











पुलिसिंग में कोई बंदिश नहीं (No Ten Commandments) by ST Hollins, IP, CIE formerly Inspector General of Police United Province
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एक प्रसिद्ध घुड़सवार पुलिस के बारे में अक्सर यह कहा जाता है कि ‘वे हमेशा अपने आदमी को पकड़ लेते हैं’, जिन लोगों ने भारतीय पुलिस को कार्य करते हुए देखा है, विशेष रूप से वे जिन्होंने मजिस्ट्रेट के रूप में पुलिस की तहकीकातों के परिणामों को देखा है, उन्होंने अक्सर इस कथन को सच होते पाया होगा। इस विशिष्ट किताब में उल्लिखित अनेक और अलग-अलग प्रकार के मामले यह बताते हैं कि भारतीय पुलिस ने इतनी सफलता कैसे हासिल की।
मेरे पास इस रिकॉर्ड में जोड़ने के लिए बहुत कम बातें हैं, और मैं एक मामले का संक्षिप्त विवरण देकर इसमें थोड़ा सा और जोड़ सकता हूँ। यह ऐसा मामला था जिसके बारे में लेखक ने खुद नहीं बताया है। यह मामला हैदराबाद राज्य में हुआ था जहाँ मैंने हॉलिन्स के साथ लगभग सात साल तक काम किया जब वे पुलिस के डायरेक्टर-जनरल थे।
हैदराबाद से 150 मील दूर नांदेड़ नगर में एक घटना हुई थी। नांदेड़ में सिखों का एक महत्त्वपूर्ण गुरुद्वारा था जिसके प्रशासन का दायित्व एक समिति के पास था। समिति का अध्यक्ष ब्रिटिश डायरेक्टर-जनरल को नियुक्त किया गया था। सिखों की एक बड़ी आबादी इस पवित्र स्थान पर या इसके आसपास रहती थी। यहाँ हमेशा मुसीबत की आशंका लगी रहती थी।
बम्बई का कार से दौरा करने के बाद जब हॉलिन्स वापस आये तो उनके लिए एक तार आया हुआ था। ‘खतरनाक हालात, नांदेड़, कृपया आयें, अयंगर।’ अयंगर उस मंडल का डिप्टी डायरेक्टर-जनरल था जिस मंडल में नांदेड़ स्थित था, और जब गुरुद्वारे में पहली बार उपद्रव शुरू हुआ, तब हॉलिन्स ने उसे वहाँ भेजा था। हॉलिन्स ने तार को एक व्यक्तिगत सन्देश समझा और फौरन रवाना हो गये।
जब वह नांदेड़ पहुँचे तो देखा कि स्थिति वास्तव में खतरनाक थी। दो या तीन दिन पहले पुलिस ने दो स्थानीय सिखों को किसी मामूली अपराध में पकड़ा था। उन दोनों ने गिरफ्तारी का विरोध किया और पुलिस के एक सिपाही को घायल कर के भाग निकले। फिर वे तीन अन्य सिखों से जा मिले जो हाल ही में पंजाब से आये थे। ये तीनों बदनाम लोग थे। फिर पाँचों सिखों ने गुरुद्वारा से सटे हुए बाहर के कमरों की छत पर शरण ले ली थी। उन्होंने पूरे मामले को यह कहकर धार्मिक रंग देने की कोशिश की कि वे तब तक छत पर रहेंगे और गिरफ्तारी का बलपूर्वक प्रतिरोध करेंगे जब तक कि गुरुद्वारों से सम्बन्धित कुछ काल्पनिक धार्मिक शिकायतों का निपटारा नहीं किया जाता। जल्दी ही पूरे नांदेड़ में यह खबर फैल गयी और लगभग पाँच हज़ार सिखों की भीड़ कृपाणों से लैस होकर गुरुद्वारे के आँगन में इकट्ठी हो गयी। पाँचों अड़ियल सिख पूरी भीड़ के सामने, गुरुद्वारे के बाहर के कमरों की छत पर अपनी तलवारें लहराते हुए खड़े थे और चिल्ला रहे थे कि मरते दम तक या उनके धार्मिक विवाद हल होने तक, वहीं रहेंगे।
