









Insan ka Nasiba (The Fate of A Man) / इनसान का नसीबा – हिंदी उपन्यास
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अनिल जनविजय की भूमिका से…
मिख़अईल शोलअख़फ़ ने ‘इनसान का नसीबा’ नामक यह लघु उपन्यासिका 1956 में लिखी थी। यह कथा एकदम सच्ची घटनाओं पर आधारित है। द्वितीय विश्व-युद्ध ख़त्म हो चुका था। 1946 का साल चल रहा था। एक दिन मिख़अईल शोलअख़फ़ लीमान स्तेपी में मख़ोव्स्की गाँव के पास बनी प्रसिद्ध नीली झील पर पक्षियों का शिकार करने के लिए गये। वहाँ उनकी मुलाक़ात अन्द्रेय सकालोफ़ से हुई, जो एक छोटे से बच्चे का हाथ पकड़कर झील के किनारे-किनारे घूम रहे थे। शोलअख़फ़ उनसे बात करने लगे। बातों-बातों में उन्होंने बच्चे के बारे में पूछा क्योंकि बच्चे का चेहरा-मोहरा अन्द्रेय सकालोफ़ से ज़रा भी मिलता-जुलता नहीं था। अन्द्रेय ने उन्हें बताया कि युद्ध के दौरान वे ड्राईवर थे और इस नन्हें अनाथ बच्चे से उनकी मुलाक़ात यूँ ही राह चलते हो गयी थी। बच्चे को अनाथ देखकर उन्होंने बच्चे को अपने साथ ही रख लिया। इसके बाद अन्द्रेय ने उन दिनों की कथा विस्तार से सुनाई, जो उन्होंने उस अनाथ बच्चे के साथ बिताए थे। शोलअख़फ़ ने उनकी कथा सुनकर कहा कि यह तो एक पूरा उपन्यास है। मैं इस कहानी पर उपन्यास ज़रूर लिखूँगा। ख़ैर, बात आई-गयी हो गयी।
सकालोफ़ और उस बच्चे से शोलअख़फ़ की मुलाक़ात हुए दस साल बीत चुके थे। अचानक एक दिन अमेरिकी लेखक हेमिंग्वे की कहानियाँ पढ़ते हुए उन्हें वह कहानी याद आ गयी, जो दस साल पहले अन्द्रेय सकालोफ़ ने उन्हें सुनाई थी। मिख़अईल शोलअख़फ़ उस कहानी को लिखने के लिए बैठ गये। सात दिन तक वे रात-दिन अपनी मेज़ पर बैठे रहे। आठवें दिन उनकी क़लम से जो रचना बनकर सामने आई, उन्होंने उसका नाम रखा– इनसान का नसीबा। रूसी भाषा में छपते ही यह कहानी पाठकों के बीच बेहद लोकप्रिय हो गयी। शुरू में अँग्रेज़ी, जर्मन, स्पानी, फ़्रांसीसी आदि भाषाओं में इस लघु उपन्यासिका के अनुवाद हुए। इन भाषाओं के पाठकों ने भी शोलअख़फ़ की इस रचना को हाथों-हाथ लिया। सभी भाषाओं में इस किताब के कई-कई संस्करण छप गये।
तब रूस के विदेशी भाषा प्रकाशन गृह ने अरबी, हिन्दी, उर्दू, पंजाबी, बांग्ला, गुजराती, मराठी, तमिल आदि एशियाई भाषाओं में भी इसके अनुवाद करवाए। हिन्दी में इस कहानी का अनुवाद करने की ज़िम्मेदारी हिन्दी के कवि गोपीकृष्ण गोपेश को दी गयी, जो उन दिनों मसक्वा (मास्को) के विदेशी भाषा प्रकाशन गृह में अनुवादक के तौर पर काम कर रहे थे। उन्होंने इस रचना का हिन्दी में अनुवाद किया। विदेशी भाषा प्रकाशन गृह ने हिन्दी में इस किताब के एक ही साल में पाँच-पाँच हज़ार प्रतियों के दो संस्करण छापे। फिर क़रीब दस सालों तक यह किताब नहीं छपी। 1977 में रादुगा प्रकाशन से जब इस किताब का नया संस्करण सामने आया तो उसपर अनुवादक के रूप में मदनलाल मधु का नाम छपा हुआ था।
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पुस्तक के बारे में
मिख़अईल शोलअख़फ़ ने ‘इनसान का नसीबा’ नामक यह लघु उपन्यासिका 1956 में लिखी थी। यह कथा एकदम सच्ची घटनाओं पर आधारित है। द्वितीय विश्व-युद्ध ख़त्म हो चुका था। 1946 का साल चल रहा था। एक दिन मिख़अईल शोलअख़फ़ लीमान स्तेपी में मख़ोव्स्की गाँव के पास बनी प्रसिद्ध नीली झील पर पक्षियों का शिकार करने के लिए गए। वहाँ उनकी मुलाक़ात अन्द्रेय सकालोफ़ से हुई, जो एक छोटे से बच्चे का हाथ पकड़कर झील के किनारे-किनारे घूम रहे थे। शोलअख़फ़ उनसे बात करने लगे। बातों-बातों में उन्होंने बच्चे के बारे में पूछा क्योंकि बच्चे का चेहरा-मोहरा अन्द्रेय सकालोफ़ से ज़रा भी मिलता-जुलता नहीं था। अन्द्रेय ने उन्हें बताया कि युद्ध के दौरान वे ड्राईवर थे और इस नन्हें अनाथ बच्चे से उनकी मुलाक़ात यूँ ही राह चलते हो गई थी। बच्चे को अनाथ देखकर उन्होंने बच्चे को अपने साथ ही रख लिया। इसके बाद अन्द्रेय ने उन दिनों की कथा विस्तार से सुनाई, जो उन्होंने उस अनाथ बच्चे के साथ बिताए थे। शोलअख़फ़ ने उनकी कथा सुनकर कहा कि यह तो एक पूरा उपन्यास है। मैं इस कहानी पर उपन्यास ज़रूर लिखूँगा।
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