







Pushikn ke Desh Mein / पूशकिन के देस में
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रूस के बारे में अभी तक जो संस्मरण या यात्रावृत्तांत हिन्दी में प्रकाशित हुए थे, वे सभी उन लेखकों ने लिखे थे जो आज से बीस-पच्चीस साल पहले यानी सोवियत काल में रूस गए थे। सोवियत संघ के बिखराव के बाद रूस काफी बदल गया है। रूस का जीवन भी अब पहले जैसा नहीं रहा। महेश दर्पण ने हाल ही में रूस की यात्रा करने के बाद, इसी बदले हुए जमाने का बेहद आत्मीय, सच्चा और सहज चित्र प्रस्तुत किया है।
इस किताब के लेखक की नजर सिर्फ ऊपरी दबावों पर नहीं रही, बल्कि रूसी लोगों की मानसिकता में, रूसी जन-मानस में जो बदलाव आ रहे हैं, उन्हें भी महेश दर्पण के जिज्ञासु मन ने बड़ी सूक्ष्मता से पकड़ा है।
कहने को तो ये संस्मरणात्मक यात्रावृत्तांत हैं, लेकिन रूस के बारे में इतनी सारी नई जानकारियां देते हैं कि खुद हम रूसी लोगों ने भी कभी उनकी ओर ध्यान नहीं दिया था। अब इस किताब में पढ़कर आश्चर्य होता है।
— ल्युदमीला ख़ख़लोवा
नई दिल्ली स्थित रशियन सेन्टर में आयोजित एक संगोष्ठी में कथाकार और ‘हंस’ के सम्पादक राजेन्द्र यादव ने कहा : “इस पुस्तक ने मुझे 60 साल पीछे पहुंचा दिया है। च्येख़फ़ को मैंने आगरा में पढ़ना शुरू किया था। कोलकाता की नेशनल लायब्रेरी में भी मैं च्येख़फ़ के पत्र पढ़ा करता था। इस पुस्तक में एक पूरी दुनिया है जो हमें नॉस्टैल्जिक बनाती है। 1960 में मैं भी रूस गया था। कुछ स्मृतियां मेरे पास भी थीं। इसे पढ़कर वे और सघन हुईं। एक कुशल यात्रा लेखक की तरह महेश दर्पण ने बदलते हुए रूस को देखते हुए भी बताया है कि अब भी रूस में बहुत कुछ बाकी है। यह पुस्तक मेरे स्मृति कोश में बनी रहेगी। ऐसे बहुत कम लोग हुए हैं। जैसे काफी पहले एक किताब प्रभाकर द्विवेदी ने लिखी थी- ‘पर उतर कहँ जयिहों’।”
उपन्यासकार चित्रा मुद्गल ने कहा : “मैं महेश जी की कहानियों की प्रशंसिका तो हूं ही, यह पुस्तक मुझे विशेष रूप से पठनीय लगी। रूसी समाज को इस पुस्तक में महेश ने एक कथाकार समाजशास्त्री की तरह देखा है। यह काम इससे पहले बहुत कम हुआ है। रूसी समाज में स्त्री की स्थिति और भूमिका को उन्होंने बखूबी रेखांकित किया है। बाज़ार के दबाव और प्रभाव के बीच टूटते-बिखरते रूसी समाज को लेखके ने खूब चीन्हा है। यह पुस्तक उपन्यास की तरह पढ़ी जा सकती है। बेगड़ जी की तरह महेश ने यह किताब डूबकर लिखी है। रूस के शहरों और गांवों का यहां प्रामाणिक विवरण है।”
कवि विष्णुचंद्र शर्मा की राय थी- “मूलतः परिवार की संवेदना को बचाने वाले कथाकार का रूप यहां भी देखने को मिलता है। उन्होंने बदलते और बदले रूस के साथ सोवियत काल की तुलना भी की है। वह रूसी साहित्य पढ़े हुए हैं। वहां के म्यूज़ियम और जीवन को देखकर उन्होंने ऐसी चित्रमय भाषा में विवरण दिया है कि कोई अच्छा फिल्मकार उस पर फ़िल्म भी बना सकता है। यह पुस्तक बताती है कि बाज़ार के बावजूद अभी सब कुछ नष्ट नहीं हुआ है। आज़ादी मिलने के बाद हिंदी में यह अपने तरह की पहली पुस्तक है जिससे जाने हुए लोग भी बहुत कुछ जान सकते हैं।”
