







Red Zone (A novel based on the background of Tribal & Naxalism) / रेड जोन (आदिवासी एवं नकस्लवाद की पृष्ठभूमि पर आधारित उपन्यास)
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Author(s) — Vinod Kumar ‘Ranchi’
लेखक — विनोद कुमार ‘रांची’
| ANUUGYA BOOKS | HINDI | 400 Pages |
| avilable in HARD BOUND & PAPER BACK | 2015 |
| 5.5 x 8.5 Inches |
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Description
Description
पुस्तक के बारे में
‘रेड जोन’ झारखंड की पहचान को आगे बढ़ाता नजर आता है। खास कर, उत्तरी छोटानागपुर की परिधि में केंद्रित यह पुस्तक औद्योगीकरण के साये में हो रहे विस्थापन व निराशा से उपजे आंदोलन को पकड़ती है। दूसरी ओर मीडिया के उभरते द्वंद्व पर भी नजर है। सबसे बड़ी खासियत यह कि झारखंड में, उस दौर में जन्म ले रही तीन विभिन्न राजनीतिक धाराओं व उनके नायकों की बखूबी पड़ताल करती है।
– विनोद सिंह, विधायक (सीपीआई-एमएल)
विनोद कुमार का यह उपन्यास माओवादी दर्शन और आदिवासी जीवन दृष्टि के बीच अंतरनिहित द्वंद्व को उजागर करता है। जब माओवादी नेता किनी दुर्गा से किसी बात पर नाराज हो कर कहते हैं कि तुम केवल क्रान्ति की वाहक हो, आदेश पालन करना तुम्हारा काम है, तो दुर्गा भड़क उठती है और कहती है कि हमारे आदिवासी समाज में ऐसा नहीं होता। हम तो सभी फैसले मिलजुल कर ‘अखड़ाट में लेते हैं।
– शिशिर टुडू, आदिवासी कथाकार
विनोद कुमार का पहला उपन्यास ‘समर शेष है’ जहाँ विराम लेता है, लगभग वहीं से शुरू होता है ‘रेड जोन’। और अलग झारखंड राज्य के गठन तक की गाथा कहता है। इसी दौरान पनपा माओवाद, पीपुल्स वार ग्रुप और पार्टी यूनिटी के साथ अपने विलय के बाद और अधिक विकराल व व्यापक हो जाता है, लेकिन इसकी शुरुआत झारखंड के उसी टुंडी प्रखंड से ही होती है जो कभी महाजनी शोषण के खिलाफ शिबू सोरेन के धनकटनी आंदोलन का गढ़ रहा था।
– केदार प्रसाद मीणा, आदिवासी लेखक
विनोद कुमार के पहले दोनों उपन्यास ‘समर शेष है’ और ‘मिशन झारखंड’ की तरह ‘रेड जोन’ में भी यथार्थ बिना किसी औपचारिकता, लाग-लपेट और बगैर किसी कलात्मक आग्रह के साथ प्रस्तुत हुआ है। यह शायद घटनाओं से सीधे जुड़ा होने के कारण है। लेकिन इसका दूसरा लाभ कथ्य पर वैचारिक पकड़ बनाए रखने में मिलता है।
– जेब अख्तर, चर्चित कथाकार-पत्रकार
‘रेड जोन’ झारखंड के आदिवासियों की संघर्षगाथा की मार्मिक गवाही है। यह उस शासन-सत्ता के खिलाफ एक अभियोग है जो विकास के बहाने करोड़ों-करोड़ जनों को उनकी जमीन से उजाड़ देता है। यह उस राजनीति के खिलाफ एक सवाल भी है जो जन सामान्य के बूते खड़ी होती है, मगर उसी का गला दबाने लगती है।
– धर्मेन्द्र सुशान्त, कवि-पत्रकार
