







Yeh Samay (Editorials of Published in Hindi Magazine ‘Parikatha’) / यह समय (लेख, टिप्पणियाँ, मूल्यांकन, संवाद)
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गुज़रती हुई शताब्दी की परछाइयाँ दिखाई पड़ रही हैं। आती हुई शताब्दी की परछाइयाँ दिखाई पड़ रही हैं, आती हुई शताब्दी की आहटें सुनायी पड़ रही हैं। इन आहटों में मनुष्य और समाज की नियति या उसके भविष्य के क्या संकेत हैं, मायने इसी का है।
जिन्होंने इस अवसर को एक जश्न की तरह मनाया है, वे दरअसल उपभोग, निरपेक्षता, आत्मकेन्द्रीयता और स्वार्थ की एक नयी सभ्यता में पगे हुए लोग हैं, भोग और विलास जिनकी अन्तिम चारदीवारी है और जिन्हें हर मौके में जश्न की सम्भावनाएँ ढूँढ़ने की आपाधापी और बेचैनी है। वे बस इतना ही जानते हैं कि कोई कालखंड अगर सैकड़ों या हजारों में पूरा होता है तो वह बस इसी कारण से महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इनके जीवन में सब कुछ दहाइयों से होते हुए सैकड़ों तक, सैकड़ों से होते हुए हजारों तक, हजारों से होते हुए लाखों तक और लाखों से होते हुए करोड़ों तक के प्रवाह में स्थित हैं। इनके ही लिए “मिलेनियम ऑफर”, “मिलेनियम गिफ्ट”, “मिलेनियम पैकेज”, “मिलेनियम बोनांजा”, “मिलेनियम सरप्राइज” जैसी चीजों के मायने हैं। ये बाजार की शब्दावलियाँ हैं और दरअसल इस शताब्दी की शुरुआत ही बाज़ार की शब्दावलियों से हुई है।
यह सभी जान चुके हैं कि बाज़ार के साथ खड़ी होने वाली सभ्यता सिर्फ बाज़ार की सुविधा और बाज़ार की ज़रूरतों को ही केन्द्रीय विमर्श बनाती है। वह चाहती है कि रंगीनियाँ और रोशनियाँ इतनी फैलें कि मनुष्यता के सभी ज़रूरी सवाल स्थगित रहें। सोमालिया की चिन्ता कहीं गुम हो जाये। उड़ीसा की याद सोच से बाहर हो जाये। पिछले एक दशक में बढ़ी असमानता, भूख, बेरोजगारी, अशिक्षा, बदहाली, कुपोषण, बीमारी के सवाल हाशिये पर ही रहेंं। तीसरी दुनिया के देश विश्व बाज़ार के जिस घेरे में फँसे हुए हैं, उससे उबरने के रास्ते की पहचान कोई सवाल नहीं बने। कोई स्वप्न नहीं सुगबुगाये, कोई सक्रियता नहीं आये, कोई जीवन नहीं जगे…।
अंडमान-निकोबार क्षेत्र के जिस द्वीप पर नयी शताब्दी की पहली किरण को उतरना था और जहाँ दुनिया भर के लोग जुट आये थे, उस द्वीप के कबीले के मुखिया की यह प्रतिक्रिया बहुत कुछ कहती है, “ये लोग अपने साथ अपनी सभ्यता भी ले आये हैं। हम भोग और जश्न में डूबे इन लोगों से आतंकित हैं।’ द्वीप के ये सीधे-सादे लोग ही नहीं, दुनिया-भर के सभी संवेदनशील और सजग लोग इस नयी सभ्यता से डरे हुए हैं। यह एक आक्रामक सभ्यता है। दुनिया के इतिहास में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था कि कोई सभ्यता डर पैदा करे। यह सभ्यता डर पैदा कर रही है क्योंकि इसके साथ सम्पन्न और समृद्ध तबके, विज्ञान और टेक्नोलॉजी की सारी उपलब्धियाँ अपने हाथों में अस्त्र की तरह धारण करके खड़े हैं।
संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव कोफी अन्नान का यह बयान कि दुनिया की आधी आबादी नयी शताब्दी में भूखे पेट प्रवेश कर रही है, एक विचलित कर देने वाले सच का बयान है। विश्व बैंक की रिपोर्ट (2000-2001) के अनुसार सबसे अमीर बीस देशों की औसत आय सबसे गरीब बीस देशों की औसत आय से 37 गुना ज़्यादा है। रिपोर्ट के अनुसार, पिछली शताब्दी में विश्व की सम्पदा-सम्पर्क और प्रौद्योगिकी में जैसी उपलब्धि हुई, वैसी उपलब्धि मनुष्य के सम्पूर्ण इतिहास में कभी हासिल नहीं हुई थी, पर इस उपलब्धि का समान रूप से वितरण नहीं हुआ, इससे दुनिया में असमानता की असाधारण स्थिति पैदा हो गयी है। आँकड़े बताते हैं कि अमीर देशों में एक प्रतिशत से कम बच्चे पाँच साल की आयु प्राप्त करने से पहले काल-कवलित होते हैं, जबकि गरीब देशों में बीस प्रतिशत बच्चे पाँच साल का होने से पहले चल बसते हैं। इसी तरह अमीर देशों में पाँच प्रतिशत से भी कम बच्चे कुपोषित हैं, जबकि गरीब देशों में पचास प्रतिशत से भी अधिक बच्चे कुपोषित हैं। रिपोर्ट यह भी बताती है कि लैटिन अमेरिका, दक्षिण एशिया और अफ्रीका में गरीबों की संख्या लगातार बढ़ रही है। यूरोप और मध्य एशिया के जिन देशों ने विश्व-पूँजीवाद और बाजार-चालित अर्थव्यवस्था में अपना स्वर्णिम भविष्य देखा था, वहाँ भी एक डालर से कम पर गुज़ारा करने वाले लोगों की संख्या में 20 गुना वृद्धि हुई है।
