







Mahasamar ke Nayak (Rakt Kamal aur Roti) / महासमर के नायक (रक्त कमल और रोटी)
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1857 के महासमर की चिन्गारी का सुलगना 1854 में ही शुरू हो गया था। अंग्रेजों की तत्कालीन सेना में 84 प्रतिशत हिन्दू सैनिक थे। इन भारतीय सैनिकों को बर्मा में तैनात किया जा रहा था, जहाँ उनकी धार्मिक मान्यताओं पर कुठाराघात हो रहा था। 1857 के शुरू में ही इन सैनिकों के बीच खबर फैल गयी थी कि कारतूसों के खोल में गाय और सूअर की चर्बी मिली है, जिसके कारण हिन्दू-मुसलमान सैनिक नाराज हो गये। 19वीं बंगाल नेटिव इनफैंट्री के सैनिकों ने 26 फरवरी 1857 को इन कारतूसों का प्रयोग करने से इन्कार कर दिया था। 29 मार्च 1857 को बंगाल सेना की 34वीं बटालियन की 5वीं कम्पनी के जवान मंगल पाण्डे ने अंग्रेज सार्जेंट पर हमला किया। बाद में उन्हें 8 अप्रैल 1857 को फाँसी दे दी गई। 9 मई 1857 को मेरठ की तीसरी लाइट कैवेलरी के 85 जवान गाय-सूअर लिप्त कारतूसों का प्रयोग करने से इन्कार करते हुए 10 मई को मेरठ में एकत्र हुए और अंग्रेजों के खिलाफ बगावत का एलान किया। इन जवानों ने अंग्रेज अधिकारियों को मारने के बाद नई दिल्ली की ओर कूच किया और नई दिल्ली पर कब्जा कर बहादुर शाह जफर को बादशाह घोषित किया। 28 जून 1857 को लखनऊ पर सिपाहियों का कब्जा हो गया, साथ ही इस समर का पतन भी आरम्भ हो गया। 16 जुलाई 1857 को कानपुर पर अंग्रेजों ने पुन: कब्जा कर लिया। 25 सितम्बर 1857 को लखनऊ अंग्रेजों के कब्जे में आ गया। 19 सितम्बर 1857 को दिल्ली पर भी अंग्रेजों का अधिकार हो गया। बादशाह बहादुर शाह जफर को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया। झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई ने सितम्बर-अक्टूबर 1857 में झाँसी पर अपना अधिकार कर लिया था। मार्च 1858 में अंग्रेजों ने रानी से झाँसी छीन ली। 19 जून 1858 को इस समर का अन्तिम युद्ध ग्वालियर में हुआ जिसमें अंग्रेजों को सफलता प्राप्त हुई। तात्या टोपे ने अक्टूबर 1859 तक अंग्रेजों से सिरौंज में गुरिल्ला युद्ध किया। बाद में तात्या टोपे, नाना साहब पेशवा और रानी लक्ष्मी बाई गुप्त रूप से अज्ञातवास में नेपाल चले गये थे।
इस पुस्तक में ‘पृष्ठभूमि और योजना’ विषय के अन्तर्गत 1857 के प्रमुख कारणों का विस्तार से वर्णन करते हुए यह भी दृष्टिपात किया गया है कि अंग्रेजों के हिमायती भारतीय लेखकों ने किस प्रकार इस स्वतन्त्रता आन्दोलन को बदनाम (दुष्प्रचार) किया। प्रथम स्वतन्त्रता समर का अगर सही-सही स्पष्ट आकलन किसी ने किया है तो वीर सावरकर ने। यहाँ तक कि इसके प्रमुख पात्रों नाना साहब पेशवा, अजीमुल्ला खाँ, तात्या टोपे और रानी लक्ष्मी बाई तक का तथाकथित लेखकों ने चरित्र हनन किया है। एेसे लेखकों की नजर में यह मात्र ‘सिपाही विद्रोह’ था।
