











Pita aur Putra – पिता और पुत्र – Russian Classical Novels, रूसी साहित्य, Raduga Books
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‘पिता और पुत्र’ तुरगेनिफ़ का सबसे प्रसिद्ध और एक सबसे अच्छा उपन्यास है। 1862 के वसन्त में यह उपन्यास मास्को की एक पत्रिका में छपा और जल्द ही अलग पुस्तक के रूप में प्रकाशित हो गया। अगले साल उसका फ़्रांसीसी, इसके बाद जर्मन और फिर अंग्रेज़ी अनुवाद निकल गया। ‘पिता और पुत्र’ के प्रकाशित होने पर रूसी समाज में बड़ी हलचल मची। पत्र-पत्रिकाओं में इसके पक्ष-विपक्ष में बड़े-बड़े लेख छपे, समकालीनों की बातचीतों और पत्रों में इस पर बहसें हुईं। कहना चाहिए कि उस समय के सभी प्रमुख रूसी लोगों ने तुरगेनिफ़ के इस उपन्यास के छपने पर अपनी प्रतिक्रिया प्रकट की। उसका सार अत्यंत समसामयिक था। बात यह है कि सवाल सिर्फ़ दो पीढ़ियों के टकराव का ही नहीं था। वह समय बड़ा जटिल और तनावपूर्ण था। कुछ ही समय पहले ज़ार निकोलाई प्रथम का लगभग तीस साल तक चलने वाला भयानक शासनकाल समाप्त हुआ था। सत्तारूढ़ होते ही उसने ‘दिसम्बरवादियों’ के गुप्त दल (जिसमें मुख्यतः रूसी सेना के कुलीन अफ़सर शामिल थे) के विद्रोह को कठोरता से कुचल दिया था। विद्रोह के पाँच नेताओं को फाँसी दे दी गयी थी, सैकड़ों को साइबेरिया में निर्वासित किया गया था, अफ़सरों से मामूली फ़ौजी बना दिया गया था, विद्रोह में भाग लेनेवाले सैकड़ों सैनिकों को कोड़े मार-मारकर मौत के घाट उतारा गया और दूर की छावनियों में भेज दिया गया। पहले रूसी क्रान्तिकारियों के विद्रोह को कुचल देने के बाद ज़ार निकोलाई प्रथम ने देश में हर सामाजिक हलचल का गला घोंट देने की कोशिश की। ‘पेत्राशेव’ वादी प्रगतिशील युवाजन मण्डल के सभी सदस्यों को गिरफ़्तार कर लिया गया।……….
….
… बज़ारोव का भाग्य दुखद रहा। लेखक उसे ये कटु शब्द कहने को विवश करते हैं– “रूस को मेरी ज़रूरत है… नहीं, प्रत्यक्षतः नहीं।” सबसे प्रमुख बात तो यह है कि उपन्यास में हम बज़ारोव को दुखद रूप से एकाकी पाते हैं। हमें उसके सच्चे हमख़्याल और दोस्त दिखाई नहीं देते, यद्यपि उसके अनेक काल्पनिक चेले और अनुयायी तो हैं। प्यार के मामले में भी वह एकाकी है। अन्ना सेर्गेयेवना ओदिनत्सोवा के प्रति अपनी कटु भावना की अभिव्यक्ति में बज़ारोव एक उत्कट, शक्तिशाली और गहन व्यक्ति के रूप में सामने आता है। ओदिनत्सोवा समझदार, विलक्षण, दिलचस्प और आकर्षक है। ओदिनत्सोवा को भी बज़ारोव अच्छा लगता है। किन्तु चैन भरे, सामन्ती ढंग के नपे-तुले और आराम के जीवन की आदत और आत्मिक जीवन में जोखिम उठाने की क्षमता के अभाव के कारण बज़ारोव के प्रति पैदा हुई भावना उसके भीतर ही दबकर रह जाती है।
तुरगेनिफ़ मानते थे कि बज़ारोव का ‘नाश अनिवार्य’ है, क्योंकि अभी उसका ज़माना नहीं आया और वह केवल ‘भविष्य की दहलीज़’ पर खड़ा है। इसीलिए बज़ारोव नष्ट हो जाता है।
