







Smritiyan Jab Hisab Mangengi : Korona Kai Panch Saal aur Hun / स्मृतियाँ जब हिसाब माँगेंगी : कोरोना के पाँच साल और हम
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अनुक्रम
पहली लहर
- राह भटकी ट्रेन, बीमार ‘योद्धा’, पैदल जनता बनाम एक जोड़ी जूता
- स्मृतियाँ जब हिसाब माँगेंगी…
- ‘लोया हो जाने’ का भय और चुनी हुई चुप्पियों का साम्राज्य
- सहृदय बनाने के सारे प्रशिक्षण केन्द्रों पर जबर ताले लटके हुए हैं
- चढ़ी हुई नदी के उतरने का इंतज़ार लेकिन उसके बाद क्या?
- लोकतंत्र के ह्रास में बसी है जिनकी आस
- अगस्त धुआँ है, कोई आसमान थोड़ी है…!
- ‘प्रतिक्रिया की प्रतिक्रिया’ से ‘प्रतिक्रिया ही प्रतिक्रिया’ तक
- महापलायन की ‘चाँदसी’ तक़रीरों के बीच फिर से खाली होते गाँव
- झूठ की कोई इंतिहा नहीं…
- ‘लव जिहाद’ के सरपट घोड़े, दौड़े… दौड़े… दौड़े…
- मानवीय त्रासदी में स्थितप्रज्ञ व संवेदनहीन लोक के शास्त्रीय बीज
उत्तरायण - जो सीढ़ी ऊपर जाती है, वही सीढ़ी नीचे भी आती है!
- ‘ज़रूरत से ज्यादा लोकतंत्र’ के बीच फंसा एक सरकारी ‘स्पेशल पर्पज़ वेहिकल’!
- अब मामला उघाड़ने और मनवाने से नाथ घालने तक आ चुका है!
- सब कुछ याद रखे जाने का साल
- जनता निजात चाहती है, निजात भरोसे से आता है, भरोसा रहा नहीं, भक्ति कब तक काम आएगी?
- हर शाख पे उल्लू बैठे हैं लेकिन बर्बाद गुलिस्ताँ का सबब तो कोई और हैं…
- ‘अपहृत गणराज्य’ की मुक्ति की सम्भावनाओं का उत्तरायण!
- एतबार की हद हो चुकी बंधु! चलिए अब ‘ओन’ किया जाए…
- हिन्दू थक कर सो गया है तब तो ये हाल है, जागेगा तो क्या होगा डाक साब?
- बिजली, पानी और 45 करोड़ की देशभक्ति मुफ़्त, मुफ़्त, मुफ़्त!
- कश्मीर में बैठ के कश्मीर को समझने का अहसास-ए-गुनाह
- जो संस्थागत है वही शरणागत है!
दूसरी लहर - वबा के साथ बहुत कुछ आता है और जाता भी है!
- भंवर में फंसी नाव के सवार
- बीतने से पहले मनुष्यता की तमाम गरिमा से रीतते हुए हम…
- खुलेगा किस तरह मज़मूँ मेरे मक्तूब का या रब…
- ‘नये भारत’ के नागरिकों के लिए क्यों न एक भयदोहन कोष बनाया जाए!
इंतज़ार के दिन - एक दूजे की प्रार्थनाओं और प्रतीक्षाओं में शामिल हम सब…
- जिन्हें कहीं नहीं जाना, उन्हें यहीं पहुँचना था…!
- आप पहले पैदा हो गए हैं, केवल इसलिए आगे किसी और के पैदा होने का अधिकार छीन लेंगे?
- ‘लोक’ सरकारी जवाब पर निबंध रच रहा है, ‘तंत्र’ खतरे के निशान से ऊपर बह रहा है!
- बिगड़ा हुआ है रंग जहान-ए-ख़राब का…
- अपने-अपने तालिबान…
- बिकवाली के मौसम में कव्वाली
- क्या आप प्रबुद्ध वर्ग से हैं? तो जज साहब का कहा मानिए…
- खतरे में पड़ा देश, खतरों के खिलाड़ी और बचे हुए हम!
- बिजली आ गयी है, लेकिन अर्द्ध-सत्य का अंधेरा कायम है!
