Premchand: Yatharthvadi Pariprekshya
प्रेमचन्द : यथार्थवादी परिप्रेक्ष्य

Premchand: Yatharthvadi Pariprekshya
प्रेमचन्द : यथार्थवादी परिप्रेक्ष्य

225.00

Editor(s) — Dr. Rajkumar Sharma & Dr. Jankiprasad Sharma
सम्पादक  — डॉ. राजकुमार शर्मा एवं डॉ. जानकीप्रसाद शर्मा

| ANUUGYA BOOKS | HINDI | 183 Pages | 2022 | 6 x 9 inches |

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Description

पुस्तक के बारे में

ऐसी स्थिति में इन चिन्तकों-लेखकों का हतोत्साह हो जाना–और एक हद तक खीझ से भर जाना–स्वाभाविक था जो एक लम्बे अर्से से प्रेमचन्द की छवि को धूमिल बनाने, उनकी यथार्थवादी परम्परा को अवरुद्ध सिद्ध करने तथा उनके सामाजिक सरोकारों को अप्रासंगिक ठहराने की हर सम्भव चाल चलते रहे थे। इस वर्ग के लेखकों ने बदलते हुए माहौल को देखकर अलग-अलग रणनीतियाँ अपनायीं। कुछ ने जीवन-सम्बन्धी कुछ नयी जानकारियाें को गढ़कर प्रेमचन्द की प्रतिभा के भंजन की कुत्सित प्रक्रिया को अपनाया। कुछ ने बीते हुए कल का आदर्शवादी बताया तो कुछ ने कलात्मक प्रतिमानों के आधार पर उन्हें दूसरे दर्जें का लेखक घोषित किया। इनमें जो अधिक चालाक थे उन्होंने ‘यथार्थवाद’ पर ही सीधा हमला बोल दिया। ‘यथार्थवाद एक जड़ फ़ार्मूला है’, ‘यथार्थवाद महज़ एक साहित्यिक शैली है’, ‘यथार्थवाद व्यक्ति की अस्मिता का उसके अन्तर्मन की जटिल सच्चाइयों का विरोधी है’, आदि-आदि बातें कहकर इन लेखकों ने यथार्थवाद को नकारने और उसके महत्त्व को कम करने के सभी प्रयत्‍न अपनाये। आधुनिकतावाद से यथार्थवाद को काटने की हर चन्द कोशिश की गयी। इस दौरान आलोचकीय चतुराई का एक और बारीक रूप देखने को मिला। वह था–यथार्थवाद द्वारा (या उसके आवरण में) यथार्थ का विरोध। विरोध की इस नयी रणनीति के तहत प्रेमचन्द की महानता को, उन्हीं के महान आदर्शों को लेकर आगे बढ़ने वाली जनवादी कथा-परम्परा से ‘काउंटरपोज़’ करके अद्वितीय साबित करने का दिलचस्प, पर ख़तरनाक प्रयास किया गया। प्रेमचन्द की महान यथार्थवादी परम्परा को आगे बढ़ाने वाले परवर्ती कथाकारों की तरह पीठ करके सिर्फ़ प्रेमचन्द को देखने और गौरव देने की यह कोशिश यथार्थवाद की समूची परम्परा को प्रेमचन्द में ही सीमित देखने का–उन्हीं से शुरू, उन्हीं पर खत्म साबित करने का–चतुराई पूर्ण आग्रह लेकर सामने आयी।

