







Niadari ke Sukkh (Bagheli Kahaniyan) / निअदरी के सुक्ख (बघेली कहानियाँ)
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पुस्तक के बारे में
मनुष्य के जीवन का एक बहुत रम्य कोना होता है– उसका बचपन। हम जीवन की आपाधापी में कितने भी व्यस्त रहें, लेकिन हमारा चित्त किसी न किसी बहाने हमें बचपन की गलियों की सैर अवश्य कराता है। बचपन की गलियों में पहुँचते ही हमें याद आती है दादी-नानी या माँ के द्वारा सुनाये गये उन किस्सों की, जो हमारे अन्तर्मन में कहीं गहरे चिपके होते हैं।
बचपन में सुने गये इन किस्सों-कहानियों पर विचार किया जाय, तो इनमें से कुछ तो ज्ञानवर्द्धन की दृष्टि से काल्पनिक होते हैं, तो कुछ यथार्थ के धरातल पर खड़े दिखते हैं। लोक में व्याप्त किस्सों-कहानियों का यह सिलसिला कब से चल रहा है, इसके बारे में कुछ ठीक-ठीक कह पाना सम्भव नहीं दिखता, लेकिन इतना अवश्य कहा जा सकता है, लोक का किस्सों-कहानियों से अटूट नाता रहा है।
लोक के बीच अनेक सन्दर्भों में कहानियों का अपना विशेष महत्व है। इसे सबसे पहले तो हम इस रूप में ही देख सकते हैं, कि बचपन में सुनी हुई कहानियाँ हमें जीवन भर याद रह जाती हैं। इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि किस्सों-कहानियों के माध्यम से बच्चों में सुसंस्कार के बीज बोये जा सकते हैं। पौराणिक काल में विद्यार्थियों को शिक्षा देने हेतु इन्ही किस्सों-कहानियों का प्रयोग बहु प्रचलित था। इसके अनेक सन्दर्भ हमें मिलते हैं। वर्तमान शिक्षा पद्धति में भी इसकी उपादेयता को नकारा नहीं जा सकता। मेरी समझ में किस्सों-कहानियों का सर्वाधिक महत्व मनुष्य को मनुष्य बनाने के लिए है। कहानी में समय और समाज का जो चित्र और चरित्र उभर कर सामने आता है, वह न केवल युगीन परिस्थितियों का बोध कराता है, हमारे सामने कई सवाल छोड़कर हमें चिंतन की एक दिशा भी देता है।
दुनिया के किसी कोने का कोई समाज हो, किसी भाषा या बोली का क्षेत्र हो, उसकी अपनी सामाजिक व्यवस्था होती है, परम्पराएँ होती हैं तो साथ ही सामाजिक-पारिवारिक और वैयक्तिक अन्तर्संघर्ष भी होते हैं। यही अन्तर्संघर्ष कहानियों के जन्म का हेतु बनते हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि जहाँ भी मनुष्य है, वहाँ उसके सुख-दुख हैं, उसके सपने हैं, वहाँ कहानियाँ हैं।
बघेली बोली के अंचल में साहित्य की विविध विधाओं में सृजन की आहटों और गतिविधियों के बीच कथा-साहित्य के सृजन की परम्परा को बहुत पुराना नहीं कहा जा सकता। इसके बावजूद इस बात पर सन्तोष किया जा सकता है, कि उत्साही और समर्थ रचनाकारों द्वारा बघेली के कथा-साहित्य को गति देने में सार्थक प्रयास किये गये हैं, किये भी जा रहे हैं।
बघेली के कथा-साहित्य को औपन्यासिक स्वरूप देने की शुरूआत डॉ. अभयराज त्रिपाठी के द्वारा हुई, तो सैफुद्दीन सिद्दीकी ‘सैफू’, रश्मि शुक्ला, डॉ. चन्द्रिका प्रसाद ‘चन्द्र’, डॉ. भागवत प्रसाद शर्मा, डॉ. हाकिम सिंह, डॉ. प्रदीप बनर्जी, डॉ. रामसिया शर्मा, देवीशरण सिंह ‘ग्रामीण’ के कहानी-संग्रहों ने बघेली कथा-साहित्य को गति दी है। अद्यावधि बघेली के तीन लघुकथा संग्रहों के अलावा, देश-विदेश की लघुकथाओं का बघेली में अनुवाद भी इस दृष्टि से उल्लेखनीय कहा जायेगा।
उपर्युक्त उल्लेखित नामों के अतिरिक्त अन्य अनेक उत्साही रचनाकार बघेली के कथा-साहित्य को समृद्ध करने हेतु समर्पित भाव से काम कर रहे हैं। इस कड़ी में कई कहानी-संग्रह एवं लघुकथा-संग्रह शीघ्र ही प्रकाश में आयेंगे, ऐसा विश्वास है।
बघेली बोली के ग्राम्य अंचल की अपनी सामाजिक-पारिवारिक संरचना है, तो इस अंचल की भौगोलिक और प्राकृतिक अपनी विशेषताएँ भी हैं। इन्हीं तमाम परिस्थितियों के बीच संचालित होते आम आदमी के जनजीवन के अपने अन्तर्द्वन्द्व भी हैं। विकास के वर्तमान दौर में गाँवों से शहरों की ओर पलायन करते बघेली जनजीवन की अपनी समस्याएँ हैं, तो गाँव की मिट्टी का मोह भी है। विकास की दौड़ में खण्डित होते संयुक्त परिवारों की त्रासदी है, तो एकल परिवारों की अपनी समस्याएँ हैं। यदि हम इनको नजदीक से देखने का साहस और समय निकल सकें, तो यह सब अपने-अपने ढंग से अपनी-अपनी कहानी कहते दिखते हैं।
मेरा ऐसा मानना है, कि कहानी की कथावस्तु खोजने के लिए हमें कहीं बाहर जाने की आवश्यकता नहीं होती। यदि हम समय और समाज के साथ तादात्म्य स्थापित कर सकें, तो अनेक कहानियाँ मूर्त होकर चलचित्र की भाँति हमारे सामने प्रकट होने लगती हैं। ‘निअदरी के सुक्ख’ शीर्षक के इस संग्रह में इसी तरह की सत्रह बघेली कहानियों को सँजोया गया है। इस संग्रह की सत्रह कहानियों में से, यदि कोई कहानी पाठक के अन्तस को छूने में सफल होती है और यह आभास दिला पाती है कि यह कहानी तो अपने आस-पास की है, या अपनी ही है, तो यह मेरे लिए सन्तोषप्रद होगा।
— डॉ. राम गरीब पाण्डेय ‘विकल’
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