोध के संवाहक : रामदयाल मुंडा –पुनीता जैन
- नदी और उसके सम्बन्धी तथा अन्य नगीत की समीक्षा –गिरिधारी राम गौंझू ‘गिरिराज’
- समीक्षा : डॉ. रामदयाल मुंडा का आदिधर्म –गिरिधारी राम गौंझू ‘गिरिराज’
- रामदयाल मुंडा की कविताएँ मनुष्य और प्रकृति से संवाद की कविताएँ हैं –जनार्दन
- कवि रामदयाल मुंडा –सावित्री बड़ाईक
- कथन शालवन के अन्तिम शाल का : कवि रामदयाल मुंडा की कालजयी कविता –डॉ. सावित्री बड़ाईक
- संक्षिप्त जीवन-वृत
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Description
पुस्तक के बारे में
आदिवासियों की इस प्रतिरोध संस्कृति का कारक उस बुनयादी बनावट में है, जो उसे भू-सांस्कृतिक-पर्यावरणीय संरक्षण प्रदान करती है। इसी कारण वह प्रतिपक्षी से लड़ने के लिए तैयार हो जाता है। बिना यह सोचे कि प्रतिद्वन्द्वी कौन है और उसकी ताकत क्या है? जो भी उसे चुनौती देता है, उससे वह लड़ता है। वास्तव में स्वतन्त्रता की असली लड़ाई तो आदिवासियों ने ही लड़ी। वे कभी भी किसी से भी युद्ध-संघर्ष की रणनीति बनाते हैं, लेकिन आदिवासी के पास एक सूत्री एजेंडा जल-जंगल-जमीन की रक्षा है।
भारत का यथार्थपरक और सच्चाई पर आधारित इतिहास तो अभी तक लिखा नहीं गया है, इसलिए आदिवासी संघर्ष उसकी चेतना, विचार एवं प्रभाव के मानक का मूल्यांकन भी नहीं हुआ है। आदिवासी इतिहास वाचिक है, जब उसे लेकर इतिहास लिखा जायेगा, तो यह निश्चित ही उभरेगा कि आदिवासी संग्राम किस तरह निरन्तर गतिमान रहा है। हालाँकि मैं इतिहासवेत्ता नहीं हूँ। लेकिन माेटे तौर पर जो देखने को मिलता है, उसका एकांश भी लिखित इतिहास में वर्णित नहीं है। क्या इस तथ्य को झुठलाया जा सकता है कि जब सब भागे, तो केवल आदिवासी ही लड़ता दिखा। मुगल काल में राणा प्रताप की बहादुरी की चर्चा होती है। कुछ अन्य स्थानों पर भी राजपूत लड़े, लेकिन हर जगह वे आदिवासियों की मदद एवं ताकत से ही लड़ते दिखे। दक्षिण में भी इसके बहुत सारे उदाहरण हैं। भारत में मुगल-अँग्रेज सबका विस्तार तेजी से हुआ। मुगल तो जंगल इलाकों में घुस ही नहीं पाये। यह बात अँग्रेजों के साथ भी है। मैदानों में तो अँग्रेजों को रोका नहीं जा सका, जबकि बड़ी-बड़ी सेना भारतीयों के पास थी, लेकिन अँग्रेज धड़ाधड़ घुसते चले गये।
1765 में अँग्रेजों को दीवानी मिली। फिर वे तेजी से पूरे भारत में फैलने लगे। मैदानों में सरेंडर जैसी स्थिति थी, जंगल में संसाधन थे और उस पर नियन्त्रण की बात भी थी। यह वह इलाका था, जिसने गुप्त काल में ताँबा-लोहा का प्रयोग शुरू किया। भारत का स्वर्ण-युग तो भारतीय आदिवासियों की ज्ञान-सम्पत्ति के कारण प्रसिद्ध हुआ। अँग्रेजों ने इस संसाधनों पर कब्जे की योजना बनायी, तो उन्हें पहला भारी प्रतिरोध आदिवासियों का ही झेलना पड़ा। आदिवासियों की इन लड़ाइयों को इतिहास में ठीक से दर्ज तक नहीं किया गया है। लेकिन चुआड़ विद्रोह से झारखंड आन्दोलन तक स्वयत्तता, अस्मिता, संसाधनों पर सामूहिक हक और स्वशासन की माँग को लेकर आदिवासियों का दीर्घकालिक संघर्ष देखने को मिलता है। आदिवासियों का एक ही सवाल था कि किस नैतिकता के आधार पर संसाधनों पर माल बाँधने का अधिकार किसी को मिला है? जबरन माल देने को आदिवासी तैयार नहीं थे। अँग्रेजों के पास जवाब नहीं था। जिन थोड़े लोगों के नाम याद आते हैं, सबने यही सवाल किया और प्रतिरोध खड़ा किया। 1784 में तिलका मांझी का संघर्ष भी इन्हीं सवालों पर था और यह लड़ाई दीवानी मिलने के मात्र 14 सालों के अन्दर खड़ी हुई, जो आगे विभिन्न रूपों में निरन्तर जारी रही। अँग्रेजों ने देखा कि एक मामूली आदमी की ललकार पर किस संख्या में आदिवासी मरने-मारने निकल पड़ते हैं।
