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Samkaleen Vimarshvadi Upanyas / समकालीन विमर्शवादी उपन्यास
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जब भोगवादी व्यवस्था युवा पीढ़ी का आदर्श बन गई हो, व्यक्ति का उद्देश्य येन-केन प्रकारेण स्वहित को साधना रह गया हो, व्यक्ति के पास कितनी मंहगी, गाड़ियाँ, मोबाईल, आलीशान बंगले ही स्टेट्स सिंबल बन गये हो ऐसे में समाज में संवेदनशीलता परहित-परोपकार, सामाजिक सरोकारों की बातें करना कल्पना जैसा प्रतीत हो चला है। आज के विकट दौर में भी कलम के सिपाही मैदान में डटे हैं जो किसी भी बाधा की परवाह किए बगैर अपनी लेखनी से समाज को दिशा दिखाने का काम कर रहे हैं। “साहित्य समाज का दर्पण है” यानी जो कुछ समाज में घटित हो रहा है वह तत्समय के साहित्य में दिखलाई देता है। एक लेखक, साहित्यकार की सफलता भी इसी में है जब पाठक उसकी रचना को पढ़कर उसे समाज के उस वर्ग तक पहुँचाएँ जिसको केन्द्र में रखकर वह लिखी गई है। कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि साहित्य का पाठक लेखक और समाज के मध्य सेतु का कार्य कर सकता है लेकिन यह सेतु बनना इतना आसान भी नहीं है। इस इंटरनेटी दौर में पाठकों की संख्या सिमटती जा रही है। लेखकों/साहित्यकारों के लिए यह चुनौती है कि उनकी रचना को पाठक नहीं मिल पा रहे हैं और फिर पाठक हैं ही कितने जो अपने पाठकीय धर्म का ईमानदारी से निर्वहन कर रहें है। पाठकीय धर्म से अभिप्राय है कि एक साहित्यकार की कृति का अध्ययन कर वह उसके उद्देश्य को समाज के सम्बन्धित वर्ग तक पहुँचाएँ जिसके सन्दर्भ में वह रचना रची गई है। एक सजग पाठकीय धर्म का निर्वहन करते हुए नजर आ रहे हैं डॉ. रमेश चन्द मीना, जो स्वंय एक शिक्षाविद् लेखक तो हैं ही अपितु समाज के विभिन्न वर्गों की ज्वलन्त चिन्ता को केन्द्र रखते हैं। दरअसल किसी भी वर्ग विशेष के विषय में अपनी अलग सोच रखना और उस पर चिन्तन करना एक चिन्तक के लिए आवश्यक हो जाता है। डॉ. मीना इस भूमिका में बखूबी नजर आते हैं। समाज का हरेक वर्ग चाहे वह बालक हो या स्त्री, दलित-आदिवासी, या फिर वृद्ध ही क्यों न हों प्रत्येक के बारे में चिन्तन करते हुए से लगते हैं।
– डॉ. सूरज सिंह नेगी, साहित्यकार एवं राजस्थान प्रशासनिक सेवा अधिकारी
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पुस्तक में सभी विमर्शों पर आये प्रतिनिधि चुने हुए उपन्यासों का विश्लेषण मिलेगा। वृद्ध-विमर्श है या नहीं? जैसे सवालों का जवाब है यह पुस्तक। जबकि अब माना जा चुका है कि स्त्री-विमर्श व दलित-विमर्श अटकने व भटकने लगा है। ऐसे में आदिवासी-विमर्श हो रहा है तो चुपचाप एक और विमर्श जिसकी पदचाप सुनाई दे रही है। इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में इंपले की ‘वृद्धों की दुनिया’ आयी भले ही ठीक से नोटिस नहीं लिया गया वैसे ही जैसे स्त्री-विमर्श का पुरजोर विरोध लेखकों ने किया कि ऐसे कैसे हो सकता है कि स्त्री के बारे में स्त्री ही लिख सकती है? इसी तर्ज पर दलित जीवन पर दलित वृद्ध-जीवन पर वृद्ध ही लिख सकते हैं? यह सवाल उठाया जा सकता है। जवाब में लेखिकाओं ने आधा हिन्दी साहित्य का इतिहास के साथ कई रचनाओं के द्वारा अभियान चलाकर सिद्ध कर दिया कि सदियों से एकांगी लेखन हुआ है जिसमें स्त्री को चारदीवारी में कैद होकर रहना पड़ा है– दासी के रूप में। सती प्रथा, पर्दा-प्रथा, कन्यादान जैसे जंजाल व जाल में जकड़ कर रखा गया है। दलित सुर को शुरुआत में ही उठने से भरसक रोका गया है। उनके लिए शिक्षा के दरवाजे हमेशा से बन्द रखे गये हैं। आदिवासी को जंगल का जंगली जीव बतलाकर दलित जैसा ही व्यवहार किया जाता रहा है। ऐसे में वृद्ध को वृद्धाश्रम बनाकर घर से बाहर का रास्ता दिखाया जा रहा है। पिछली सदी से चला स्त्री-विमर्श अभी जारी है। मनीषा कुलश्रेष्ठ की तीन पुस्तकों के शीर्षक धर्म और स्त्री के आपसी सम्बन्ध पर होना मानीखेज है–1. धर्म की बेड़ियाँ खोल रही है औरत, 2. धर्म के आर-पार औरत, 3. धर्म की बेड़ियाँ खोल रही है औरत खंड-दो। धर्म दलित को समाज में व स्त्री को पुरुष से बराबरी का हक नहीं देता है। धर्म अन्ततः ब्राह्मणों का पोशक होकर दलित व स्त्री दोनों को हाशिये पर रखने का हथियार रहा है। भारतीय समाज में धर्म की भूमिका सकारात्मक कभी नहीं रही है। जबकि धर्म की स्थापना प्राणीमात्र के कल्याण के लिए की गयी है लेकिन नकारात्मक भूमिका के कारण समाज में भेदभाव, आडम्बर, पाखंड, धन प्रदर्शन, दलित व स्त्री-शोषण आदि रूप में देखा जा सकता है।