यशस्वी लेखक विनोद कुमार मूलत: एक राजनीतिक उपन्यासकार हैं। ‘समर शेष है’ और ‘मिशन झारखंड’ के बाद ‘रेड जोन’ उनका तीसरा राजनीतिक उपन्यास है। झारखंड में आदिवासियों के संघर्षों का एक अनवरत सिलसिला है। इसके बाद भी वह कौन सा शून्य रह गया, जिसे भरने के लिए माओवादी आ गए? आदिवासियों के बीच माओवादियों को अपना आधार बनाने का मौका कैसे मिला? और क्या माओवादी सचमुच आदिवासियों के हितों की रक्षा कर पाए? इन सवालों के जवाब ‘रेड जोन’ में खोजे जा सकते हैं। लेखक के जवाबों से कोई असहमत हो सकता है, लेकिन उसकी ईमानदारी पर शक नहीं किया जा सकता। आदिवासियों के सवालों में रुचि रखने वाले हर जागरूक व्यक्ति को यह उपन्यास पढऩा चाहिए।
– वीर भारत तलवार, सुप्रसिद्ध आलोचक, पूर्व प्रोफेसर, जे.एन.यू. नई दिल्ली
यह उपन्यास फूलमणि के माध्यम से पूरे पुरुष समाज को चुनौती देता है। फूलमणि कायर प्रेमी के द्वारा गर्भवती होती है। किनी चटर्जी फूलमणि से उस पुरुष का नाम पूछते हैं जो इस कृत्य में सहभागी रहा। समतामूलक समाज के लिए संघर्ष करने वाले किनी वास्तव में शेक्सपीयरकालीन स्त्री सोच से मुक्त नहीं हैं। वे फूलमणि की तुलना जूठे कुल्हर से कर बैठते हैं। वे समझ नहीं पाते कि फूलमणि ने प्रेम किया है, प्यास लगने पर ग्लास से पानी नहीं पिया है।
– रोज केरकेट्टा, प्रख्यात लेखिका और समाजकर्मी
‘रेड जोन’ समकालीन भारतीय इतिहास के एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम को दर्ज करती है। विनोद कुमार ने पत्रकार और आंदोलनकारी के रूप में माओवाद को देखा है। इस कारण वे नीरस ऐकेडमिक भाषा से बच पाये हैं। निष्कर्षों से सहमति-असहमति अपनी जगह है, लेकिन यह रचना एक ऐसे दस्तावेज के रूप में पढ़ी जानी चाहिए जिसमें उपन्यास की शैली में तथ्यों को पिरोने की कोशिश की गई है।
– दिलीप मंडल, पूर्व मैनेजिंग एडिटर, इंडिया टुडे
आंतरिक उपनिवेशवाद का यथार्थ और मुक्ति का स्वप्न; जनसंघर्षों के अंतर्विरोध भी।
— राजीव रंजन गिरि, मानद संपादक, अंतिम जन
लेखक के बारे में
विनोद कुमार
पत्रकार की परिधि लांघ कर अक्सर सोशल एक्टिविस्ट हो जाने वाले विनोद कुमार का समाज और जनसंघर्षों से गहरा लगाव रहा है। जेपी के नेतृत्व में हुए छात्र आंदोलन से आपने विषम भारतीय समाज की सच्चाइयों को समझा और सामाजिक बदलाव के सपने को मूर्त रूप देने के लिए झारखंड के आदिवासी इलाके को अपना ठिकाना बनाया। इसके बाद प्रिंट मीडिया में चले आए और ‘प्रभात खबर’ के साथ जुड़कर जनपक्षीय पत्रकारिता का अर्थ ढूँढऩे लगे। यहाँ भी अखबार प्रबंधन के साथ मुठभेड़ें हुई और अंतत: पत्रकारिता छोड़ दी। संघर्ष के इस दौर में देश की अनेक पत्र-पत्रिकाओं में लिखा। देशज सवालों पर रांची से प्रकाशित ‘देशज स्वर’ मासिक पत्रिका के संपादक भी रहे जिसके आदिवासी-देशज विषयक अंक खासे चर्चे में रहे। बहरहाल, पत्रकारिता में रिपोर्टिंग और मीडिया के दोहरेपन से संघर्ष की लंबी पारी खेलने के बाद अब उपन्यास लिख रहे हैं। झारखंड आंदोलन पर ‘समर शेष है’ और ‘मिशन झारखंड’ उनके दो चर्चित उपन्यास हैं। मौजूदा झारखंड और आदिवासी नेतृत्व व सवालों पर हिंदी में उनकी ये दोनों औपन्यासिक कृतियाँ उल्लेखनीय सृजनात्मक दस्तावेज हैं। इसके अतिरिक्त वे छिटपुट कहानियाँ भी लिखते रहे हैं और बार-बार आदिवासी गाँवों की ओर लौटते रहे हैं। संपर्क–मो. 09162881515 e-mail : vinodkr.ranchi@gmail.com
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