इसके साथ ही बज़ारोव की बीमारी और मौत का चित्रण अपने नायक के प्रति लेखक के रवैये को सम्भवत: बहुत स्पष्टता से व्यक्त कर देता है। लेखक उसके साहस, आत्मिक दृढ़ता के प्रति नतमस्तक होते हैं और उनका हृदय ऐसे अद्भुत व्यक्ति की मृत्यु से पैदा होनेवाली शोक-भावनाओं से रंजित है। मौत का सामना होने पर बज़ारोव के सर्वश्रेष्ठ लक्षण–बाहरी कठोरता के नीचे छिपा हुआ माता-पिता के प्रति स्नेह, ओदिनत्सोवा के प्रति काव्यमय प्रेम, जीवन, श्रम, साहसिक कार्य और सामाजिक काम की तीव्र इच्छा, दृढ़ संकल्प और अनिवार्य मृत्यु के ख़तरे का मुँह चिढ़ाती दिलेरी–उभरकर सामने आ जाते हैं। “हे भगवान! कैसी ग़ज़ब की रचना है ‘पिता और पुत्र!’ ”– अन्तोन चेख़ोव ने लिखा है। “चीख़ उठने को मन होता है! बज़ारोव की बीमारी का ऐसा ज़ोरदार वर्णन किया गया है कि मैंने अपने को दुर्बल अनुभव किया और ऐसा लगा मानो मुझे उससे छूत लग गयी हो। और बज़ारोव का अन्त? और बूढ़े माता-पिता?.. न जाने यह सब कैसे किया गया है। बड़े ही प्रतिभापूर्ण ढंग से हुआ है।”
बज़ारोव के प्रति उस समय के अग्रणी युवाजन का लेखक से भिन्न रवैया था। वे मानते थे कि तुरगेनिफ़ का नायक ‘युवा पीढ़ी का सच्चा प्रतिनिधि’ है, कि उसमें इस पीढ़ी की “अधिकतर लाक्षणिक आकांक्षायें, संवेदनायें और विरोध-भाव संचित हो गये हैं।” पिछली शताब्दी के 7वें दशक के युवाजन के लिए बज़ारोव एक अनुकरणीय उदाहरण बन गया। युवा उग्रवादी समालोचक द्मीत्री पिसारेव, जिन्होंने उस ज़माने के रूसी युवाजन पर बहुत प्रभाव डाला, बज़ारोव के पक्षपोषक बन गये।
पिसारेव ने लेखक की तुलना में कुछ भिन्न ढंग से बज़ारोव की मृत्यु की व्याख्या की है–“यह दिख़ाने की सम्भावना न होने के कारण कि बज़ारोव कैसे जीता और कार्य करता है, तुरगेनिफ़ ने हमें यह दिखा दिया कि वह कैसे मरता है।” समालोचक को दृढ़ विश्वास है कि लेखक ने बज़ारोव की मृत्यु का ऐसे वर्णन किया है कि इस सन्देह की गुंजाइश नहीं रह जाती–ज़रूरत होने पर वह अपने ध्येय के लिए प्राण न्योछावर कर देता। “बज़ारोव की तरह मरना,” पिसारेव ने ठीक ही लिखा है, “कोई महान कार्य करने के समान ही है…”
सौ से अधिक साल पहले लिखा गया तुरगेनिफ़ का यह उपन्यास पहले की तरह ही सजीव रचना बना हुआ है। पाठकों की कई पीढ़ियाँ इस पर चिन्तन कर चुकी हैं। बेचैन और व्यथित तथा विद्रोही ‘निहिलिस्ट’ का बिम्ब अपने समय के अग्रणी लोगों की वैचारिक खोज और पिछली शताब्दी में रूस के जीवन को समझने में सहायक होता है।
–अ. तोलस्त्याकोव
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पुस्तक के बारे में
‘पिता और पुत्र’ इवान तुरगेनिफ़ की सबसे ज़्यादा लोकप्रिय और सर्वाधिक प्रसिद्ध रचना है। इस उपन्यास को लिखने में तुरगेनिफ़ ने सबसे कम समय लगाया था। इसकी पहली पाण्डुलिपि लिखे जाने से इसके प्रथम प्रकाशन में सिर्फ़ दो वर्ष का समय लगा था।
सन 1860 के अगस्त के महीने में जब तुरगेनिफ़ इंगलैण्ड के व्हाईट द्वीप पर छुट्टियाँ बिता रहे थे, तो एक स्थानीय डॉक्टर से मुलाक़ात करते हुए उनके मन में सबसे पहले इस उपन्यास को लिखने का विचार पैदा हुआ। उस दिन मौसम अचानक बेहद ख़राब हो गया। तुरगेनिफ़ को वह रात रेलवे के एक छोटे से स्टेशन पर गुज़ारनी पड़ी। वहीं उनकी मुलाक़ात उस डॉक्टर से हुई थी। दोनों सारी रात बातें करते रहे। यह डॉक्टर ही बाद में ‘पिता और पुत्र’ उपन्यास के मुख्य पात्र बज़ारफ़ के रूप में उभरकर सामने आया। उसी साल हेमन्त में तुरगेनिफ़ पेरिस लौट आए थे और लौटते ही उन्होंने उपन्यास के प्रारम्भिक अध्याय लिख डाले थे। छह महीने के अन्दर-अन्दर उन्होंने आधा उपन्यास लिख दिया था। बाक़ी आधा उपन्यास उन्होंने 1861 की गर्मियों में रूस वापिस लौट आने के बाद लिखा।