…इसी किताब से…

जहाँ तक यथार्थ के बारे में प्रेमचन्द जी की उक्त सोच का सम्बन्ध है, उसके बारे में कुछ कहना ज़रूरी है। वस्तुत: जिस दौर में प्रेमचन्द जी की यथार्थ सम्बन्धी इस सोच ने शक्ल ग्रहण की थी, वह दौर स्वत: प्रेमचन्द जी के शब्दों में कुरुचिपूर्ण उपन्यासों का दौर था और प्रेमचन्द जी उससे बेहद विक्षुब्ध थे। यह वह दौर था, जब यथार्थ या यथार्थवाद के सम्बन्ध में चाहे कला-दृष्टि के रूप में चाहे दार्शनिक-दृष्टि के रूप में कोई भी प्रामाणिक मन्तव्य सामने नहीं थे। ज़िन्दगी की विपदा को, समाज की विकृतियाँ तथा गन्दगी को, मनुष्य के कुत्सित तथा घिनौने रूप को प्रस्तुत करने वाली व्यावसायिकता से लिखी गयी कृतियाँ धड़ल्ले से यथार्थवादी कृतियों के रूप में प्रचारित और विज्ञापित की जा रही थीं। यह लगभग मान लिया गया था कि मनुष्य, समाज और ज़िन्दगी के कुत्सित और घिनौने पक्षों को प्रस्तुत करने वाली कला का नाम ही यथार्थवाद है या फिर यथार्थवाद वह है, जिसके अन्तर्गत किसी प्रकार के आदर्श के लिए कोई स्थान नहीं, जिसका एकमात्र सरोकार ज़िन्दगी या समाज को उसी रूप में पेश करने से है जैसा कि वह सतह पर दिखाई देता है। कहने का तात्पर्य यह है कि यथार्थवाद सम्बन्धी किसी प्रामाणिक और सुस्पष्ट दार्शनिक अथवा कलागत दृष्टिकोण के अभाव में तथा उस समय की छिछली, कुरुचिपूर्ण तथा मात्र सतही मन बहलाव का लक्ष्य लेकर होने वाली सर्जना के सन्दर्भ में यथार्थवाद के सम्बन्ध में जिस प्रकार की धारणा का उभरना स्वाभाविक था, साहित्य और कला को संजीदगी से ग्रहण करने वाले और साहित्य को मनुष्य, समाज तथा ज़िन्दगी के अभ्युत्थान का माध्यम मानने वाले, प्रेमचन्द जैसे जिम्मेदार रचनाकार के लिए उक्त प्रकार का अभिमत व्यक्त करना लाजिमी था।

…इसी किताब से…

अनुक्रम

परिप्रेक्ष्य
प्राक्कथन
1. प्रेमचन्द और उनकी सर्जना : सवाल आदर्श और यथार्थ का –शिवकुमार मिश्र
2. प्रेमचन्द : गाँधीवाद से समाजवाद तक –क़मर रईस (उर्दू से अनुवाद : जानकीप्रसाद शर्मा)
3. यथार्थवाद का समकालीन रचना-सन्दर्भ –रमेश उपाध्याय
4. प्रेमचन्द की यथार्थवादी परम्परा और समकालीन कथा-साहित्य –चन्द्रभूषण तिवारी
5. प्रेमचन्द की यथार्थ-दृष्टि और भाषा-संवेदना –राजकुमार शर्मा
6. प्रेमचन्द की रचनाओं पर किसान आन्दोलन का प्रभाव –मुरलीमनोहर प्रसाद सिंह
7. प्रेमचन्द : अवमूल्यन के प्रयास –कर्णसिंह चौहान
8. सामाजिक समस्याएँ और प्रेमचन्द की विचार-दृष्टि –आनन्द प्रकाश
9. प्रेमचन्द की घेरेबन्दी –हरीचरन प्रकाश
10. प्रेमचन्द का विचारधारात्मक संघर्ष और रचनात्मक विकास –जानकीप्रसाद शर्मा
11. प्रेमचन्द की वैचारिकता –प्रदीप सक्सेना
12. गोदान : पुनर्मूल्यांकन –गोपाल कृष्ण कौल
13. प्रेमचन्द तथा राष्ट्रीय एकता का सवाल –डॉ. विशनलाल गौड़
14. हिन्दू समाज के पाखंडों का विरोध करती हुईं कहानियाँ –हरियश राय
15. प्रेमचन्द की यथार्थवादी परम्परा और समकालीन रचना-सन्दर्भ –रमेश उपाध्याय

 

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