







Disum ka Sringar (Collection of Poetry of Tribal Milieu) <br> दिसुम का सिंगार (आदिवासी परिवेश का कविता संग्रह)
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Author(s) — Savitri Baraik
लेखक — सावित्री बड़ाईक
| ANUUGYA BOOKS | HINDI | Total 152 Pages | 5.5 x 8.5 inches |
| Book is available in PAPER BACK & HARD BOUND |
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पुस्तक के बारे में
आदिवासी संस्कृति का अभिन्न अंग है सृजनात्मकता और कलात्मकता। आदिवासी जीवन में इंसान के श्रम का सम्मान है और हुनर का भी। यह श्रमशीलता, रचनात्मकता, उत्पादन-शीलता, सृजनात्मकता उन्हे उर्जावान और अवसाद रहित बनाये रखता है। ‘छोड़ब नहीं हुनर’ कविता झारखण्ड के शिल्पी आदिवासियों चीक बड़ाईक, महली, असुर, लोहरा को समर्पित है। कई बड़े आदिवासी समुदायों के पास सर्वाधिक जमीन है, उनके लिए सदियों से कपड़ों (बरकी, पिछौरी, गमछा, करया) की आपूर्ति करने वाले चीक बड़ाईक और लोहे के हथियार और औजार बनाकर कई बड़े आदिवासी समुदायों को देने वाले असुर, लोहरा की आज क्या स्थिति है? तुरी, महली, बेदिया, आदि आदिवासी किस स्थिति में है? ये सारी बातें मुझे चिंतित करती है, बेचैन करती है। हमारे राज्य के आदिवासियों के अनेक हुनर, कौशल लुप्त होते जा रहे हैं। अत: मैंने ‘करघा और हुनर’, ‘पुरखा तकनीक’, ‘आदि वैज्ञानिक हैं असुर’, ‘माटी और चाक’, ‘छोड़ब नहीं हुनर’ आदि कविताओं के माध्यम से कारीगर, शिल्पी आदिवासियों के सांस्कृतिक अवदानों के प्रति सम्मान प्रदर्शित किया है। आदिवासियों के सांस्कृतिक वैशिष्ट्य की जड़ें सखुआ के लाखों पेड़ों की जड़ों के समान दिसुम में गहराई से धंसकर बाजारवाद, भूमंडलीकरण, उत्तर आधुनिकता की आंधी का सामना कर सकते हैं। कुटीर उद्योग, कला संस्कृति के माध्यम से पूँजीवाद की संस्कृति, बाजारवाद को टक्कर मिल सकती है। कारीगर शिल्पी आदिवासियों के सामने पहचान के साथ आजीविका, जीवन बचाने का भी संकट है। असुरों की लोहा गलाने की आदिम तकनीक मुझे प्रभावित करती रही है। जो शिल्पकार अपने गाँव में सम्मान के पात्र थे, वे अब शहर की सड़कों, चौराहों पर कुदाल और झोड़ी लिए मिल जायेंगे।
– सावित्री बड़ाईक
आदिवासी समाज उपयोगमूलकता और सौंदर्यमूलकता के आधार पर कलाओं को शिल्पकला और ललितकला, इस तरह की श्रेणियों और स्तरीकरण में विभाजित नहीं करता। आदिवासी कलाओं पर लिखी गई कविताओं में आदिवासी कला दृष्टि के इस विशिष्ट पहलू को साफ देखा जा सकता है।
आदिवासी के साथ-साथ एक स्त्री होने के कारण सावित्री बड़ाईक की कविताओं में आदिवासी स्त्री जीवन की विभिन्न छवियाँ भी स्वत: ही आ गई हैं। यह आदिवासी स्त्री घर की चार-दीवारी तक सीमित सामंती उच्च जातियों की स्त्री के जैसी अपनी आजादी के लिए अंदर ही अंदर घुटती-बिलखती स्त्री नहीं है, बल्कि खेतों-जंगलों में श्रम करती और हाट-बाजार करती स्त्री है। खेती-किसानी और जंगल पर होते हमलों के कारण छिनते आजीविका के स्रोतों के कारण आदिवासी स्त्रियों को मजदूरी की तलाश में आज शहरों के चौराहों पर भी देखा जा सकता है। काम की तलाश में शहर जाने को मजबूर ऐसी आदिवासी स्त्रियों की कर्मठता और स्वाभिमान को इन कविताओं में याद किया गया है। नगरों-महानगरों में चंद निवालों के बल पर आदिवासी कामवालियों से जो बेगार करवाई जाती है, उनका जो शोषण होता है, उसके खिलाफ ये कविताएँ पाठकों को झकझारने का काम करती हैं। आदिवासी स्त्री की जिजीविषा और संघर्षशीलता के इस प्रसंग में अपनी माँ की ममता और स्नेह को याद करते हुए कवयित्री लिखती हैं कि आदिवासी माँओं के कठोर श्रम करने वाले हाथ और धरती को नापते उनके पैर उसकी स्मृति में अमिट रूप से अंकित हैं।
– प्रमोद मीणा
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