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Rajendra Mohan Bhatnagar ke Jiwanubhvo par Aadharit – Sangharshgatha / राजेन्द्र मोहन भटनागर के जीवानुभावों पर आधारित – संघर्षगाथा

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Language: Hindi
Pages: 188
Book Dimension: 6″ x 9″
Format: Paper Back & Hardbound

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Author(s) — Gayatri Lalwani
लेखक  — गायत्री ललवानी

SKU: 978-81-19878-99-4-1

Description

मेरा बचपन

मेरी माँ मेरे पिता जी की तीसरी पत्‍नी थीं। उनकी पहली पत्‍नी फिरोजाबाद के एक कुलीन व्यापारी परिवार से थीं। उनकी मृत्यु के बाद पिता जी का विवाह (अतरौली) अलीगढ़ के एक सामान्य परिवार में हुआ था। मेरी माँ सहारनपुर के एक व्यापारी परिवार से थीं। उनकी एक बहुत बड़ी मोटर पाट्‍‍र्स की दुकान दिल्ली के रेलवे स्टेशन के सामने थी। लेकिन धीरे-धीरे मुझे यह स्पष्‍ट नहीं हो सका कि, मेरी माँ अपने घर सहारनपुर क्यों नहीं जातीं? यद्यपि सहारनपुर में दशहरे पर होने वाले मेले के अवसर पर हम लोग प्राय: शाकुम्भरी देवी जाया करते थे। मेरी माँ की तरफ से मैं किसी से नहीं मिल सका। ऐसा क्यों हो रहा था? मेरे मन में यह जानने की बड़ी जिज्ञासा थी। एक बार दिल्ली के रेलवे स्टेशन से एक बहुत बड़ी दुकान मोटर पाट्‍‍र्स की दिखाते हुए मेरी माँ ने कहा–
“यह हमारी दुकान है और तुम्हारे मामा दुकान चला रहे हैं।” दुकान को देखकर मेरे मन में यह विचार आया कि, मैं अपने मामा से मिल सकूँ। मैंने माँ से कहा भी, माँ इस बात को एक बार नहीं, कई बार टालती रहीं। उड़ी-उड़ी खबरों से मुझे कुछ सन्देह हुआ– मैंने अ‍पनी दूसरी माँ के भाई से जो अतरौली के थे और आगरा में हमारे पास ही रहते थे। पूछा– “हमारी माँ मुझे अपने भाइयों से क्यों नहीं मिलातीं? मामा जी गोल-मोल बात करके लगभग इस प्रश्‍न को टाल गये। लेकिन मेरी दूसरी माँ जो मुझे बहुत प्यार करती थीं। अपने पास रखना चाहती थीं और हर प्रकार से मेरा ख्याल रखती थीं। उन्होंने मुझे बताया कि–
“तुम्हारी माँ विधवा थीं और विवाह नहीं हुआ फिर भी वह उनकी पत्‍नी के रूप में रहने लगीं।”
इस सत्य की खोज में मैंने अनेक पारिवारिक लोगों से बात करने का प्रयास किया, लेकिन किसी विश्‍वसनीय नतीजे तक नहीं पहुँच सका। मुझे यह भी लगता था कि, मेरी दूसरी माँ जिसे मैं बड़ी माँ कहता था, हो सकता है कि मेरा मन मेरी माँ से पलटने के लिए उस पर इस प्रकार का इल्जाम लगाया गया हो।
आगरा में हमारी दूसरी माँ और पिता जी मटरूमल की कोठी में रहते थे। मेरी माँ किराये के एक छोटे-से मकान में, जो शीतलप्रसाद की बिल्डिंग कहलाता था। उसमें कई किरायेदार थे। मैं, मेरी माँ, मेरी छोटी बहन और सबसे छोटा भाई वहाँ रहते थे। समय-समय पर आर्थिक कठिनाई भी हुआ करती थी। माँ ट्‍यूशन पढ़ाती थी और कठिनाइयों से घिरकर रात-रात भर हम लोग मटर छीला करते थे। वहीं माँ ने एक छोटा-सा स्कूल डाल लिया था। वह भी उसी किराये के घर में।
धीरे-धीरे मेरे प्रश्‍नों के उठते तूफान से मेरे पिता जी मुझसे बहुत नाराज रहने लगे। मुझे कुछ नहीं सूझता था, क्या करूँ? इंटरमीडिएट मैंने जैसे-तैसे पास किया था। इसके बाद मैं क्या करूँ? ठीक से कुछ नहीं समझ पा रहा था। लगभग कॉलेज के एडमिशन बन्द हो गये थे।
मेरा बचपन अम्बाला में बीता। कक्षा-5 तक वहीं पढ़ाई की। वहाँ से पिता जी आगरा आ गये। आगरा में मिलिट्री सप्लाई का काम हाथ में ले लिया। मेरा छठीं कक्षा में एडमिशन मुफीराम हायर सेकण्डरी स्कूल में हो गया। उसका एक भाग हिविटपार्क (जिसको हम कृष्णदत्त पालीवाल पार्क) कहते हैं यहीं आगरा यूनिवर्सिटी थी। यहीं नौवीं से दसवीं तक की पढ़ाई होती थी।
मुफीराम हाईस्कूल का पहला भाग जो आठवीं कक्षा तक था, वह यमुना किनारे से लगता था। प्राय: बरसात के दिनों में भारी बाढ़ आ जाया करती थी और उसका पानी स्कूल में भी भर जाया करता था। दस-पन्द्रह दिनों की इस कारण छुट्‍टी मिल जाया करती थी।