भीड़ पर भी जल्दी ही धार्मिक उन्माद छा गया था। नांदेड़ पुलिस ने आँगन में जाने की कोशिश की, लेकिन फौरन ही पता चल गया कि पुलिस के तब तक उस भवन के पास पहुँचने की कोई उम्मीद नहीं थी, जब तक कि वे बन्दूकों और गोलियों का खुलकर इस्तेमाल न करें और यह भी संभव था कि ऐसी कोशिश करने पर वे खुद भी मारे जायें। यह भी स्पष्ट था कि यदि गुरुद्वारे के आँगन में हथियारों या बल का इस्तेमाल किया जाता तो इसे धर्म के खिलाफ माना जाता और पंजाब से सिखों के जत्थे नांदेड़ के अपने भाइयों को बचाने के लिए हैदराबाद आना शुरू कर देते– अगर ऐसा होता तो हैदराबाद राज्य को बेहिसाब नुकसान होता।
जब हॉलिन्स वहाँ पहुँचे तब वहाँ ऐसी ही स्थिति थी। जिला मजिस्ट्रेट, अयंगर और स्थानीय पुलिस सुपरिंटेंडेंट को साथ लेकर वे सीधा गुरुद्वारे गये और चिल्लाती और प्रदर्शन करती हुई भीड़ को चीरते हुए वे आगे गये। गुरुद्वारे की सीढ़ियों पर खड़े हुए और शान्ति रखने के लिए अपना हाथ उठाया। कुछ मिनटों तक प्रदर्शन चलता रहा और यह भी हो सकता था कि भीड़ में हॉलिन्स और उनके साथी फंस जाते। भीड़ पूरी तरह उनके खिलाफ थी लेकिन अन्त में भीड़ की जिज्ञासा ने भीड़ के जुनून पर विजय पायी और भीड़ शान्त हो गयी। अब अगले कुछ पलों में हॉलिन्स क्या करते या कहते, सब कुछ इस पर निर्भर था। हॉलिन्स ने ज़ोर से चिल्लाकर उर्दू में बोला ताकि उनकी आवाज़ भीड़ के साथ-साथ छत पर खड़े आदमियों को सुनाई दे : ‘छत पर बन्दरों की तरह उछलना-कूदना बन्द करो। यहाँ नीचे आओ और मर्दों की तरह मेरा सामना करो।’
भीड़ उनसे जो कुछ भी सुनने की उम्मीद कर रही हो, लेकिन यह सुनने की तो उसे बिल्कुल भी उम्मीद नहीं थी। भीड़ को झटका सा लगा और वहाँ खड़े सब लोग कुछ पल के लिए शान्त हो गये और हॉलिन्स फिर चिल्लाये कि अगर उनके कुछ विवाद हैं तो वे हर एक की बात सुनेंगे और फिर अपना निर्णय देंगे कि उसे कैसे सुलझाया जाए। फिर भी यदि वे सन्तुष्ट नहीं होते तब वे लोग वापस छत पर जा सकते थे। यह बात भीड़ को ठीक लगी और जल्दी ही उस भीड़ का एक बड़ा हिस्सा चिल्ला-चिल्ला कर छत पर खड़े आदमियों को नीचे आने और अपने विवाद साहब को बताने के लिए कहने लगा।
हैरानी की बात यह थी कि वे लोग छत से नीचे उतर आये। एक-एक करके वे लोग बाहर की सीढ़ी से छत से नीचे उतर कर आ गये और हॉलिन्स के सामने जाकर खड़े हो गये। एक मेज़ और कुर्सी लायी गयी और पाँचों सिखों ने वहाँ खड़े होकर अपने विवाद बताये जिन्हें रिकॉर्ड किया गया और हॉलिन्स द्वारा उनके निवारण के लिए किये गये निर्णयों को भी रिकॉर्ड किया गया। बातचीत जितनी लम्बी होती गयी, भीड़ का गुस्सा और जोश कम होता गया। अन्त में हॉलिन्स ने उन आदमियों से पूछा कि क्या वे सन्तुष्ट थे। उन्होंने कहा कि हाँ वे सन्तुष्ट थे। फिर हॉलिन्स ने कहा, ‘अब तक मैंने तुम्हारी बात सुनी। अब तुम्हारी बारी है मुझे सुनने की। अब मेरी एक शर्त है। तुम पाँचों आज रात की गाड़ी से पंजाब चले जाओ और कभी नांदेड़ वापस नहीं आओगे।’