कथाकार रमेश उपाध्याय का कहना था : “महेश दर्पण ने इस पुस्तक के माध्यम से एक नई विधा ही विकसित की है। यह एक यात्रावृत्तांत भर नहीं है। इसे आप एक उपन्यास की तरह भी पढ़ सकते हैं। रचनाकारों के म्यूज़ियमों के साथ ही महेश दर्पण की नज़र सोवियतकाल के बाद के बदलाव की ओर भी गयी है। अनायास ही उस समय से इस समय की तुलना भी होती चली गयी है। श्रमशील और स्नेही साहित्यकर्मी तो महेश हैं ही, उनका जिज्ञासु मन भी इस पुस्तक में सामने आया है।”
कथाकार प्रदीप पंत के विचार में : “इस पुस्तक के माध्यम से पहली बार च्येख़फ़, मायकोवस्की, तलस्तोय, पूशकिन आदि के बारे में और उनके संग्रहालयों के विषय में अत्यंत विस्तार और बारीकी से जानने को मिला। यहां तक कि हिंदी जगत में अपेक्षाकृत कम जाने जाते कथाकार निकअलाय अस्त्रोवस्की के बारे में भी बारीकी से जानकारियां दी हैं।”
— महेश दर्पण
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…इसी पुस्तक से…
तलस्तोय का कुर्ता, छाता, अटैची, छोटी और अनेक बड़ी-बड़ी चीजें संग्रहालय में खास आकर्षण बनी हुई हैं। इस स्टेशन का नाम कज्लोवा सन् 1928 तक रहा। स्टेशन का यह नाम पास ही बहने वाली नदी के नाम पर रखा गया था। बाद में यह स्टेशन यस्नाया पल्याना के नाम से जाना जाने लगा। अजीब बात यह है कि सन् 2001 में इसका नाम बदलकर फिर से कज्लोवा कर दिया गया।
130 साल पहले जैसा था यह स्टेशन बिल्कुल वैसा का वैसा एक चित्र संग्रहालय में मौजूद है। अक्सर ल्येफ़ तलस्तोय यहाँ अपने मेहमानों को रिसीव करते थे। रिसीव करने और विदा करने के कई चित्र संग्रहालय में मौजूद हैं। किसी वक्त इस स्टेशन पर गाड़ी सिर्फ इसलिए रुका करती थी कि तलस्तोय की डाक उन्हें दी जा सके। उनका नौकर स्टेशन आकर डाक ले जाता था।
ल्येफ़ खुद कितने मेहनती थे, इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जिस रास्ते से होकर हम स्टेशन के बाद गाँव के भीतर गए वह खुद उन्होंने ही ठीक किया था। आज यह बात अजीबोगरीब लग सकती है कि दुनिया के इस महान लेखक ने उस जमाने में रेल को बूर्ज्वा जी का प्रतीक माना था। यही नहीं, उन्होंने रेल का विरोध भी किया था। विरोधस्वरूप इसी रेल लाइन पर कभी औरतें रेल के नीचे कट कर मर जाती थीं। इस सवाल को तलस्तोय ने ‘अन्ना करेनिना’ में भी उठाया है। लेकिन सच यह भी है कि पूरा यूरोप तलस्तोय ने रेल पर सफर करने के बाद ही देखा था।
