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अरविंद दास

‘बेख़ुदी में खोया शहर: एक पत्रकार के नोट्स’ और ‘हिंदी में समाचार’ (शोध) के लेखक। ‘रिलिजन, पॉलिटिक्स एंड मीडिया: जर्मन एंड इंडियन पर्सपेक्टिव्स’ किताब के संयुक्त संपादक। डीयू से अर्थशास्त्र की पढ़ाई, आईआईएमसी से पत्रकारिता में प्रशिक्षण और जेएनयू से हिंदी साहित्य में एमफिल, पत्रकारिता में पीएचडी। एफटीआईआई, पुणे से फिल्म एप्रिसिएशन कोर्स और एनसीपीयूएल से उर्दू में डिप्लोमा। एमफिल-पीएचडी के दौरान जेएनयू में यूजीसी के रिसर्च फेलो और जर्मनी के जिगन विश्वविद्यालय में डीएफजी के पोस्ट-डॉक्टरल फेलो रहे। देश-विदेश में मीडिया को लेकर हुए सेमिनारों में शोध पत्रों की प्रस्तुति। भारतीय मीडिया के विभिन्न आयामों को लेकर जर्मनी के विश्वविद्यालयों में व्याख्यान। बीबीसी के दिल्ली स्थित ब्यूरो में सलाहकार और स्टार न्यूज में मल्टीमीडिया कंटेंट एडिटर रहे। फिलहाल करेंट अफेयर्स कार्यक्रम बनाने वाली प्रतिष्ठित प्रोडक्शन कंपनी आईटीवी (करण थापर), नयी दिल्ली के साथ प्रोड्यूसर के रूप में जुड़े हैं। सिनेमा और संस्कृति पर ‘प्रभात खबर’ में कॉलम। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, ऑनलाइन वेबसाइट के लिए नियमित लेखन। ईमेल : arvindkdas@gmail.com

पुस्तक के बारे में

पिछले दशकों में सूचना की नयी तकनीकी से लैस भाषाई मीडिया, खास कर हिंदी अखबार, टेलीविजन, ऑनलाइन वेबसाइट ने शहरी केंद्रों से परे दूर-दराज के इलाकों तक नेटवर्क का अप्रत्याशित विस्तार किया है। निस्संदेह, सार्वजनिक दुनिया में मास मीडिया ने बहस-मुबाहिसा को गति दी है और लोकतांत्रिक समाज का सपना भी बुना है। लेकिन सच यह भी है कि इन्हीं वर्षों में ‘फेक न्यूज’ और दुष्प्रचार का एक ऐसा तंत्र खड़ा हुआ है, जिसकी चपेट में डिजिटल मीडिया के साथ-साथ अखबार और टेलीविजन भी आ गए, जो लोकतंत्र के लिए खतरा बन कर उपस्थित हैं। मीडिया परिदृश्य पर सोशल मीडिया और टेलीविजन हावी हैं, हालांकि कोरोना महामारी के बीच समाचार पत्र जैसे पारंपरिक माध्यम की अहमियत फिर से बढ़ी है। पर सवाल है कि इक्कीसवीं सदी में हिंदी के अखबारों की प्रमुख प्रवृत्तियाँ क्या हैं? क्या ऑनलाइन वेबसाइट अखबारों के पूरक बन कर उभरी हैं या ये टीवी समाचार चैनलों के करीब हैं? समाचार चैनल सच दिखाने और सत्ता से सच बोलने की हमेशा बात करते हैं। उग्र राष्ट्रवाद के इस दौर में क्या तथ्य से सत्य की प्राप्ति पर इनका जोर है? क्या इनकी जवाबदेही नागरिक समाज के प्रति है? सवाल यह भी है कि आज का पाठक/दर्शक खुद को मीडिया के पूरे परिदृश्य में कहाँ खड़ा पाता है? शोध और न्यूज रूम के अपने अनुभवों के आधार पर लेखक ने इस किताब में हिंदी मीडिया के सरोकारों और संस्कृतियों का भाषा और कथ्य के मार्फत आलोचनात्मक विवेचन और विश्लेषण किया है। समकालीन समाज और मीडिया में दिलचस्पी रखने वालों के लिए यह एक जरूरी किताब है।

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