यह सुनकर भीड़ फिर से चिल्लाने लगी और पाँचों आदमी भी विरोध करने लगे और कहा कि वे छत पर वापस चले जायेंगे, लेकिन भीड़ का जोश पहले जितना नहीं था और जब हॉलिन्स ने कहा कि अगर वे उनकी शर्त नहीं मानते तो वे गुरुद्वारा समिति से इस्तीफा दे देंगे तो भीड़ ने चिल्लाकर कहा, ‘नहीं।’ वे उन्हें समिति में चाहते थे। वे मान गये कि पाँचों आदमी पंजाब चले जायेंगे। वास्तव में वे उसी रात की गाड़ी से चले गये और कभी वापस नहीं आये।
मैंने यह घटना इसलिए बतायी है क्योंकि यह भारतीय पुलिस के उस पहलू को सामने लाती है जिसके बारे में हॉलिन्स ने ज़्यादा कुछ नहीं कहा। इस िकताब में उन्होंने भारत के लोगों के प्रति अपने असीम स्नेह को खुलकर बयां किया है और उस पुलिस सेवा, जिसके वे खुद एक सम्मानित अधिकारी थे, के भारतीय सदस्यों की अत्यधिक सराहना की है।
–आर.एम. क्रॉफ्टन
आई.सी.एस., सी.आई.ई.
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पुस्तक के बारे में
ब्रिटिश सम्राट ने कम्पनी से शासन की बागडोर अपने हाथ में लेने के बाद दो महत्त्वपूर्ण शाही सेवाएँ– इंडियन सिविल सर्विस (आई.सी.एस.) और इम्पीरियल पुलिस (आई.पी.), बनाईं। ये सेवायें दशकों तक एक राष्ट्र राज्य निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती रहीं और ब्रिटिश राज को बने रहने में मदद करती रहीं। 600 से अधिक राज्यों में बँटे देश को एक राजनैतिक इकाई बनाने वाले सरदार पटेल ने इन दोनों सेवाओं को ‘भारतीय राज्य का स्टील फ्रेम’ कहा था और तमाम विरोधों के बावज़ूद उन्होंने नौकरशाही के इस ढाँचे को बनाये रखने का फ़ैसला किया। सिर्फ़ इन सेवाओं के नाम बदल दिये गये। इंडियन सिविल सर्विस (आईसीएस) को इंडियन ऐडमिनिस्ट्रेटिव सर्विस (आईएएस) और इम्पीरियल पुलिस (आईपी) को इंडियन पुलिस सर्विस (आईपीएस) कहा जाने लगा।
प्रारंभ मे लंदन मे होने वाली प्रतियोगिता परीक्षाओं से चुने जाने वाले इन दोनों सेवाओं के सदस्य उच्च शिक्षित हुआ करते थे। उनमें से कई तो अद्भुत साहित्यिक प्रतिभा के भी धनी थे जिन्होंने उस विदेशी धरती, जो उनके लिए पूरी तरह से अनजानी थी और जिस पर वे शासन करने के लिए आ गये थे, की न केवल वनस्पतियों और जीव-जन्तुओं के बारे में गहरा अध्ययन किया, बल्कि संस्कृत और तमिल जैसी विश्व की दो प्राचीनतम भाषाओं की समृद्ध साहित्यिक परम्पराओं मे बिखरी प्रभूत साहित्यिक संपदा को यूरोपीय भाषाओं मे अनुवाद कर विश्व से उनका परिचय कराया।
अंग्रेज शासकों द्वारा देश को विभिन्न प्रशासनिक जिलों में विभाजित किया गया था। ये जिले कहीं-कहीं बहुत बड़े और अत्यधिक विभिन्नताओं वाले थे। आई.सी.एस. अधिकारियों ने जिलों के गज़ेटियर तैयार किये जिनमें नये प्रशासकों को परिचित कराने के लिए उस जिले की प्राकृतिक संपदा, वहाँ के रीति-रिवाज़ और प्रथाएँ, जाति और धर्म के अन्तर्विरोध, सीमाएँ और शासकों के लिए उपयोगी ज़रूरी सूचनाओं का समावेश होता था। संक्षेप में, ये गजट भारतीयों को समझने और उनकी कमान संभालने वाले शासकों के लिए एक बेहतरीन नोटबुक की तरह होते थे।