1831 का कोल विद्रोह व्यापक भागीदारी का प्रतीक है। सामूहिक संघर्ष की व्यापक एथनिक एकता का गवाह। 1830-36 में इससे भी बड़ी लड़ाइयाँ फैलीं। सिंगराय-विंदराय के नेतृत्व में लड़ी गयी लड़ाई हो या सिद्धो-कान्हू नेतृत्व में संताल हूल। संताल हूल पूर्ववर्ती लड़ाइयों की एकजुटता तथा वैचारिकता का पर्याय बना, जिसका व्यापक दार्शनिक विस्तार बिरसा उलगुलान में मिलता है। 1857 के संघर्ष को स्वतन्त्रता की पहली लड़ाई इतिहासकारों ने मानी है, लेकिन वह कुछ भावनात्मक आधारों पर फूटा था, उनके पहले से आदिवासी स्वतन्त्रता की लड़ाई लड़ रहे थे और उसे ‘नोट’ नहीं किया गया। वह आदिवासी संघर्षों के बारे में इतिहास की नाइंसाफी है। कुछ लोग अब मानने लगे हैं कि तिलका मांझी पहला लड़ाका था। आदिवासी लड़ाइयों का विद्रोह कह कर उसके विचार-चेतना-प्रतिरोध और प्रभाव को कम करने की भी साजिश होती है। दरअसल, आदिवासियों ने व्यवस्थित लड़ाइयाँ लड़ी हैं। आज नागा विद्रोह तक उसे समझा-देखा जा सकता है। बात केवल आदिवासियों की ही नहीं है। पहाड़ों की आबादी की है। पहाड़ों पर स्वतन्त्रता की भावना मैदानों की तुलना में ज्यादा देखने को मिलती है। नेपाल-भूटान-तिब्बत तक की स्वायत्तता का सवाल इसी सन्दर्भ में समझा जाना चाहिए। जब अँग्रेजों ने देखा कि आदिवासियों को आसानी से जीता नहीं जा सकता, तब उन्होंने समझौते किये। साऊथ-वेस्ट फ्रंटियर हो या रामगढ़ में किया गया विलकिंसन एग्रीमेंट। गंजाम की एजेंसी हो या संताल परगना काश्तकारी अधिनियम या छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम। कोल विद्रोह, संताल हूल, बिरसा उलगुलान के बाद बने कानून वास्तव में संधि-दस्तावेज हैं। ठीक उसी तर्ज पर जैसे कि अमेरिकी इंडियनों के साथ अँग्रेजों, आइरिशों ने किया। आज अमेरिका में उसे रिजर्व एरिया कहा जाता है। भारत में भी तकनीकी तौर पर टेरेटरी दस्तावेज में कानून है। इसीलिए आदिवासी मिजाज में यह बात घुसी हुई है कि कोई भी इस कानूनों से छेड़छाड़ नहीं कर सकता। भारत में एक्सक्लुडेड एरिया की अवधारणा इसी से विकसित हुई, जिसे भारतीय संविधान ने पाँचवीं-छठी अनुसूची के रूप में मान्यता दी। आज इस सबका एक अन्तरराष्ट्रीय सन्दर्भ भी है। अमेरिकन आदिवासी जब अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट पर भरोसा नहीं करता तथा वह हेग विश्वकोर्ट में पहुँच कर अपने ऐतिहासिक अधिकारों की लूट पर सवाल उठाता है, तो सारी दुनिया के आदिवासियों के बीच सन्देश जाता है। आदिवासी स्वायत्तता का यह संघर्ष अमेरिकी सम्प्रभुता से है। उसके पास एग्रीमेंट है। इन्हीं सवालों ने सारी दुनिया को एक घोषणा पत्र तक पहुँचा दिया है। जब अमेरिकी सवाल ने आदिवासियों की बात नहीं सुनी, तो बात जिनेवा पहुँची और लोगों ने डेरा डाला। इसी दबाव में अटलांटिक पार कर आये आदिवासियों ने इंडिजिनस घोषणा-पत्र के लिए माहौल बनाया। 1982 में इसका वर्किंग ग्रुप बना। 1982 में इसका वर्किंग ग्रुप बना। 1993 में घोषणा-पत्र जारी हुआ। 1993 को विश्व आदिवासी वर्ष के रूप में मनाया गया। 1994 से 2004 तक आदिवासी दशक के रूप में मनाया जा रहा है। अब यूएनओ ने आदिवासियों के लिए स्थायी सदस्यता का प्रावधान किया है। इससे जल-जंगल-जमीन का देखें अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अहम एजेंडा बन गया है। झारखंड के आदिवासी इलाकों में ठगी का पुराना इतिहास है। आदिवासियों के सहज विश्वास के साथ धोखा हुआ। इमिनेंट डोमेन के नाम पर आदिवासियों के अधिकारवाले जंगल छीन लिये गये। उनसे, रिजर्व और आगे चलकर बचे हुए जंगल को प्रोटेक्टेड कह कर छीना गया। आदिवासियों के पास खतियान पार्ट टू नहीं है और इसी छल से उनके जंगल-जमीन की लूट हुई। इमिनेंट डोमेन के नाम पर यह लूट आदिवासी स्वायत्तता का आज ज्वलंत सवाल है। आजादी के बाद भी ठगी की गयी। आदिवासी जंगलों को प्रोटेक्ट करने के रूप में। खूंटकट्टी गाँवों के मामले उदाहरण हैं। खूंट में एक व्यक्ति का नाम रिकार्ड होल्डर के रूप में से जरूर होता है, लेकिन वह वास्तव में कस्टोडियन है।
जमींदारी प्रभाव ने तमाड़-बुंडू में इस भावना का निषेध किया। परिणाम सामने है कि आदिवासी संस्कृति जंगल रहित हो गयी। जंगल की रक्षा समुदाय कर सकता है और जब समूह सत्ता खत्म हुई, तो जंगल भी खत्म हुए। जमींदार-खूंटकट्टीदारों का फर्क नहीं समझा गया। सिंहभूम के मुंडा-भूमिज आदिवासी लिस्ट में छूट गये। कुड़मियों के एक वर्ग ने भी ऐसा ही कर अपने समाज को शिड्यूल लिस्ट से बाहर करवा दिया।
… इसी पुस्तक से…
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