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Zindgi kee Mahak aur Anya Kahaniyan <br> ज़िन्दगी की महक और अन्य कहानियाँ
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Author(s) — Narendra Nirmal
लेखक — नरेन्द्र निर्मल
| ANUUGYA BOOKS | HINDI | 160 Pages | 2022 | 6 x 9 Inches |
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पुस्तक के बारे में
तरुण ने तिलोत्तमा की तरफ देखा। वह मुस्करा दी। तरुण ने वाइन की बोतल खोली। मैंने आगे से दो ग्लास उसे पकड़ाकर कार में लगी ट्र्रे खोल दी। तिलोत्तमा यह सारा माजरा देख रही थी। जब तरुण ने बोतल खोली तो उसने नाक पर साड़ी का पल्लू रख लिया। उसे लगा, तेज बदबू का झोंका आएगा। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। उसने नाक पर से उँगली हटाकर कहा, ‘क्या यह शराब नहीं है?’
‘है तो सही, पर बहुत उम्दा किस्म की। देश विदेश में हाई सोसायटी में प्रचलित उम्दा ड्रिंक्स। महिलाएँ इसे ही पीती हैं। इसमें बदबू नहीं होती और बहुत ही हल्का आनन्ददायक सुरूर रहता है, एक तरह से यह मूड, फ्रैशनर है।’
‘यदि ऐसा है तो फिर तीन बनाइए। मुझे अच्छा लगा तो और लूँगी वरना एक भी पूरा नहीं पीऊँगी।’
‘मंजूर है।’ तरुण उत्साह से बोला और तीन पेग बना दिए। मैंने अपना पेग आगे ट्र्रे में रख दिया। कार पेड़ के नीचे रोक दी। ‘चीयर्स’, तरुण ने कहा और हम तीनों ने वाइन अपने-अपने मुँह से लगा ली।
मैंने बैक व्यू मिरर से देखा, तिलोत्तमा आराम से धीरे-धीरे वाइन ‘सिप’ कर रही थी। पूरी नज़ाकत के साथ। और, मुस्करा भी रही थी। उसने अपना सिर तरुण के कन्धों पर रख रखा था। मैं बैक व्यू मिरर से देख तुरन्त अपनी नजरें हटा रहा था। तिलोत्तमा ने मुझे ऐसा करते हुए देख लिया। धीमे से बोली, ‘मानस, तुम आराम से बैक व्यू मिरर से हमें देख सकते हो। शरमाने की जरूरत नहीं है, बस एक्सीडेंट मत करना।’
मेरी रगों में खून तेजी से दौड़ने लगा। बस इतनी-सी मुलाकात में उसने मुझे प्रथम नाम और तुम से सम्बोधित करना प्रारम्भ कर दिया। मैंने साइकोलॉजी पढ़ी थी लेकिन यह स्त्री साइकोलॉजी जी रही थी। उदयपुर आने से पहले वाइन की बोतल खत्म हो चुकी थी। औसतन चार पेग हर एक के हलक में उतर चुके थे। हम एयरपोर्ट रोड पार कर रहे थे। मैंने पूछा, ‘सबसे पहले कहाँ चलें।’
…इसी पुस्तक से…
सहेलियाँ और पीहरवाले मेरा भाग्य सराहते। कभी जब मैं अपने-आप से प्रश्न करती हूँ तो यही सवाल पूछती हूँ–क्या मैं इस काबिल थी। इतना सुख और ऐशोआराम मेरे भाग्य में लिखा था। लेकिन मन का एक छोटा-सा कोना फिर भी खाली। प्रतीक्षारत। क्यूँ और किसके लिए, यह बताना अत्यन्त मुश्किल।
जब मैं बारह-तेरह साल की थी तब एक सपना बार-बार आता था। एक व्यक्ति रेलवे स्टेशन से बाहर आकर ताँगे में बैठता है। मैं सामने से पैदल आ रही हूँ। मुझे देखते ही वह ताँगा रुकवा देता है और नीचे उतर कहता है–मैंने तुझे कहाँ-कहाँ नहीं ढूँढ़ा। तू कहीं नहीं मिली। सोचा, शायद तू मर गई होगी। पर तू तो ज़िन्दा है। चल मेरे साथ, अब मुझे छोड़कर कभी मत जाना। मेरा हाथ पकड़कर वह मुझे अपने साथ ले चलता है।
मैं सपने में भी उसका चेहरा गौर से देखना चाहती हूँ पर कभी कोई शक्ल नहीं उभरती। आँखें, चेहरा कुछ भी साफ नहीं दिखाई देता। आवाज सुनाई देती है, एकदम स्पष्ट। पुरुष के शरीर की अनुभूति होती है। सम्पूर्ण तन-मन कहता है, यह वही है जिसकी प्रतीक्षा है। हजारों बार यह सपना मेरी नींद में आता रहा है, अब भी आता है, पर इन्तजार खत्म नहीं हुआ। जिस रात यह सपना आता है वो दिन बहुत खुशनुमा होता है। सारे दिन मन में उमंग भरी रहती है। राजेश को यह सपना सैकड़ों दफा सुना चुकी हूँ। सुबह-सुबह मेरा चेहरा पढ़कर ही कह देता है– रात सपने में तेरे वो आए थे क्या? और मेरे चेहरे की लाली पढ़कर मेरी मनोदशा भाँप जाते हैं। मैंने एक दिन राजेश से कहा : “कहीं मैं किसी मनोरोग की शिकार तो नहीं हूँ? यह मेरे मन की कौन-सी अतृप्त इच्छा है। लाइफ का कौन-सा इम्प्रेशन है? मुझे एक बार साइकोलॉजिस्ट से चेक करवा दीजिए।”
…इसी पुस्तक से…
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