







Hindu Hone ka Matlab हिन्दू होने का मतलब
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जुझारू शब्दों की वसीयत
जिस तरह रोगों के हमले होने पर शरीर के भीतर के स्वस्थ रक्तकण रोग के विषाणुओं से भीतर ही भीतर लड़ते हैं, उसी तरह समाज और संस्कृति के संकट काल में लिखे गए ये शब्द भी जुझारू विचारों को लेकर एक बार फिर से यह भीतरी लड़ाई लड़ रहे हैं। यह लड़ाई उस जिद, हिंसा, घृणा और संकीर्णता के विरुद्ध है जो इस देश की उदार और ज्योतिधर्मी शक्तियाँ हमेशा से लड़ती आ रही हैं, सो भी बिल्कुल अहिंसात्मक अस्त्रों और स्नेहसिक्त तटस्थ वैचारिक बहसों के भरोसे।
अन्य धर्मों में विद्रोही विचारकों के लिए भले ही फतवे या भय के प्रावधान हों, भारत में पैदा होकर विकसित होने वाले धर्मों में असहमति रखने वालों या विद्रोही विचारकों के प्रति इस तरह के प्रावधान कभी नहीं रहे। ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि वैदिक, भागवत या सनातन कहे जाने और बौद्ध-जैन धर्मों के बीच कभी अपनी-अपनी मान्यताओं को लेकर झगड़े न हुए हों, पर सत्य का मार्ग तलाश करने और तय करने की प्रक्रिया हमेशा शास्त्रार्थ और विमर्श की रही है। पूर्व-पक्ष को ठीक से जाने और रखे बिना यहाँ शायद ही कोई उत्तर-पक्ष अपना वैचारिक लोकाधार बना पाया हो। ब्राह्मण या वैदिक धर्मानुयायिओं, जैनों और बौद्धों को वेद विरुद्ध मानकर भले ही नास्तिक कहा गया हो, फिर भी इसी भारतीय समाज ने या कहें उसकी एक बड़ी आबादी ने वेद के यज्ञ और हिंसा मार्ग को त्याग कर अहिंसा और करुणा के मार्ग पर चलना अपने लिए कहीं श्रेयस्कर माना। इससे एक बात तो यह सीखी ही जा सकती है कि हमारी परम्परा में आत्मप्रक्षालन और आत्मशोधन की वृत्ति हमेशा रही है। वैदिक और ब्राह्मण धर्म अगर कालान्तर में वैष्णव धर्म में परावर्तित और संशोधित हुए तो अपनी इसी बुनियादी वृत्ति के चलते। मध्यकाल का सारा भक्ति आन्दोलन इसी वैष्णव-धर्म की आन्तरिक प्रेरणाओं से परिचालित है। मध्यकाल का यह भक्ति आन्दोलन और कुछ ही दिनों बाद एक नई जनभाषा के रूप में उदित और विकसित होने वाली रेख्ता या हिन्दुस्तानी या उर्दू, मध्यकालीन भारतीय इतिहास की असाधारण सांस्कृतिक उपलब्धियाँ हैं। वैष्णव धर्म ने हमें अहिंसा और सहिष्णुता का पाठ सिखाया। मनुष्यता और मनुष्य को जाति, वर्ण और धर्म से ऊपर का सत्य माना। यह भी कि पारस्परिक प्रेम के बिना अहिंसा भी असम्भव है। गांधी ने अपनी राजनीति में इसी वैष्णव-मत का समाहार किया। अन्यों की वेदना से द्रवित हो उठने वाले को वैष्णव माना और कहा गया।
शायर इकबाल ने अगर हिन्दुस्तानीयत या भारतीयता की अमरता की बात की है तो इसी आधार पर कि भारतीय समाज बुनियादी तौर पर हमेशा से उदार और लचीला धर्म-समाज रहा है। कौन नहीं जानता जिन चीजों की लोच खत्म हो जाती है उनके टूटने में समय नहीं लगता। ….
– विजय बहादुर सिंह
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