जॉर्ज ऑरवेल, जैसे महान् अपवादों को छोड़कर, जिसने ‘1984’ और ‘एनिमल फार्म’ नामक बहु चर्चित उपन्यास लिखे और जिसने बहुत कम समय तक एक पुलिस अधिकारी की हैसियत से काम किया था, इम्पीरियल पुलिस के अधिकांश सदस्य अपने आई.सी.एस. साथियों की अपेक्षा साहित्यिक अवदान के क्षेत्र मे कमज़ोर ही साबित हुए थे। हालाँकि उनमें से कईयों ने अपराधियों और अपराध विज्ञान पर किताबें लिखने की कोशिश की और कुछ ने अपने संस्मरण भी लिखे, लेकिन उनमें से कुछ ही उल्लेखनीय हैं। इन्ही मे से एक उल्लेखनीय संस्मरण एस.टी. हॉलिन्स की किताब ‘No Ten Commandments’ है। हॉलिन्स 1902 में इम्पीरियल पुलिस में भर्ती हुए। उन्हें संयुक्त प्रान्त (आजकल उत्तर प्रदेश) में नियुक्त किया गया। उन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप, जिसमें आज का भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश शामिल थे, के विभिन्न भागों में सेवाएँ दीं और संयुक्त प्रान्त पुलिस के सर्वोच्च पद इंस्पेक्टर जनरल ऑफ़ पुलिस तक पंहुचे। एक जटिल और विविधतापूर्ण समाज में एक पुलिस अधिकारी के रोजमर्रा के कार्यों से सम्बन्धित इन संस्मरणों को पढ़ना आज के पाठकों के लिए काफी दिलचस्प अनुभव होगा। उनके लेखों में अपराध के विस्तृत और ध्यान आकर्षित करने वाले क्षेत्र जैसे पेशेवर ज़हरखुरानी, सती-प्रथा, साम्प्रदायिक दंगों और क्रान्तिकारी गतिविधियों सहित डकैती, हत्या, सम्मान के लिए कत्ल, ठगी आदि शामिल हैं।
मैं भारतीय पाठकों को किताब के उन हिस्सों को पढ़ने की सलाह दूँगा, जहाँ हॉलिन्स भारतीय क्रान्तिकारियों के इतिहास के कुछ ऐसे तथ्यों की ओर इशारा करते हैं जिनके बारे में हमारे पास पूरी जानकारी नहीं है। 27 फ़रवरी 1931 की सुबह महान क्रांतिकारी चन्द्रशेखर आज़ाद की अल्फ्रेड पार्क, इलाहाबाद में हुई शहादत पर हमेशा रहस्य की पर्तें चढ़ी रही हैं। यह हमेशा रहस्य बना रहा कि इस मुठभेड़ का मुखबिर कौन था और पुलिस को चन्द्रशेखर आज़ाद की उस जगह पर मौजूदगी का पता कैसे चला जहाँ उन्हें पुलिस अधिकारी नाट बावर के दल द्वारा घेरकर मारा गया ? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जो किसी भी गम्भीर शोधकर्ता के मन में ज़रूर उठेंगे और इन सवालों का संतोष जनक जवाब उसे खुद क्रान्तिकारियों द्वारा लिखे गये हज़ारों पृष्ठों के संस्मरणों में भी नहीं मिलेगा। आज़ाद के साथी रहे यशपाल और मन्मथनाथ गुप्त जैसे क्रांतिकारी लेखकों ने इस घटना पर विस्तार से लिखा है लेकिन उनके लेखन की सीमाएँ थीं, क्योंकि उनके पास वे जानकारियाँ नहीं थीं जो पुलिस के पास थीं। इन संस्मरणों पर कई तरह के विवाद भी उठे हैं। हाल मे एक आईपीएस अधिकारी प्रताप गोपेन्द्र ने बड़े परिश्रम से और सैकड़ों सरकारी दस्तावेज़ों को खँगालने के बाद कुछ ऐसे तथ्य ढूँढ निकले हैं जिनसे इस मुठभेड़ पर एक दम नयी रोशनी पड़ती है। भारतीय पुलिस