बुलडोज़र - विस्मृतियों के कृतघ्न कारागार में
- एक सौ चालीस करोड़ की सामूहिक नियति के आर-पार एक ‘थार’
- ‘प्रथम दृष्ट्या’ की कानूनी पुष्टि के इंतज़ार में…
- फिर इस मज़ाक़ को जम्हूरियत का नाम दिया…
- सूचनाओं के प्रवाह में जवाब देने की मजबूरी
- शामतों के दौर में…
- लोकतंत्र का ‘बुलडोज़र’ पर्व
- जेहि ‘विधि’ राखे राम ताहि ‘विधि’…
- क्योंकि आवाज़ भी एक जगह है… 224
बादशाह की घंटी - काया की कराह और निज़ामे मुल्क की आह के मद्देनज़र एक तक़रीर…
- सुबह से शाम, ‘सुरों के नेता’ का हर एक काम देश के नाम…
- मन की बात या एकालाप?
- ‘लोकल’ से ‘बोकल’ को समझने की एक कोशिश
- महबूब की मेहंदी रंग लायी! मितरों… लख लख बधाई!
- मुखिया ‘मुख’ सों चाहिए…
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पुस्तक के बारे में
‘क्या कहें अपनी उस की शब की बात / कहिए होवे जो कुछ भी ढब की बात!’ शायरों को शायरी का शऊर सिखाने वाले उस्तादों के उस्ताद मीर तक़ी मीर ने जब ये बात कही थी उस वक्त ढब की बात की कद्र शायद होती रही होगी। समय के साथ कुछ करने या न करने का ढब जाता रहा पर बोलने की कसक बढ़ती ही गयी। बोलने वाले के बोले को उसका कहा माना गया। बोलने वाला भी इस गफ़लत में रहा कि उसने कुछ तो कहा है। इस चक्कर में अव्वल तो न कहने का शऊर बचा, दूजे बोलने की काबिलियत की भी तौहीन हुई। फ़र्ज़ ये कि आदमी और जानवर की बोली में मुसलसल कोई फ़र्क नहीं रह गया। हुआँ-हुआँ दौर-ए-सदा बन गया।
जिस दौर में हम जी रहे हैं, वो और तरक्की कर गया है। अब लोग हुआँ-हुआँ का भी इंतज़ार नहीं करते। बस दौड़ पड़ते हैं। इस चक्कर में ढब की बात कहने की न किसी को मोहलत है, न सुनने की किसी को फुरसत। इस दौड़मभाग में बात कहीं गायब हो गयी है। बात करने के जरिये खत्म हो गये हैं। बात करने के लिए बैठने की जगहें नहीं बची हैं। बिना बात के हर आदमी घात में है। सबका दिमाग लात में है।
ऐसे में दोस्तों-यारों से देर रात दुनिया-ए-फ़ानी के बारे में होने वाली लम्बी-लम्बी बातों को एक जगह दर्ज करते जाना और एक दिन उसे किताब की शक्ल देने की सोचना अपने आप में सरसामी से कम नहीं है। फिर भी सत्यम भाई ने पूरे साहस के साथ यह काम फाना है और इसे मैंने थोड़ा ढब में ढालने की कोशिश की है। इसमें छपे सारे लेख ‘जनपथ’ नाम की ऑनलाइन पत्रिका में लगातार छपते रहे हैं एक स्तम्भ की शक्ल में, जिसका नाम ही था ‘बात बोलेगी’। और बात बोली भी, बात पहुँची भी। बात का असर भी होता दिखा। बात ने अफ़साने भी गढ़े।
अफ़सोस ये है कि ‘बात बोलेगी’ की भी उम्र जा चुकी है। अब इतनी सी बात भी ऐसा लगता है पुरानी बात हो चली। या फिर हर बात नक्कारखाने की तूती बन के रह जाती है, चाहे आप कैसी ही नक्काशी कर लें। कोई नया ढब खोजना होगा कहने के लिए। लेखक की तलाश जारी है। तब तक इसे इकट्ठा करना जरूरी काम जान पड़ा। यह पुस्तक 2020-21 के दौरान सत्यम के लिखे कुछ जरूरी और प्रासंगिक लेखों का चुनिंदा संकलन है।
नवंबर 2024
— अभिषेक श्रीवास्तव
Additional information
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Weight | 400 g |
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Dimensions | 23 × 16 × 1 in |
Product Options / Binding Type |
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