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Apradh aur Dand / अपराध और दण्ड – Classics, Russian Novel

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Language: Hindi
Pages: 496
Book Dimension: 6.25 x 9.25 Inches

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मुनीश नारायण सक्सेना

फ़्योदर दसतायेव्स्की के उपन्यास ‘अपराध और दण्ड’ और ‘बौड़म’ को हिन्दी में पेश करने वाले मुनीश नारायण सक्सेना का जन्म 22 जून 1925 को लखनऊ में हुआ। लखनऊ यूनिवर्सिटी में शिक्षा ग्रहण करने के दौरान ही वे कम्युनिस्ट बन गये और वहीं से एम.ए. करके वे कम्युनिस्ट पार्टी के होल टाइमर के रूप में मुम्बई में काम करने लगे। मुम्बई में उन्होंने ब्लिट्ज साप्ताहिक अख़बार के हिन्दी और उर्दू के संस्करण शुरू किये और उनका सम्पादन किया। बाद में उन्होंने दिल्ली से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का अख़बार ‘जनयुग’ भी शुरू किया। उन्होंने लम्बे समय तक राष्ट्रीय श्रम संस्थान की अकादमिक पत्रिका का सम्पादन किया। 1981 से 1984 तक मुनीश नारायण सक्सेना मसक्वा (मास्को) में रहे। इन चार सालों में ही उन्होंने अलिकसान्दर पूश्किन, फ़्योदर दसतायेव्स्की, निकअलाई गोगल और मकसीम गोरिकी के उपन्यासों व कहानियों के अनुवाद किये। गोरिकी के उपन्यास ‘माँ’ का अनुवाद उन्होंने 1950 में तब किया था, जब वे एकदम युवा थे। मसक्वा का मौसम उन्हें रास नहीं आया। इसलिए जुलाई 1985 में वे दिल्ली वापिस लौट गये। दिल्ली में 08 अगस्त 1985 को हृदयाघात से मुनीश नारायण सक्सेना का देहान्त हो गया।
उन कुछ किताबों की सूची जिनका अनुवाद मुनीश नारायण सक्सेना ने किया– 1. मकसीम गोरिकी का उपन्यास ‘माँ’। 2. मकसीम गोरिकी की आत्मकथा का पहला हिस्सा ‘बचपन’। 3. मकसीम गोरिकी का उपन्यास ‘वे तीन’। 4. फ़्योदर दस्तोएवस्की का उपन्यास ‘अपराध और दण्ड’। 5. फ़्योदर दसतायेव्स्की का उपन्यास ‘बौड़म’। 6. इवान तुर्गेनिफ़ का उपन्यास ‘कुलीन घराना’। 7. निकअलाय गोगल की ‘कहानियाँ और लघु उपन्यास’। 8. अलिकसान्दर पूश्किन का उपन्यास ‘दुब्रोवस्की : बदला’। 9. सिर्गेय अलिक्सेयेफ़ की ‘रूसी इतिहास की कहानियाँ’। 10. गिओर्गी फ़्रान्त्सोफ़ की पुस्तक ‘दर्शन और समाजशास्त्र’। 11. निकअलाय अस्त्रोवस्की के उपन्यास ‘अग्निदीक्षा’ का ‘दरो रसाल की आज़माइश’ नाम से उर्दू में अनुवाद। इनके अलावा बच्चों की कुछ किताबों के भी अनुवाद किये।

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Description

पुस्तक के बारे में

फ़्योदर दसताएव्स्की के उपन्यास ‘अपराध और दण्ड’ को सम्पूर्ण विश्व साहित्य की स्वर्ण मंजूषा में शामिल दुनिया के दस सर्वश्रेष्ठ उपन्यासों में से एक माना जाता है। दुनिया भर के सौ देशों की 200 से ज़्यादा भाषाओं में इस उपन्यास का प्रकाशन हो चुका है। हिन्दी में यह उपन्यास तीस-पैंतीस साल से अनुपलब्ध था। अब यह फिर आपके हाथों में है।
युवावस्था में अपनी सक्रिय राजनीतिक गतिविधियों की वजह से मौत की सज़ा पाकर लेखक को लम्बे समय तक जेल में रहना पड़ा था। वहीं पर खतरनाक अपराधियों की मानसिकता का विश्लेषण करके दसताएव्स्की इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि अपने सामाजिक जीवन औरअपनी आर्थिक परिस्थितियों से पूरी तरह निराश होने के बाद ही कोई भी व्यक्ति अपराध करता है।
इस उपन्यास में यह दिखाया गया है कि कैसे हमेशा अपराधी नैतिक रूप से अपने अपराध का पश्चाताप करना चाहता है और उसे यह एहसास होने लगता है कि उसने मनुष्यता के विरुद्ध जाकर एक बड़ा पाप कर दिया है। दसताएवस्की ने तीन बार इस उपन्यास को लिखा और तीनों बार उसके कथानक में कई-कई बदलाव किए। यहाँ ‘दण्ड’ का मतलब है — अपराधी को अपराध करने के बाद होने वाली मानसिक पीड़ा। कोई भी अत्याचार या अपराध अपराधी को ख़ुद ही दण्डित करना शुरू कर देता है और उस सज़ा से बचना या उससे छिपना असम्भव है।
उपन्यास का मुख्य विषय सत्ता की अनदेखी और भयानक उपेक्षा की वजह से आम जनता का उत्पीड़न और उसके बीच फैली वह भयावह ग़रीबी है, जिसमें सता के अधिकारियों और सम्पन्न वर्गों की कोई दिलचस्पी नहीं होती। अपनी अशिक्षा और सदियों से चली आ रही सामाजिक कुरीतियों और परम्पराओं में फँसे होने के कारण आम जनता के बीच लगातार एक भ्रम की स्थिति बनी रहती है।
घुटनभरी ग़रीबी, सामाजिक असमानता और अपनी निराशा से छुटकारा पाने का लोगों को एक ही रास्ता दिखाई देता है और वह है अपराध और हिंसा या सत्ता और सत्ताधारियों और सम्पन्न वर्गों के ख़िलाफ़ विद्रोह। इस तरह सामाजिक असमानता को दूर करने जैसे एक अच्छे ध्येय और अच्छे लक्ष्य को पाने के लिए हिंसा और अपराध करने की संभावना को भी दसताएव्स्की ने नैतिक स्तर पर एक विनाशकारी सोच बताया है।