1857 का यह महासमर भारत के स्वधर्म और स्वराज्य के लिए लड़ा गया था। अंग्रेजों ने ईसाइयत का प्रचार भी किया जिसका सैनिकों ने विरोध किया था। इस महासमर की योजना भारत में नहीं बल्कि लन्दन में शुरू हुई थी। इनके योजनाकार रंगोबापू जी थे जिन्होंने भारत आकर तात्या टोपे, नाना साहब पेशवा और अजीमुल्ला खाँ को अपनी भावी योजना विस्तार से समझाई। इस युद्ध में तीन लाख से अधिक भारतीयों को अपनी आहुति देनी पड़ी। सबसे बड़ी बात तो यह कि सम्पूर्ण भारत वर्ष में एक साथ इसका श्रीगणेश होना था, किन्तु अतिउत्साहित सैनिकों ने पूर्व में ही इसे शुरू कर दिया। इस समर की तारीख 31 मई 1857 तय की गई थी किन्तु 10 मई को ही मेरठ का विद्रोह हो गया और युद्ध का एलान कर दिया गया। इस स्वातन्त्र्य महासमर की योजना, जो पूरे भारतवर्ष में फैल चुकी थी, की अंग्रेजों को कानोंकान खबर नहीं लग पाई। भारतीय संतों, फकीरों ने इसमें बड़ी भूमिका निभाई; गाँव-गाँव शहर-शहर लोगों के बीच पहुँच कर अलख जगाया; उन्हें देश हित में स्वधर्म और स्वराज्य का पाठ सिखाया। ‘रक्त कमल और रोटी’ को माध्यम बनाते हुए सम्पूर्ण भारत में इसका वितरण एक-दूसरे को भी किया गया। इसका सन्देश पूरब-पश्चिम और उत्तर-दक्षिण तक फैल चुका था। एक माँ के दो पुत्रों की तरह हिन्दू और मुसलमान जुटे थे। इस युद्ध में बहादुर शाह जफर, नाना साहब पेशवा और रंगोजीबापू को घोषणा पत्रों के माध्यम से तरुण, युवा, किसान, व्यापारी, साहूकारों ने इस यज्ञ के लिए अपना सहयोग दिया था। सम्पूर्ण भारतवर्ष के सभी राज्यों और बड़े-छोटे शहरों में जो गतिविधियाँ हुई थीं, उनका सार ‘सिंहावलोकन’ के अन्तर्गत समाहित करने का प्रयास किया गया है। इस पुस्तक में जिन नायकों के नाम शामिल हैं, उनके अलावा भी सैकड़ों अनगिनत नायकों ने इस स्वतन्त्रता समर में अपना बलिदान दिया था। उनके प्रति भी हम कृतज्ञ होकर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। मिर्जा गालिब के ल़फ्जों से भी देश के प्रति सम्वेदना और अंग्रेजों की क्रूरता के प्रति नफरत प्रकट हुई थी, इसलिये गालिब की डायरी के पृष्ठों को यहाँ दिया गया है। मंगल पाण्डे, बहादुर शाह जफर, नाना साहब पेशवा, रंगोबापू जी गुप्ते, अजीमुल्ला खाँ, बाबू कुंअर सिंह, तात्या टोपे, अमरचन्द्र बाठिया, मौलवी लियाकत अली, स्वामी दयानन्द, मौलवी मोहम्मद वाकर, खालसाराज के मोहर सिंह, राव तुलाराम, राजा मर्दन सिंह, मौलवी अहमद शाह, बिसेसर शाह, लखपत सिंह, धनपत सिंह, लाला माधौ सिंह, दरियाब सिंह, मुंशी हरप्रसाद, मेंहन्दी हसन, खुशहाल सिंह चम्पावत, सुरेन्द्र साय, सआदत खान, अमर सिंह, लाला जयदयाल, मेहरबान खाँ, राजा बेंकटरप्पा भागीरथ, वारिस मोहम्मद खाँ, राजा बख्तावर सिंह, लाला मटोलचंद्र, जगत सेठ रामजीदास, अम्बरपुर के रणबाँकुरे ठाकुर रणमत सिंह, ठाकुर सरजूमल चौहान, शंकर शाह, रघुनाथ शाह, नारायण सिंह, शेख मोहम्मद इब्राहिम, ठाकुर लम्पू सिंह, हीरा सिंह जामदार, राजा नाहर सिंह, किशोर सिंह, बोधन दौआ, शाहजादा फीरोज़शाह, महादेव शास्त्री, भीमा नायक, खाज्या नायक, वीर तिलक मांझी, टंट्या भील, सीताराम कंवर और रघुनाथ सिंह भिलाला, धीर सिंह बघेल, मेहरबान सिंह लोधी, राजा बखतबली, सदाशिवराव अमीन, ठाकुर दौलत सिंह और सीहोर का सिपाही बहादुर सरकार आदि को पुस्तक में समाहित किया गया है।
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1857 के समर में घटित क्रान्तिकारी घटनाओं के आधार पर लेखक राजेन्द्र श्रीवास्तव ने लगभग बासठ घटनाओं और उनके नायकों के कार्यों को पुस्तक में सरल और प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया है।
1857 की क्रान्ति भारतीय इतिहास में नींव का पत्थर है। इतिहासकार इसे युगान्तर घटना मानते हैं। इस क्रान्ति ने भारत में ब्रिटिश सत्ता को हिलाकर रख दिया। लार्ड ऐलनबरो ने हॉउस ऑफ लाडर्स में तथा लार्ड डिजरैली ने हाउस ऑफ कॉमन्स में इसे ब्रिटिश साम्राज्य के लिए महान विपत्ति बतलाया। इस क्रान्ति में समाज के सभी वर्गों ने भाग लिया था। लोगों ने जाति, पंथ, भाषा, क्षेत्र की सीमाओं को भुलाकर अपनी आहुति दी थी। क्रान्ति का दमन भी बहुत निर्दयतापूर्वक और कठोरता से किया गया। झाँसी को ब्रिटिश अधिकारियों ने जनविहीन बनाने का आदेश दिया। इसका अभिप्राय यह था कि 5 वर्ष के बच्चे से लेकर 80 वर्ष के सभी पुरुषों का कत्लेआम। अनगिनत लोग मारे गये। कई लोगों को तोप के मुँह से बाँधकर उड़ा दिया गया। तरह-तरह के अन्य दण्ड दिए गये।
1857 की क्रान्ति का परावर्ती प्रभाव भी व्यापक और गहरा रहा। इस क्रान्ति ने अंग्रेजी सत्ता से जुड़े कई मिथक तोड़े और आजादी के लिए सर्वस्व समर्पण करने वाले भारतीयों को प्रेरणा दी। लेखक ने परिश्रमपूर्वक 1857 के संग्राम से जुड़ी कई घटनाओं और उन घटनाओं से जुड़े नायकों के बलिदानों को इतिहास के पृष्ठों से निकाल कर एक पुस्तक के रूप में प्रस्तुत किया है, लेखन का यह कार्य अभिनंदनीय है।
पुस्तक की भाषा सरल है, लेखन आकर्षक और प्रभावी है। मुझे विश्वास है पाठक इस पुस्तक को पसन्द करेंगे।
गोविन्द प्रसाद शर्मा, अध्यक्ष, नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली
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राजेन्द्र श्रीवास्तव
राजेन्द्र श्रीवास्तव पुत्र स्व. ज.ला. श्रीवास्तव का 29 जून, 1956 को ग्वालियर (म.प्र.) में जन्म। प्राथमिक, माध्यमिक और हायर सेकण्डरी शिक्षा ग्वालियर में। माधव महाविद्यालय से बी.कॉम, एम.कॉम. तथा एलएल.बी.। हिन्दी से एम.ए., बुन्देलखंड विश्वविद्यालय, झाँसी से। अशासकीय लक्ष्मीबाई स्मारक उ.