लीना और अनिल मेरे साथ-साथ येलेना की बातें सुन रहे हैं। वह बता रही हैं कि तलस्तोय की मृत्यु के बाद उनका शव इसी स्टेशन पर लाया गया था। उनके नाम पर फिर एक सड़क का नाम भी रखा गया। संग्रहालय में रखी घड़ी उसी स्टेशन से आई है जहाँ लेखक का निधन हुआ था। निधन यानी 7 नवंबर 1910। निधन के दो दिन बाद शव इस स्टेशन पर पहुँचा और फिर घोड़ा गाड़ी पर उनके शव को घर ले जाया गया। सात तारीख को डॉक्टरों का तार पहले ही आ चुका था…कहते हुए येलेना अलेक्सांद्रेवना वाराब्योवा का गला रुंध गया। येलेना ने बताया कि यहाँ गाड़ी सिर्फ दो ही बार नहीं रुकी। 1905 में जब ज़ार के खिलाफ विद्रोह हुआ और दूसरी बार जब ज़ार क्रिमिया आराम करने गया था। तीन जारों के वक्त में यहाँ रेलवे का जाल बिछा था। इतिहास येलेना की जुबान पर धरा है। अब हमें आगे बढ़ना है। येलेना ने मुस्कराते हुए मेरे साथ न सिर्फ तस्वीर खिंचवाई बल्कि उसी वक्त यह भी बता दिया कि आगे सौ रूबल का टिकट लगेगा। इसी रास्ते से कभी ल्येफ़ का शव पहुँचने में पाँच घंटे लगे थे। उनकी अंतिम यात्रा में हजारों लोग शामिल थे। तब यह रास्ता कच्चा था। शायद ल्येफ़ ने यह सोचा भी न हो कि अपने ही बनाए रास्ते पर आखिरी सफर भी करना होगा। हम बस पर सवार हो गए हैं। एक बस के भरने में बिल्कुल वक्त नहीं लगा। जो इसमें जगह नहीं पा सके हैं, उन्हें दूसरी बस से जाना होगा। बस से गाँव पहुँचने में भी वक्त लगता है। हमारे साथ इतिहास, अभिनय और दर्शन के कुछ छात्र भी हैं।
1763 में ल्येफ़ के नाना ने खरीदी थी यह जमीन। अपने जीते जी ल्येफ़ यह बता गए थे कि यहीं पेड़ों के बीच उन्हें दफना दिया जाए। एकदम सादे तरीके से। जब यह जमीन खरीदी गई थी यहाँ सिर्फ दो तालाब थे। लेकिन नाना ने कहा कि दो तालाब और खोदे जाएँ। उन्होंने तीन लकड़ी के घर हटाकर पत्थर का घर बनवाया और अपनी बेटी की शादी तलस्तोय के पिता से कर दी। दहेज में फिर वह दे दिया। ल्येफ़ के पिता के चार लड़के और एक लड़की हुई। जिस घर में उनके बचपन के दिन बीते, वह घर ही नहीं, उसके आगे खड़ा ‘गरीबों का पेड़’ भी नजर आ जाता है जहाँ किसान जमा होकर मदद माँगा करते थे। ढलवां छत वाले इस मकान के बाहर एक लकड़ी की सीढ़ी भी नजर आई। पिता अंत तक पत्नी के साथ रहे। उनका परिवार सचमुच एक सुखी परिवार था। आज भी इसीलिए नवविवाहित युगल यहाँ आकर आशीर्वाद लेते हैं। यहाँ एक वृक्ष युगल है जिसके तने ऊपर जाकर गले मिलते हैं। उस रोज हमने सात-आठ जोड़ों को आशीर्वादस्वरूप वहाँ फोटो खिंचवाते देखा। ये सभी वेडिंग ड्रेस में बग्घियों पर आए थे। लीना ने उन्हें बाकायदा बधाई भी दी।
माँ के बारे में तलस्तोय ने अनेक सूचनाएँ एकत्र कीं। वह माँ की तरह ही सांस्कृतिक रूप से समृद्ध बने। ल्येफ़ की बुआएँ-ओस्तेन साकेन और यूश्कोवा, जिन्होंने उन्हें पाला-पोसा, के चित्र भी एक संदूकची के ढक्कन पर बने नजर आते हैं। लेखक की काव्य रचना ‘प्रिय बुआ जी के नाम’ की स्क्रिप्ट ही नहीं, पहली प्रकाशित रचना ‘बचपन’ भी यहाँ देखी जा सकती है। तलस्तोय न कभी ताश खेलते थे न शिकार करते थे। लेकिन जिस शतरंज पर वह रमे रहते थे, वह यहीं रखी हुई है। 19 बरस की उम्र में उन्होंने कजान यूनिवर्सिटी छोड़कर यहीं आना ठीक समझा। यहाँ संगीत था और उनकी किताबें। यहीं एक अच्छा जमींदार बनने के लिए उन्होंने खेती की शुरुआत की।
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