…इसी पुस्तक से…
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स्त्री विमर्श पर कलम चलाते समय डॉ. मीणा कई प्रश्न एवं सुझाव पाठकों के सामने छोड़ते हैं–‘जीवन में विशेषकर किसी का साथ पाने में समझौता हर कदम पर करना पड़ता है। अगर समझौता करने में दोनों ही समान रूप से कदम बढ़ाते हैं तो विवाह हो या पाश्चात्य सहजीवन सफल हो सकता है’ अर्थात् सुखी जीवन के लिए एक-दूसरे के प्रति सम्मान, त्याग और समर्पण आवश्यक तत्व हैं। प्रस्तुत पुस्तक में ‘कस्बाई सिमोन’, ‘चित्रलेखा’ और ‘सलाम आखिरी’ उपन्यासों के माध्यम से स्त्री विमर्श पर खासी पड़ताल की गई है।
‘तुम्हें बदलना ही होगा’, ‘एक सुबह यह भी’, ’सूअर दान’, ‘धन धरती’ जैसे उपन्यासों की तह में जाकर दलित विमर्श पर सोचने को मजबूर कर देते हैं। आज से पहले जैसा सोचा गया, समाज में दिखाया गया और जैसा किया गया उस पर सोचने को मजबूर होना पड़ता है। मानव सभ्यता के आरम्भ से ही आदिवासी समाज की एक विशेष अहमियत रही है। आज जब अनेकों या यों कहें कि लगभग सभी सभ्य कहलाए जाने वाले समाज स्वयं को प्रकृति, संस्कृति, मौलिकता से कहीं दूर ले जा चुका है वहीं हमारा आदिवासी समाज आज भी अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाए हुए हैं वहाँ प्रकृति का सामिप्य है, रिश्तों में गर्माहट है, उनके अपने कुछ उसूल हैं तो आज भी सभ्यता और संस्कृति को जी रहे हैं। ऐसे में आदिवासी विमर्श भला डॉ. मीणा जी की नजर से कैसे छूटता ‘जंगली फूल’, ‘प्रार्थना में पहाड़’, ‘भूलन कांदा’, जैसे उपन्यासों की पड़ताल सामने रखकर आदिवासियों के जीवन चरित्र, संघर्ष, मूल्यों को सामने लाने का प्रयास किया गया है।
लेखक की नजर से बच्चों की दुनिया भी अछूती नहीं रही है। ‘कोई बात नहीं’ और ‘बच्चे की हथेली पर’ उपन्यासों द्वारा बालमन की परतों को सामने लाते हैं।
डॉ. मीणा परम्परागत विमर्शों के साथ नये व अछूते विमर्शों को उठाते हैं। इस पुस्तक के माध्यम से अछूते ‘वृद्ध विमर्श’ को सामने लाया है। वास्तविकता तो यही है कि आज कोई यह मानने को तैयार ही नहीं है कि इस विषय पर भी कोई चर्चा हो सकती है, यहाँ तक कि परिवार जन, स्वयं वृद्ध हो चुके लोग भी मानने को तैयार नहीं है कि घर की चौखट पर बैठा व्यक्ति अब वृद्ध हो चुका है, उसका अपना एक मनोविज्ञान है, भावनाएँ हैं। परिवारजन की अपेक्षा रहती है कि वह उसी गति से काम करें जैसे पहले करता आया है, बस खाली न बैठे। स्वयं वृद्ध हो चुका व्यक्ति अभी भी अपनी वही बादशाहत कायम रखना चाहता है।
…इसी पुस्तक से…
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रमेश चन्द मीणा
रमेश चन्द मीणा (सह-आचार्य हिन्दी) l शिक्षा : एम.ए. हिन्दी, एम फिल, पीएच डी (जे.एन.यू.) l नौ पुस्तकें प्रकाशित–‘आदिवासी लोक और संस्कृति’, ‘दलित साहित्य एक पड़ताल’, ‘आदिवासी विमर्श’, ‘आदिवासी दस्तक’, ‘चित्रलेखा : एक मूल्यांकन’, ‘उपन्यासों में आदिवासी भारत’, ‘वृद्धों की दुनिया’, ‘आदिवासियत और स्त्री चेतना की कहानियां’, (कहानी संग्रह) ‘विकास से परे अंधेरे से घिरे (संस्मरण)’, ‘साक्षात्कारों में आदिवासी’ (सम्पादन ) l ग्यारह सम्पादित पुस्तकों में शोधालेख– ‘माओवाद, हिंसा और आदिवासी, आज के प्रश्न’, ‘लोकरंग’, ‘वरिमा’, ‘आर्यकल्प’, ‘मधुमती’, ‘न्याय की अवधारणा में दलित’, ‘दलित लेखन में स्त्री चेतना’, ‘आदिवासी साहित्य’, ‘आदिवासी उपन्यास साहित्य’ l सम्प्रति– राजकीय पीजी महाविद्यालय, कोटा विश्वविद्यालय, कोटा राजस्थान, बून्दी राजस्थान– 323001 l पता : 2-ए-16, मोती-कुंज, जवाहर नगर, माटुंदा रोड़, बूंदी, राजस्थान–323001 l email-cmramesh1965@gmail.com l फोन– 9460047347
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