







Adhai Ghari Bhadra (Bagheli Short Stories) / अढ़ाई घरी भद्रा (बघेली लोकोक्तियों पर लघुकथाएँ)
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पुस्तक के बारे में
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को खड़ी बोली के विकास की चिन्ता थी। इसके लिए उन्होंने सरकारी नौकरी छोड़ी। ‘सरस्वती’ पत्रिका निकाली और हिन्दी की बोलियों के लेखकों को जो प्रायः ब्रज, मैथिली, अवधी में लिख रहे थे, उन्हें खड़ी बोली हिन्दी की प्रत्येक विधा में लिखने के लिए प्रेरित किया। ‘सरस्वती’ में छपना लेखक होने का प्रमाणपत्र हो गया। ‘सरस्वती’ के सामने हर तरह के संकट आये, परन्तु आचार्य द्विवेदी ने सब पर विजय पायी। कविता के भाषा विधान और शैली पर उन्होंने महाप्राण निराला की जुही की कली को कविता ही नहीं माना और उसे फेंक दिया। मुक्त छन्द को उन्होंने कविता ही नहीं माना। अपनी धुन में वे खड़ी बोली को सजाने, सँवारने, व्याकरण सम्मत बनाने में लगे रहे। हमारी बात को अन्यथा या अतिरंजित न मानें, तो इसी लगन के साथ राम गरीब पाण्डेय ‘विकल’ बघेली बोली के उत्थान में लगे हैं। मूलतः वे कवि हैं, परन्तु बघेली की अन्य विधाओं में लिखने का आग्रह बघेली में लिखने वाले हर कवि से करते देखे जाते हैं। विकल ने वर्ष 2023 को ‘बघेली कथा-साहित्य वर्ष’ के रूप में मनाने का संकल्प लिया। उसी क्रम में उक्खान कथाओं को नये सन्दर्भों में लिखा, जिसे नाम दिया– अढ़ाई घरी भद्रा।
विकल के कथा-साहित्य वर्ष का अष्टम् पुष्प बघेली लोकोक्तियों पर है जिनमें लघुकथाएँ हैं। लोकोक्ति को बघेली में उक्खान कहते हैं जो संस्कृत के उपाख्यान का तद्भव रूप है। यह लोक की उक्ति है। हर भाषा भाषी का अपना लोक है। इसी कारण लोकोक्तियों का स्वरूप अपनी बोली के अनुसार बदल जाता है। साहित्य में इन्हें कहावत भी कहते हैं। संसार भर के साहित्य में कहावतें लगभग एक जैसा अर्थ रखती हैं। सभी कहावतों (लोकोक्तियों/उक्खानों) के पीछे कोई न कोई आख्यान होता है। लोक जन तो अक्सर उक्खानों का बार-बार सहारा लेकर समाज में आदर पाते हैं। हमारे एक मित्र थे जो अक्सर ‘मानस’ की चौपाइयों से ही बहुत सार्थक संवाद करते थे। लोकोक्तियाँ पारम्परिक होती हैं। विकल ने इन एक सौ पाँच लोकोक्तियों पर आधुनिक कहानियाँ लिखकर एक नवाचार किया है। हजारों उक्खान उनकी जद में हैं। यदि इन्हें समादर मिला तो वे सभी नये रूप में सज-धज कर बघेली अंचल में आयेंगे। स्थिरता की जड़ता को तोड़ना ही नवोन्मेष है। रचनाकार ने यह काम नहीं किया तो कौन करेगा। गीत कविता से होते हुए छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नकेनवाद, ग़ज़ल, गीतिका, अकविता, आज की कविता का रास्ता तय करते हुए क्षणिका तक पहुँची। यही स्थिति गद्य की सभी विधाओं में भी है। इसे विकास की चिन्तन परम्परा कहेंगे, जो सतत प्रवहमान रहेगी।
भद्रा एक ऐसा मुहूर्त है जिसमें कोई भी काम वर्जित है। घर में आग लगी हो, क्षण भर में घर खाक हो जायेगा। पंडित जी पत्रा खोले बैठे हैं, कि अभी भद्रा है, सुदिन नहीं है कुछ भी करने का। तभी किसी ने कहा होगा कि ‘घरी म घर जरै, अढ़ाई घरी भद्रा’। बोलियाँ खत्म हो रही हैं। बोली में बात करना गँवारूपन है, बैकवर्डनेस है। माँ-बाप-बाबू का स्थान मदर-फादर ने ले लिया है जो अस्पतालों और ईसाई स्कूलों में पाये जाते हैं। अपनी बोली में नये सन्दर्भों के साथ बघेली जन ‘अढ़ाई घरी भद्रा’ को पढ़ेंगे और अकुंठ भाव से इसका स्वागत करेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है।
— डॉ. चन्द्रिका प्रसाद ‘चन्द्र’
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