







Das Digri Channal / दस डिग्री चैनल — अंडमान के बिंब प्रतिबिंब [संस्मरण]
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…इसी पुस्तक से…
बौद्धतीर्थ–सारनाथ वाराणसी का उपक्षेत्र है। अशोक का सिंहस्तंभ सारनाथ में है। स्थान के नाम पर इसे सारनाथ स्तंभ भी कहते हैं। स्थान को सम्मान देना पृथ्वी के प्रति अनुगृहीत होना है। तथागत का प्रथम प्रवचन–धर्मचक्रप्रवर्तन भूमंडल के इसी स्थल पर अवतीर्ण हुआ।
सिंह स्तंभ टूटा हुआ है। यहाँ किये गये उत्खनन में स्तंभ खंडित मिला था। स्तंभ का निचला भाग आज भी अपनी जगह वैसा ही खड़ा है, जैसा 250 वर्ष ईसा पूर्व में खड़ा था, जिस पर दिवस-रात्रि-अयन-वर्ष-ऋतुचक्र का कोई प्रभाव नहीं। स्तंभ के दो-तीन खंड वहीं धराशायी हैं। स्तंभ शीर्ष को छोड़कर शेष स्तंभ कहाँ गया?
यद्यपि अट्टहास करते कालयवन के क्रूर प्रहार ने स्तंभ को ध्वस्त कर दिया था, तथापि भारत की वेदांती दृष्टि ने इन्हीं अवशेषों में अशेष और अखंड स्तंभ को देख लिया। बूँद में सागर, सागर में जगदाधार की शेषशय्या कल्पित करने वाले कल्पचेता ऋषियों के वंशधरों का कोई टोटा है?
स्तंभ शीर्ष भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण के सारनाथ संग्रहालय में प्रतिष्ठापूर्वक सुरक्षित है। पीठ-से-पीठ सटाकर अपनी-अपनी दिशा में मुख किये खड़े चार सिंह। ये सिंह जिस वर्तुलाकार पीठिका पर खड़े हैं, उस पर उत्कीर्ण हैं चार चक्र। हर चक्र के दोनों पाश्र्व में अपनी-अपनी महिमा में मंडित हैं चार मानवेतर प्राणी–अश्व-वृषभ-सिंह-गज। वल्लरियों से अलंकृत यह पीठिका घंटे के आकार वाले पद्म पर आधारित है।
स्तंभ शीर्ष एक ही समूचे बलुए पत्थर को तराशकर शिल्पित किया गया है। यह पत्थर गंगा पार मिरजापुर क्षेत्र से लाया गया था। भारतीय संस्कृति को शिरोधार्य करता है अशोक का यह गौरवशाली स्तंभ।
स्तंभ शीर्ष का तेज-प्रताप दर्शनीय है।
इसी स्तंभ शीर्ष की अनुकृति है–भारतीय जन-तंत्र का राजचिह्न। अनुकृति में तीन सिंह ही दिखाई देते हैं। एक सिंह पृष्ठभूमि में होने से नहीं दिखता। इसी प्रकार पीठिका में उत्कीर्ण चार चक्रों में से केवल सामने वाला चक्र ही दिखाई देता है तथा उड़ान भरने को तैयार अश्व एवं नंदित वृषभ ही प्रत्यक्ष हैं, शेष तीन चक्र और दो पशु–सिंह और गज परोक्ष हो गये हैं। अनुकृति में घंटे की आकृतिवाला पद्म भी स्थान नहीं पा सका है। उसे हटा दिया गया है। उसके स्थान पर अंकित किया गया है–सत्यमेव जयते। यही राष्ट्र का आदर्शवाक्य है। यह एक मंत्र है जो मुंडकोपनिषद् से लिया गया है।
मुझे अभी तक इस उपनिषद् के जो एक-दो संस्करण तथा दो पांडुलिपियाँ देखने को मिली हैं, उन सभी में ‘सत्यमेव जयते’ पाठ है ही नहीं। हर जगह ‘सत्यमेव जयति’ ही पाठ मिलता है। पूरा मंत्र इस प्रकार है :
सत्यमेव जयति नानृतं पन्था विततो देवयानः।
