







Giroh ka Brahmbhoj (Collection of University Stories) <br> गिरोह का ब्रह्मभोज (विश्वविद्यालय की कहानियाँ)
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Author(s) — Shashank Shukla
लेखक — शशांक शुक्ला
| ANUUGYA BOOKS | HINDI | 152 Pages | 2023 | 5.5 x 8.5 inches |
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पुस्तक के बारे में
कहानीकार शशांक शुक्ल का पहला कहानी-संग्रह “गिरोह का ब्रह्मभोज” आज़ादी के बाद के भारतीय विश्वविद्यालयों पर केंद्रित उन्नीस कहानियों का संकलन है। ये कहानियाँ उच्च शिक्षण संस्थानों के पराभव और पतन की दस्तावेज हैं। इन कहानियों में ऐसे-ऐसे संदर्भ और प्रसंग दर्ज हैं जो मूल्यहीनता, स्वार्थपरता, पिछड़ापन, सामंती मनोवृत्ति, पतनशील और भ्रष्ट गठजोड़ का भयावह सच बताते हैं। इन कहानियों ने जिन विषयों को अपनी चिंता और अंतर्वस्तु बनाया है, उनकी चर्चा गाहे-बगाहे अनौपचारिक रूप से सुनने को मिलती हैं, कभी-कभार खबर भी बन जाती हैं, लेकिन, सांस्थानिक और सामूहिक तौर पर लोग इससे बचते हैं। हमारे युग और समाज के अन्य क्षेत्रों में मौजूद जटिलताओं से ये संस्थान भी निरापद नहीं। ज्ञान उत्पादन के इन परिसरों से ख्वाहिश थी कि ये प्रगतिशील चेतना-निर्माण, विवेक युक्त असहमति के साहस, मनुष्यता और न्याय की पक्षधरता वाले नागरिक-निर्माण में महती भूमिका अदा करेंगे। परंतु, भारतीय समाज में व्याप्त तमाम कमजोरियों, दुर्गुणों से संस्थान के तौर पर ये अपने को मुक्त रखने में सफल नहीं हो सके हैं। अपवाद स्वरूप भले ही कोई व्यक्ति या दौर विशेष में भिन्न हालत में दिखते हों।
व्यावहारिकता के नाम पर विकसित निजी स्वार्थों की अदला-बदली करने वाले कर्मचारियों, कथित विद्वानों के आपसी साहचर्य और समन्वय ने ‘संरचनागत हिंसा’ का ऐसा परिसर निर्मित किया है, जिसमें किसी भी अध्ययन-मनन-चिंतनशील, आज़ाद ख्याल के इंसान की उपेक्षा, अवमानना और वैचारिक हत्या सहज एवं स्वाभाविक है। व्यावहारिकता के नाम पर विकसित निजी स्वार्थों की अदला-बदली करने वाले कर्मचारियों, कथित विद्वानों के आपसी साहचर्य और समन्वय ने ‘संरचनागत हिंसा’ का ऐसा परिसर निर्मित किया है, जिसमें किसी भी अध्ययन-मनन-चिंतनशील, आज़ाद ख्याल के इंसान की उपेक्षा, अवमानना और वैचारिक हत्या सहज एवं स्वाभाविक है। अपनी इन्हीं दुर्बलताओं के कारण ज्ञान के ये परिसर आलोचनात्मक बुद्धि, तार्किकता और मौलिक सोच का मजबूती से ह्रास कर रहे हैं और अपने वांछित वैभव और यश की प्राप्ति में सफल नहीं हो पा रहे।
कथाकार शशांक शुक्ल को कई शिक्षण संस्थानों का लंबा अनुभव है। इनके पास अपने इर्द-गिर्द के किरदारों के मनोभावों, अंतर्निहित संकीर्णताओं की शिनाख्त करने वाली दृष्टि है और उसको कथा में गढ़ने-बुनने का सृजनात्मक कौशल भी। इनका कहन अतिरिक्त ध्यान आकर्षित करता है। ज्ञान के इन संस्थानों की इन कहानियों को एक जिल्द में प्रकाशित करने से विश्वविद्यालयी जीवन-जगत के विभिन्न आयामों की तरफ विद्वत एवं नागरिक-समाज का ध्यान जाएगा और पर्याप्त विचार-विमर्श होगा, इससे इनकी वास्तविक दशा स्पष्ट दिखेगी और इसमें उचित परिवर्त्तन की दिशा भी साफ होगी।
— डॉ राजीव रंजन गिरि, युवा आलोचक व गांधीवादी चिंतक
पुस्तक में नये चारित्रिक प्रयोग किये गये हैं। अधिकांश पात्र संकेतात्मक या प्रतीकात्मक हैं। सुखेच्छु, अश्लील, तत्त्वदर्शी, उदासीन, भक्षक, विध्वंसक, यायावर, गौरव, व्युत्पत्ति, चारण, रति, माया, ग्राह्या, बेचैन जैसे ढेरों पात्र मनोवृत्तियों के ऊपर रचे गये हैं। मनोवृत्ति के ऊपर पात्र खड़े करने का कारण यह भी हो सकता है कि कहानी के केन्द्र में कोई व्यक्ति नहीं, मन की वृत्ति है। यह प्रयोग नया नहीं है। हिन्दी में भारतेन्दु ने बहुत पहले ‘भारत-दुर्दशा’ नाटक में यह प्रयोग किया था। बाद में इस तरह के बहुत से प्रयोग हिन्दी साहित्य में हुए हैं। हाँ कहानी में इतनी बड़ी संख्या में संकेतात्मक पात्र रखने का यह प्रथम प्रयोग माना जा सकता है।
कहानी-संग्रह की कहानियाँ कहानी और व्यंग्य विधा के बीच रची गयी हैं। कुछ कहानियाँ तो व्यंग्य विधा के ही करीब हैं। उत्तर-आधुनिक संरचना में विधाओं का अतिक्रमण कोई नयी बात नहीं है। कुछ कहानी के शीर्षक उदासीन, ऊर्ध्वमुखी जैसी वृत्तियों के आधार पर रखे गये हैं। इन प्रयोगों का एक महत्त्वपूर्ण कारण यह है कि कहानी में व्यक्ति से ज्यादा वृत्ति को महत्त्व दिया गया है। कुछ लोगों ने पूछा कि ये पात्र कौन हैं? वास्तविक जीवन में ये कौन लोग हैं? इस पर इतना ही कहना है कि इन कहानियों में ‘व्यक्ति प्रभाव’ हो सकते हैं, किन्तु किसी एक व्यक्ति पर ये कहानियाँ आधारित नहीं हैं। अत: किसी व्यक्ति को इन कहानियों में ढूढ़ना या आरोपित करना उचित दृष्टि न होगी।
‘गिरोह का ब्रह्मभोज’ कहानी-संग्रह के केन्द्र में विश्वविद्यालय है। विश्वविद्यालय कभी ज्ञान चेतना के वाहक हुआ करते थे, किन्तु आज जैसे किसी ने उसकी नस ही काट दी हो। इसी पीड़ा के बीच ये कहानियाँ लिखी गयी हैं। इन कहानियों का उद्देश्य हास्य पैदा करना नहीं है, अपितु एक गहरी पीड़ा से पाठकों को गुजारना भी है।
…इसी पुस्तक से…
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