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Vishwa Cinema me Stree <br>विश्व सिनेमा में स्त्री
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Editor(s) — Vijay Sharma
सम्पादिका — विजय शर्मा
| ANUUGYA BOOKS | HINDI| 224 Pages |
| 5.5 x 8.5 Inches |
| Book is available in PAPER BACK & HARD BOUND |
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…पुस्तक के बारे में…
मनमोहन चड्ढ़ा जी का लेख एक उपलब्धि से कम नहीं है। फिल्म इतिहास पर उनकी पकड़ बहुत मजबूत है। उनकी लिखी पुस्तक शिक्षण संस्थानों के पाठ्यक्रम में शामिल होनी चाहिए। उनका ‘सॉफ्ट स्किन : मजबूत औरतें’ लेख फ्ऱाँस्वा त्रूफो की ‘सॉफ्ट स्किन’ के साथ-साथ निर्देशक के विषय में भी भरपूर जानकारी प्रदान करता है। यह दो मजबूत स्त्रियों की कहानी है। फिल्म दिखाती है पुरुष अक्सर पद, पैसा, प्रतिष्ठा जैसी बाहरी बातों में ही उलझा रहता है। जबकि स्त्रियाँ कथनी-करनी की प्रामाणिकता का उदाहरण पेश करती हैं। फिल्म का फोटोग्राफी पक्ष खासा विशिष्ट है। फिल्म विशेषज्ञ विनोद अनुपम ने ‘क्वीन’ फिल्म को बिल्कुल नये कोण से प्रस्तुत किया है। उनके लेख की शुरुआत ही कैमरे की विशेषता से होती है। फिल्म में फोटोग्राफी का विशिष्ट स्थान होता है। यह सिनेमा की भाषा निर्मित करता है। लोकेशन की किस बात या चीज अथवा व्यक्ति/व्यक्तियों पर कैमरा फोकस करता है यह फिल्म की विशेषता बन कर उभरता है। ‘क्वीन’ का निचोड़ विनोद अनुपम इन शब्दों में व्यक्त करते हैं, ‘वास्तव में यदि महिला सशक्तिकरण का अर्थ महिलाओं का सिर्फ ताकत से सशक्त होना नहीं, बल्कि मन से सशक्त होना है तो विकास बहल अपनी ‘क्वीन’ को बगैर किसी दावे के आहिस्ते के साथ एक प्रतीक के रूप में दर्शकों के सामने स्थापित करते हैं।’
‘डॉन्सर इन द डार्क’ की माँ सेलमा का सारा संघर्ष इसलिए है ताकि वह अपने बेटे की आँखों का इलाज करा सके। जबकि वह खुद भी अंधत्व की ओर सरक रही है। फिल्म ‘मोनालिसा स्माइल’ उस दौर की कहानी है, जहाँ एक युवा शिक्षिका जो आर्थिक स्वतन्त्रता और पहचान का महत्व समझ चुकी है, अपनी छात्राओं को भी समझाना चाहती है। कैथरीन के चरित्र में व्यक्तिगत पहचान और निर्णय लेने की स्वतन्त्रता का खासा महत्त्व, अभिनय और विषय-वस्तु इस फिल्म की ताकत है। कैथरीन (जूलिया रॉबट्र्स), कैथरीन का छात्राओं से व्यक्तिगत सम्बन्ध बढ़ाना, उपयोगी सलाह देना, विश्वास जीतना, मूल्यों के प्रति आस्था जगाना, नारी और अस्मिता तथा आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ाना, सब एक रोचक ताना-बाना प्रस्तुत करते हैं। फिल्म दिखाती है कि यह मूल्य अवधारणा और विचारधारा की लड़ाई है, जिसमें यकीनन साहस, सामथ्र्य और स्वाभिमान की जीत होती है।
‘एरिन ब्रोकोविच’ की एरिन, एक सामान्य नागरिक एक विराट पूँजीवादी शक्ति से लोहा लेती है। वह एक साथ कई मोर्चों पर लड़ती और सफल होती है। ‘नो वन किल्ड जेसिका’ बहुत लाउड और नाटकीय होने के बावजूद स्त्री की जिद और लगन से न्याय पाने के लिए संघर्षरत है। फिल्म वास्तविक घटना पर आधारित है और न्यायालय के फैसले के पहले ही फैसला दे देती है। एक साधारण और एक तेज तर्रार, दो लड़कियाँ मिलकर देश और पूरी न्याय व्यवस्था को हिला देती हैं। अमेरिका के जैकसन मिसीसिपी प्रान्त के इर्द-गिर्द बुने गए उपन्यास ‘द हेल्प’ पर आधारित इस फिल्म की कथा मुख्यत: तीन स्त्री पात्रों एबेलीन, मिन्नी और स्कीटर के इर्द-गिर्द घूमती है। अपने जीवन में सत्रह बच्चों की देखरेख कर चुकी एबेलीन शांत, सौम्य, और विश्वास से भरी किरदार है। जैकसन मिसीसिपी में श्वेत नागरिकों के घर के तमाम काम अश्वेत स्त्रियों द्वारा किये जाते थे। अपने बच्चों को दूसरों के भरोसे छोड़ जीविका-उपार्जन के लिये ये दूसरों के बच्चों की परवरिश करती थीं। प्यार, अपनत्व, वात्सल्य से दूसरों के बच्चों को अपना बना लेती थीं।
स्त्री न केवल अपनी सन्तान को प्यार करती है वरन दूसरों के बच्चों का भी लालन-पालन करती है। ‘द हेल्प’ इसका जीता-जागता उदाहरण है। अपने बेटे की मौत के बाद भी अश्वेत एबेलीन न केवल दूसरों के बच्चों की देखभाल करती है वरन उन्हें मनुष्य भी बनाती है। हिन्दी में कहावत है माँ मरे मौसी जीये। इसके दो अर्थ हैं, एक तो जब माँ मरती है तो अक्सर बच्चों की परवरिश के नाम पर विधुर की शादी उसकी साली से करवा दी जाती है। याद कीजिये ‘हम आपके हैं कौन’ (हालाँकि वहाँ अन्त में ऐसा होता नहीं है।), दूसरा माँ के बाद मौसी माँ की तरह ही बच्चों को प्यार करती है। सोराया एम की ऑन्टी जहरा (‘द स्टोनिंग ऑफ सोराया एम’) उसके प्रति ममता रखती है। इसी तरह स्नेहमय (‘द जापानीज वाइफ’) की मौसी (मौशमी चटर्जी) न केवल उसकी देखभाल करती है वरन अपनी मुँह बोली बेटी संध्या (राइमा सेन) को भी विधवा होने पर उसके पुत्र सहित अपनाती है। स्त्रियाँ ही स्त्रियों की ताकत बन सकती हैं।
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