बहुत स्पष्ट है कि पिछले एक दशक में जो विश्व-पूँजीवाद और बाज़ार-चालित अर्थव्यवस्था उभरी है, वह विश्व-समाज की दिक्कतें और तकलीफें कम नहीं कर पा रही हैं बल्कि बढ़ा रही हैं। सोवियत रूस और पूर्वी यूरोप के देशों में लोग बदतर स्थितियों में चले गये हैं।
कुछ लोगों को यह खुशफहमी हो सकती है कि हमारा देश भारत दुनिया में एक समृद्ध और चमकीली संस्कृति का शिखर-देश समझा जा रहा है। सच यह है कि भारत केवल समृद्ध देशों और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा दुनिया के सबसे बड़े बाजार के रूप में देखा जा रहा है जहाँ मध्यवर्ग और खरीददार वर्ग के आकार को लगभग 20 करोड़ लोगों काे आँका जा रहा है जो पूरे यूरोप की आबादी के बराबर ठहरता है। आज यह देश बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का सर्वोत्तम लक्ष्य है। यह भी हमारे इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ था कि देश के नागरिक दुनिया के पैमाने पर मात्र खरीददार के रूप में देखे गये हों और उनकी पहचान का कोई भी दूसरा सूत्र बेमानी हो गया हो। पुनरुत्थान, धर्मान्धता, सम्प्रदाय-बोध उसे फासीवाद के उस रास्ते पर धकेल रहे हैं, जो अन्तत: विश्व-बाज़ार के रास्तों को ही निष्कंटक और आसान बनायेगा। वास्तव में यह बाज़ारवाद औरा फासीवाद के सम्मिलन का दौर है।
यह सभी सन्देहों और विवादों से परे एक सच है कि जो व्यवस्था जीवित मनुष्यों को और कुछ नहीं, सिर्फ खरीददार समझती है, वह व्यवस्था कभी भी मानव-सापेक्ष नहीं हो सकती है। वह हमेशा मानव-विरोधी ही रहेगी। विकास का यह मॉडल कि पूँजी लगाने वालों का विकास होने दिया जाये, उनका विकास होगा तो मनुष्य-समुदाय और समाज का भी खुद-ब-खुद विकास होगा, विकास का नहीं, वास्तविक विकास के निषेध का मॉडल है।
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लेख, टिप्पणियाँ
- आहटों से आगे…
- विश्वग्राम का विभ्रम
- पाठकीयता को आँकड़ाें से अलग रखिये
- ‘तमस’ की अर्थवत्ता
- वर्गविभक्त समाज का यथार्थ और ‘पार’
- फिल्म-निर्माण और बिहार
- जलते हुए शहर में फरिश्ता
- ‘टिगरीस की शाहजादी’–एक अविस्मरणीय कहानी
- नये हाथों की लिखावट
- वामपन्थ का भविष्य
- हथेलियों के बीच लौ
- लेखकों-संस्कृतिकर्मियों की सामाजिक भूमिका
लघुपत्रिका-आंदोलन
- मीडिया का परिदृश्य और लघु पत्रिकाएँ
- लघुपत्रिकाएँ : विकास यात्रा
- लघुपत्रिका संवाद
- लघुपत्रिकाओं का अर्थशास्त्र
- साहित्यिक पत्रकारिता में हो रहे परिवर्तन और प्रयोग
- ‘लघुपत्रिका संवाद’ के अन्तर्गत ‘वागर्थ’ के सवाल
- साहित्यिक पत्रिका सम्मेलन
शख्सियतें
- डॉ. नामवर सिंह : एक यात्रा, एक युग
- भीष्म साहनी का कथाकर्म
- ज्ञानरंजन का कथा-कर्म
- डॉ. खगेन्द्र ठाकुर : स्वप्न के लिए जीवन
- साहित्यिक पत्रकारिता : डॉ. शंभुनाथ के कीर्तिमान
- किसी भी भाषा में मुख्यधारा का लेखन मनुष्य-विरोधी नहीं हो सकता…
- समकालीन आलोचना और चिन्तन का परिदृश्य : जानकीप्रसाद शर्मा जी के विशिष्टतापूर्ण अवदान
- ‘मेरे आशावाद का आधार है भूमंडलीय यथार्थवाद…’
- अभय जी : कुछ नहीं मिटनेवाली यादें
संवाद
- ‘उद्भावना’ का कहानी विशेषांक
- बाजार के दबाव के बीच आमजन का राग-विराग
- बाजार के चक्रव्यूह में साहित्य
- बाल-साहित्य बच्चों को संवेदनशील बनाता है
- आलोचक-कथाकार तरसेम गुजराल के सवाल
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