येनाक्रमन्त्यृषयो ह्यात्मकामा यत्र तत्सत्यस्य परमं निधानम्।। –3/1/6
अर्थात् सत्य ही विजयी होता है, असत्य नहीं। वह देवयान नामक मार्ग सत्य से परिपूर्ण है, जिससे होकर पूर्णकाम ऋषि लोग वहाँ गमन करते हैं, जहाँ सत्यस्वरूप परब्रह्म परमात्मा का परम धाम है।
उपनिषद् वैदिक वाङ्मय के ही प्रधान अंग हैं। प्राचीनतर उपनिषदों की संस्कृत वह प्राचीन लौकिक संस्कृत है, जिसके आधार पर ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में पाणिनि ने ‘अष्टाध्यायी’ की रचना की। यह वही कालजयी व्याकरण है, जिसके अनुशासन को अंगीकार करती हुई लौकिक संस्कृत की तरंगिणी अविराम गति से प्रवाहित है।
इस वैयाकरण ने वेदों की संस्कृत को समझने के उद्देश्य से वैदिक व्याकरण बनाने का भी प्रयास किया था। लेकिन वह प्रयास विफल रहा। पाणिनि का वह व्याकरण वैदिक संस्कृत के सामने लाचार-सा नजर आता है। वेदों में जगह-जगह विद्यमान विशिष्ट भाषिक प्रयोग की विलक्षणता देखकर, वैयाकरण सिर थामकर बैठ जाता है और ‘बहुल: छंदसि’ उच्चरित कर अपने इस प्रयास को स्थगित कर देता है। ‘बहुल: छंदसि’ का अर्थ है कि भाषा-प्रयोग में अपवाद-दर-अपवाद देखे गये हैं।
महान् भाषाएँ अपाणिनीय हो जाती हैं। लेकिन पाणिनि की महिमा पर कोई आँच नहीं आती।
मुंडकोपनिषद् का यह मंत्र प्राचीन लौकिक संस्कृत का है, जो पाणिनि के अष्टाध्यायी के नियमों का अक्षरशः पालन करता है। ‘सत्यमेव जयति’ ही व्याकरण-सम्मत प्रयोग है। ‘सत्यमेव जयते’ नियम-विरुद्ध प्रयोग है, जो पाणिनि के इस सर्वमान्य व्याकरण के अनुशासन का उल्लंघन करता है। जयति : जि (जय्) धातु, परस्मैपदी, लट् लकार, प्रथम पुरुष, एकवचन। जयति जयतः जयंति। जैसे भवति भवतः भवंति। ‘जयते’ आत्मनेपदी धातुरूप है, जो व्याकरण के नियम से तभी बनेगा, जब उसमें ‘वि’ अथवा ‘परा’ उपसर्ग लगेगा। विजयते विजयेते विजयंते। पराजयते पराजयेते पराजयंते।
‘जयते’ की उपस्थिति वेदों में नहीं दिखती किंतु उसी धारा के आत्मनेपदी रूप अवश्य मिलते हैं। जैसे ‘जयंताम्’ और ‘जिग्ये’।
‘जयते’ आर्ष प्रयोग लगता है। असामान्य प्रयोग। मुझे भी इंद्र-सूक्त के अंतर्गत ‘विजयंते’ ही मिला, ‘जयंते’ नहीं। मंत्र इस प्रकार है :
यस्मान्न ऋते विजयन्ते जनासो यं युध्यमाना अवसे हवन्ते।
यो विश्वस्य प्रतिमानं बभूव यो अच्युतच्युत्स जनास इन्द्रः।।
–ऋक् सूक्त संग्रह : साहित्यभंडार, मेरठ-2
–जिस इंद्र के बिना मनुष्य विजय को प्राप्त नहीं करते, युद्ध करते हुए सैनिक अपनी रक्षा के लिए जिसका आह्वान करते हैं, जो संपूर्ण जगत् का प्रतिनिधि या रक्षक है, जो क्षयरहित पर्वतों का भी विनाश करने वाला है अथवा अचल को भी बनाने वाला है, हे असुरो! वही इंद्र है।
पाणिनि के व्याकरण का अनुशासन मानने वाले मुंडकोपनिषद् में ही एक स्थल पर ‘जयते’ उपस्थित मिला। उसी मंत्र के आस-पास, जहाँ ‘सत्यमेव जयति’ है। ‘सत्यमेव जयति’ छठा मंत्र है और ‘जयते’ वाला मंत्र दसवाँ है। एक ही उपनिषद् में व्याकरण-सम्मत ‘जयति’ तथा व्याकरण-असम्मत ‘जयते’। मंत्र यों है :