मा. विद्यालय में अध्यापक पद पर कार्य। पत्रकारिता की दृष्टि से 40-45 वर्षों से कई दैनिक, साप्ताहिक और मासिक पत्र-पत्रिकाओं में सम्पादन; जिनमें दैनिक नवप्रभात, स्वदेश, आचरण, निरंजन, भास्कर, नवभारत, हिन्दू, नयी दुनिया, देशबन्धु, समय जगत, युग प्रदेश, पीपुल्स समाचार आदि। चेतना पुंज, प्रभादीप, हिन्दूगर्जना (मासिक) पालीवाल कम्युनिकेशन (मासिक) का सम्पादन। विगत अनेक वर्षों से राज्यस्तरीय स्वतन्त्र पत्रकार की अधिमान्यता प्राप्त। सेंट्रल प्रेस क्लब ऑफ इंडिया, नयी दिल्ली तथा भारतीय श्रमजीवी पत्रकार महासंघ की म.प्र. इकाई के सदस्य। श्री अरविन्द आश्रम एवं सोसायटी पुडुचेरी की म.प्र. की कमेटी के सदस्य। रामकृष्ण आश्रम एवं मिशन से 1978 में दीक्षा प्राप्त। चिन्मय मिशन और योग दा सोसायटी से भी जुड़े। सक्षम (दिव्यांगों) संस्था में प्रादेशिक प्रचार प्रमुख एवं राष्ट्रीय गौरक्षा संघ में राष्ट्रीय सहसंगठन मंत्री। यायावर की तरह जीवन व्यतीत। प्रेरक प्रसंग और भारतीय वीरांगनाएँ प्रकाशित पुस्तकें। भारतीय वीरांगनाएं का मराठी, कन्नड़, मलयालम, गुजराती, उर्दू, बंगला, पंजाबी, मणिपुरी, डोगरी, असमी, संस्कृत, अंग्रेजी में अनुवाद। किशोर क्रान्तिकारी, क्रान्ति-गाथा, कहानी आजाद की, सरदार भगत सिंह, खुदीराम बोस, नेताजी सुभाष : क्या सच क्या झूठ, सूर्यनमस्कार, सूर्य ही जीवन, संगीत चिकित्सा, स्वास्थ्य हमारे आस-पास, ऐतिहासिक पाती (पत्र) आदि अप्रकाशित। संपर्क : आर-123, फेज़-II, शताब्दीपुरम, ग्वालियर, म.प्र.–474005 ई.मेल.-rajendrashri vastva1956@gmail.com मो. 9425650429
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हमारे देश की आजादी के महासमर की गाथा देश की आबादी के 65 प्रतिशत युवाओं को प्रेरणा प्रदान करने का काम करेगी। जैसा कि देश की एक पार्टी और एक खानदान, जो स्वयं को ही स्वाधीनता दिलाने की हामी भरता आया है, के अनुयायिओं को आयना दिखाने के लिए ‘महासमर के नायक’ पुस्तक एक दस्तावेज है। कालपात्र में जहाँ नेताजी सुभाष चन्द्र बोस और वीर सावरकर तक के क्रान्तिकारी कार्यों को अनदेखा करने वाली तत्कालीन सरकार द्वारा जो इतिहास लिखाया गया, वह झूठ पर आधारित के सिवाय कुछ नहीं। काश! 1857 के दौरान देश के 12 रियासतों के राजा-महाराजाओं और नवाबों द्वारा अंग्रेजों का साथ न दिया गया होता तो हमारा देश 1857 के दौरान ही स्वतंत्र हो गया होता। देश को 1947 में ‘सत्ता का हस्तांतरण’ किया गया है। आज भी, वास्तव में देखें तो देश ब्रिटिश सरकार के अन्तर्गत ही संचालित है। ‘महासमर के नायक’ पुस्तक के लेखक को मैं साधुवाद देता हूँ, उसने बड़ी मेहनत और प्रयासों से हमारी युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणा स्रोतों को सामने लाने का यह वन्दनीय-अभिनन्दनीय कार्य किया है। शेष मेरी ओर से उन्हें शुभकामनाएँ! ऐसा ही लेखन जारी रहे।
धन्यवाद
मेजर जनरल जी.डी. बख्शी, गुरुग्राम (उ.प्र.)
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