इसके बाद क़रीब नौ महीने तक तुरगेनिफ़ ने यह उपन्यास अपने सभी दोस्तों को पढ़वाया। दोस्तों के सुझावों को ध्यान में रखकर इस उपन्यास की पाण्डुलिपि में कुछ सुधार करके उन्होंने यह पाण्डुलिपि “रूसी समाचार” नामक एक पत्रिका के सम्पादक को सौंप दी। मार्च, 1862 में यह उपन्यास प्रकाशित हो गया और पाठकों के बीच पहुँच गया। अब प्रकाशित हुए नए रूप में बज़ारफ़ की छवि बहुत-कुछ बदल गई थी। वो पहले की तरह पाठक के मन को बाँधता नहीं था, बल्कि वो कुछ-कुछ पाठकों के प्रतिकूल हो गया था।
अपनी इस भूमिका में उपन्यास की कथा और उसके पात्रों के बारे में आप लोगों को मैं कुछ नहीं बताना चाहता। इस तरह की जानकारी देकर उपन्यास को पढ़ने का मज़ा मैं पाठक से नहीं छीनना चाहता, लेकिन उपन्यास में पात्रों के मुँह से कहलवाई गई कुछ बातों की ओर आपका ध्यान दिला चाहता हूँ। जैसे येफ़गेनी बज़ारफ़ कहता है – एक रूसी आदमी सिर्फ़ इसीलिए अच्छा आदमी होता है क्योंकि अपने बारे में उसकी ख़ुद की राय बहुत ख़राब होती है। एक और जगह वह कहता है – प्रकृति कोई मन्दिर नहीं है, कि उसकी पूजा-अर्चना की जाए। प्रकृति तो एक ऐसी वर्कशॉप है, जहाँ मनुष्य सिर्फ़ एक कर्मचारी की हैसियत रखता है।
तुरगेनिफ़ ने उपन्यास के एक अन्य पात्र पाविल पितरोविच से एक बेहद महत्त्वपूर्ण बात कहलवाई है – सबसे बड़ी चीज़ है मनुष्य का व्यक्तित्व। और यह व्यक्तित्व चट्टान की तरह मज़बूत होना चाहिए क्योंकि दुनिया में हर चीज़ का निर्माण व्यक्तित्व की मज़बूत बनावट पर ही निर्भर करता है।
‘पिता और पुत्र’ उपन्यास का ही एक और पात्र निकअलाय पितरोविच किरसानफ़ कहता है – आप हर चीज़ से इनकार करते हैं। सही-सही कहूँ तो आप हर चीज़ को बरबाद कर देते हैं … लेकिन आपको कुछ बनाना भी चाहिए। यह निर्माण जीवन में बेहद ज़रूरी है। वह आगे कहता है – समय कभी चिड़िया की तरह उड़ता है तो कभी किसी कीड़े की तरह रेंगता है। लेकिन हम मनुष्यों को वह तभी बेहद भाता है, जब वह बड़ी जल्दी-जल्दी चुपचाप गुज़र जाता है, बिना हमें छेड़े। हम तो यह जान भी नहीं पाते कि इतना समय कैसे गुज़र गया।
इस उपन्यास में इवान तुरगेनिफ़ ने न केवल दो पीढ़ियों का संघर्ष दिखाया है, बल्कि समाज और मनुष्य के आपसी संघर्ष को भी चित्रित किया है। ऐसा नहीं होता कि समाज हमेशा नए विचारों और नए आदर्शों का समर्थन करता है., बल्कि समाज ही नए विचारों का सबसे बड़ा विरोधी होता है, इसीलिए संघर्ष पैदा होता है। समाज पुरानी रीतियों और रूढ़ियों से मुक्त होना नहीं चाहता। लेकिन नई पीढ़ी के नए युवा लोग पुरातन का झबला उतार फेंकना चाहते हैं। इस प्रयास के दौरान ही समाज के अन्य सदस्यों और युवाओं के विचारों के बीच आपसी टकराव होता है।
– अनिल जनविजय
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