सेवा के अपने तीन दशकों के अनुभवों के साथ जब मै इस पुस्तक को पढ़ रहा था तो एक पाठक की हैसियत से उन स्थानों का अनुमान लगा सकता था जिनके बारे में लेखक या तो कुछ छिपा रहा था रहा या उसने हल्के संकेत दिये थे। एक पेशेवर पुलिस अधिकारी से यही अपेक्षा भी की जाती है कि वह अपने मुखबिरों की पहचान को गुप्त रखे। हॉलिन्स ने अपनी भूमिका में यह स्वीकार किया है कि उन्होंने गोपनीयता बनाये रखने के लिए कुछ स्थानों और व्यक्तियों के नाम संस्मरण में बदल दिये हैं।
हॉलिन्स की इस किताब से भारत की अापराधिक जनजातियों के बारे मे भी काफ़ी महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है। यहाँ यह उल्लेख करना उचित होगा कि ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने कुछ जातियों को जरायमपेशा या आपराधिक प्रवृत्ति का घोषित कर रखा था। ये वे लोग थे जिन्हें आदतन अपराधी के रूप में चिह्नित किया गया था और जिन को लगातार सामाजिक कलंक और कानूनी बंदिशों का सामना करना पड़ता था। कानून का पालन करवाने वाले अधिकारियों को इनके व्यावहारिक तरीकों के बारे में सिखाया जाता था लेकिन वे हमेशा पठनीय सामग्री की कमी का अभाव महसूस करते थे। हॉलिन्स की किताब एक वरिष्ठ अधिकारी द्वारा इस कमी को पूरा करने की एक कोशिश भी है जिसे वे पूरी समग्रता और सटीकता से करते हैं। स्वतंत्र भारत के संविधान में अापराधिक लक्षणों के आधार पर लोगों पर लगाई गयी सभी पाबंदियाँ समाप्त किये जाने के कारण, भले ही इस विषय की प्रासंगिकता खत्म हो गयी हो लेकिन इस किताब को लिखने के दौरान हॉलिन्स द्वारा इकट्ठी की गयी सामग्री आज भी बेहद मूल्यवान है। आज के अकादमिक संसार के समाजशास्त्री छात्रों को समझाने के लिए इस किताब को विस्तार से उपयोग कर सकते हैं।
इन्हीं जातियों में से एक का सदस्य था सुल्ताना डाकू जो अपने जीवन काल में ही लोक कथाओं का नायक बन गया था। आज भी बरेली से नैनीताल तक के इलाके मे राबिनहुड जैसी छवि वाला सुल्ताना लोकगीतों मे गाया जाता है। सुल्ताना डाकू को पकड़ने के लिए तत्कालीन संयुक्त प्रांत की सरकार ने एक बड़ा अभियान छेड़ा था और प्रख्यात शिकारी लेखक जिम कार्बेट के साथ हालिन्स भी उस बल में शामिल थे जिसे इस काम मे लगाया था। हालिंस की इस किताब मे इस अभियान के दिलचस्प विवरण उपलब्ध हैं।
एस. टी. हॉलिन्स की अधिकांश किताबें भारत में आसानी से नहीं मिलती। मैं खुद भी सेवानिवृत्त होने के कई वर्षों बाद ‘No Ten Commandments’ पुस्तक को देख पाया।
Vibhuti Narain Rai, IPS
Director General of Police (Retd)
Former Vice Chancellor
Mahatma Gandhi International Hindi University
Wardha
Additional information
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Weight | 400 g |
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Dimensions | 23 × 16 × 3 in |
Product Options / Binding Type |
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