यं यं लोकं मनसा संविभाति विशुद्धसत्त्वः कामयते यांश्च कामान्।
तं तं लोकं जयते तांश्च कामांस्तस्मादात्मज्ञं ह्यर्चयेद् भूतिकामः।।
–विशुद्ध अंत:करण वाला मनुष्य जिस-जिस लोक का मन से चिंतन करता है तथा जिन भोगों की कामना करता है, उस-उस लोक को जीत लेता है और उन इच्छित भोगों को भी जीत लेता है। इसलिए ऐश्वर्य की कामना वाला मनुष्य शरीर से भिन्न आत्मा को जानने वाले महात्मा का सत्कार करे।
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दस डिग्री चैनल
लेखक के निजी अनुभवों पर आधारित अंडमान-निकोबार द्वीप के अद्वितीय रोचक संस्मरण।
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बंगाल की खाड़ी का एक दुर्गम-दुरूह प्रवाह जो 10 अंश उत्तरी अक्षांश पर पूर्व-पश्चिम स्थित है। यह 145 किलोमीटर चौड़ा और 2,400 फुट गहरा है। ऐसा विक्षुब्ध पानी जिसमें छोटे-मोटे जहाज उतरने की हिम्मत नहीं करते और बड़े जहाज रात के अंधेरे में इसे इसलिए पार करते हैं जिससे उनके यात्रियों को पानी के उत्थान-पतन का एहसास कम से कम हो।
यह पानी का वह प्राचीर है जो अंडमान को निकोबार से अलग करता है। अंडमान के द्वीपों में बसी नीग्रोवंशी श्यामवर्णी जनजातियाँ पानी की इसी दीवार के कारण अपनी अलग पहचान रखती हैं और निकोबार के द्वीपों में बसी मंगोलवंशी गौरवर्णी जनजातियाँ अपनी अलग।
अंडमान-निकोबार में संक्षिप्त भारत भी बसता है। लेखक 24 जून, 1964 को पंडित नेहरू के भस्मकलश के साथ पोर्ट ब्लेयर की धरती पर उतरता है और फिर 17 वर्ष तक अंडमान तथा निकोबार प्रशासन के शिक्षा विभाग में शिक्षक की हैसियत से अपनी सेवाएं अर्पित करता है।
एक युग ही बीत गया। आज वह अंडमान की शाप-मूर्च्छाओं और उसकी सूर्य-ज्योतियों को साहित्य की भावभूमि पर प्रतिबिंबित करता है।
एक अंजलि अंडमान के चरण-कमल में।
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दस डिग्री चैनल
एक अत्यंत रोचक, पठनीय एवं ज्ञानवर्द्धक संस्मरणात्मक पुस्तक!
अनुक्रम
- पूर्वसंध्या
- प्रस्थान
- कलकत्ता
- बंगाल की खाड़ी
- फूले हैं कनेर
- सड़क जहाँ से मुड़ती है
- निष्कासन
- लॉर्ड टेनीसन के शोकगीत
- हंसराम वैष्णव
- माउंटबेटेन टॉकीज
- गोलघर
- यक्षप्रश्न
- अनुपस्थित हैं सागरपाखी
- दस डिग्री चैनल
- कार निकोबार
- तीसरा दिन
- ग्रेट निकोबार
- नाम में क्या है
- रम डे
- बोतलें
- पत्र दिवस
- मगरमच्छ की आँखें
- ये आदिम बाशिंदे
- अंडमान : इतिहास के वातायन से
- ऑक्टोपस की बाँहों में
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MeenI Bhasha aur Sahitya / मीणी भाषा और साहित्य – Tribal Literature, आदिवासी विमर्श, आदिवासी साहित्य
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