हम लोग प्राय: यह देखने कि, पानी कितना उतरा या चढ़ा, बेलनगंज से यमुना की ओर धर्मशाला तक आगे बढ़ते और वहाँ बाढ़ के पानी को देखकर हम लोगों को बड़ी तसल्ली मिलती थी। उसके बाद हम लोग क्रिकेट खेलने निकल जाते।
बचपन में हम लोग चोर-सिपाही खेला करते। प्राय: सिपाही मैं बनता था। हम लोगों में हमउम्र लड़कियाँ भी होती थीं। यह खेल प्राय: रात को खेलते थे। एक दूसरा खेल था–“किल-किल काँटे” जिसमें हम छिपकर ऐसी जगह पर लकीरें खींचते थे जहाँ किसी का ध्यान सहज में जा न सके। कभी-कभी बड़े पत्थर पर कोयले या चॉक से लकीरें बना दिया करते थे। दो दल हुआ करते थे। बारी-बारी से एक-एक दल लकीरें बनाता और दूसरा दल उसकी तलाश करता था, मिलने पर उनकी संख्या निकाली जाती थी और दोनों दलों का मुकाबला किया जाता था कि, “किल-किल काँटे” किसके अधिक हैं?
तीसरा खेल था “आँख-मिचौली”। इसमें एक लड़का आँखों पर पट्‍टी बाँधकर खड़ा रहता और सब छुप जाते थे, उनमें से जो पकड़ा जाता था फिर उसकी आँखों पर पट्‍टी बाँधी जाती, जब तक यह नहीं कह दिया जाता कि, “छिप गये-छिप गये” तब तक आँखों पर पट्‍टी बँधी रहती थी।
अगला खेल था “गोला जमाईक-पीछे देखे मार खाईक”, गोलाकार सब बच्चे बैठ जाते और टॉस कर जिसका नाम आता उसे कोड़ा हाथ में थमाया जाता और वह गोले में बैठे खिलाड़ियों की परिक्रमा लगाता और कोड़े को कभी पीछे छिपा देता, वह भागता रहता, भागते-भागते किसी के भी पीछे कोड़ा रख देता। अगर उसे कोड़े का ध्यान नहीं आता तब वह कोड़े से उसको मारता, दूसरा खिलाड़ी मार खाते-खाते भागता, इस बीच कोड़ा मारने वाला उस खाली जगह पर बैठ जाता। इस प्रकार यह खेल चलता।
एक खेल “चक्‍कन पौ” यह तख्ती पर, स्लेट पर या जमीन पर रेखाएँ बनाकर खेला जाता था। इसमें “चीयाँ” (इमली के बीज) उसको आधा कर लिया जाता था। एक तरफ सफेद, एक तरफ काला। वह कौड़ी फेंकने का काम करता था। एक ओर चॉक के टुकड़े दूसरी ओर गेरू के टुकड़े होते थे। फिर उन चीयों को हाथ में लेकर घुमाते हुए जमीन पर छोड़ देते थे। उछाले हुए चार चीयें होते, जिसमें एक चीयाँ सफेद आने पर खेल शुरू (ओपन) होता। इस खेल में चार बच्चे खेल सकते थे, क्योंकि इसके चारों तरफ एक क्रॉस रहता एवं एक क्रॉस बीच में रहता, यहाँ पहुँचने पर हमारी गोट लाल हो जाती।
इस प्रकार हम कभी-कभी शब्द अन्त्याक्षरी का भी मुकाबला किया करते थे, दो दल बना लिये जाते, एक दल किसी शब्द का उच्चारण करता, उसके शब्द के अन्तिम अक्षर से शुरू होने वाले दूसरे शब्द, दूसरा दल बोलता था और भी कई खेल थे, जिनको यदा-कदा खेलते थे। जैसे “गेंदतड़ी” (गेंद एक-दूसरे को मारते थे), गेंद लगने पर वह बच्चा आउट माना जाता था और एक स्थान पर आकर बैठ जाता था।
तीज-त्योहारों पर सजावट की प्रतियोगिता हुआ करती थी, जैसे जन्माष्‍टमी पर हिंडोला (बालकृष्ण जिसमें झूलते थे) चारों तरफ प्राकृतिक दृश्य, नहर, नदी, पहाड़ियाँ, पेड़-पौधे-फूल सभी कुछ होता था। मोहल्ले के तीन जज हुआ करते थे, वह यह तय करते थे कि, पहला, दूसरा और तीसरा किसकी सजावट अच्छी है। उसको पुरस्कार दिया जाता। कुछ पुरस्कार उनको भी दिये जाते, जो चौथे नम्बर पर आते थे।
मैं इन खेलों में कम भाग लेता था। दौड़ने-भागने और कूदने में मेरी अधिक रुचि थी। हमारा दौड़ में भागने का दल प्राय: नित्य सुबह दौड़ने का अभ्यास करता था और 15 अगस्त, 26 जनवरी इत्यादि राष्‍ट्रीय त्योहारों पर होने वाली प्रतियोगिता में भाग लेता था, इनाम पाता था, शब्द अन्ताकक्षरी में मैं ऐसे शब्दों का चयन करता था कि जिनके अन्त का अक्षर ट, ठ, ड, ण इत्यादि हो यानी कि, उस अक्षर से शुरू होने वाले शब्द बहुत कम हों। कुछ शब्द मैं स्वयं बना लिया करता था, किसी को पता ही नहीं चलता था कि, यह शब्द, शब्दकोष का हिस्सा भी है या नहीं।…

…इसी पुस्तक से…

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