– अनिल जनविजय

…इसी पुस्तक से…

उसके मुक़दमे के दौरान कोई ख़ास कठिनाई नहीं हुई थी। अपराधी सही-सही, द‍ृढ़तापूर्वक और बिलकुल स्पष्‍ट रूप से अपने बयान पर अटल रहा था। उसने परिस्थितियों को न उलझाया था, न उनके बारे में कोई ग़लतबयानी की थी; न ही उसने अपने हित में तथ्यों को तोड़ा-मरोड़ा था, न ही कोई छोटी-से-छोटी बात छिपाई थी। उसने अदालत को बताया था कि उसने कब और कैसे हत्या करने की योजना बनाई थी और उसे पूरा किया था; उसने ‘गिरवी रखी गयी चीज़’ का रहस्य समझाया था (लकड़ी का वह छोटा-सा चपटा टुकड़ा जिसके साथ धातु की पट्टी लगी हुई थी), जो उस औरत के हाथ में पाया गया था, जिसका ख़ून किया गया था; उसने पूरे विस्तार के साथ बताया कि उसने किस तरह मरी हुई औरत के पास से चाभियाँ ली थीं; चाभियों का वर्णन किया, सन्दूक का और जो चीज़ें उसमें थीं उनका वर्णन किया, बल्कि उनमें से कुछ के नाम भी गिनवाए; लिज़ावेता की हत्या का रहस्य समझाया; उसने बताया किस तरह कोख़ ने आकर दरवाज़ा खटखटाया था, और उसके बाद वह विद्यार्थी आया था; उनकी बातचीत का ब्योरा दिया और बताया कि किस तरह वह (हत्यारा) बाद में सीढ़ियों पर नीचे भागा था और उसने निकोलाई और मित्का को चिल्लाते हुए सुना था; किस तरह वह ख़ाली फ़्लैट में छिप गया था और बाद में घर चला गया था और, अन्त में, उसने उस जगह का ठीक-ठीक वर्णन दिया जहाँ वोज़्नेसेंस्की ऐवेन्यू में वह पत्थर पड़ा था जिसके नीचे बटुआ और दूसरी चीज़ें पाई गयीं। दरअसल, सारा मामला बिलकुल साफ हो गया। अलबत्ता, छानबीन करनेवाले वकीलों और जजों को इस बात पर बहुत ताज्जुब हुआ कि उसने उस फ़्लैट से जो बटुआ और दूसरी चीज़ें ली थीं उन्हें इस्तेमाल करने की कोशिश किये बिना ही उसने उन्हें पत्थर के नीचे छिपा दिया था। उन्हें इस बात पर और भी ताज्जुब था कि उसे पूरे विस्तार के साथ यह नहीं याद था कि वे चीज़ें क्या थीं, यहाँ तक कि उसे यह भी याद नहीं था कि कितनी चीज़ें थीं। सच तो यह है कि यह बात किसी तरह उनकी समझ में ही नहीं आती थी कि उसने बटुआ कभी खोला ही नहीं था और उसे यह भी नहीं मालूम था कि उसमें कितना पैसा था। (पता यह चला कि बटुए में तीन सौ सत्रह रूबल और साठ कोपेक थे; और कुछ नोट, ख़ासतौर पर बड़ी रक़मवाले नोट, जो ऊपर रखे थे और इतने दिन तक पत्थर के नीचे पड़े रहने की वजह से बुरी तरह ख़राब हो गये थे।) उन्होंने इसका पता लगाने की कोशिश में बहुत वक़्त ख़र्च किया कि अपराधी ने जब बाक़ी सारी बातें अपनी मर्ज़ी से और सच-सच मान ली थीं तो वह इसी एक बात के बारे में झूठ क्यों बोल रहा होगा। आख़िरकार उनमें से कुछ ने (ख़ासतौर पर जिन्हें मनोविज्ञान की थोड़ी-बहुत जानकारी थी) इस बात को माना कि मुमकिन है उसने बटुए को कभी खोलकर देखा ही न हो और इसलिए उसे यह न मालूम हो कि जिस वक़्त उसने उसे पत्थर के नीचे छिपाया था तब उसमें क्या था। लेकिन इससे उन्होंने नतीजा यही निकाला कि अपराध वक़्ती पागलपन के दौरान ही किया गया होगा, या, दूसरे शब्दों में, ऐसे वक़्त जब अभियुक्त किसी अन्तिम उद्देश्य के बिना या निजी लाभ के किसी विचार के बिना केवल हत्या करने और डाका डालने की ख़ातिर हत्या और डाके के एकोन्माद का शिकार रहा होगा। यह बात वक़्ती पागलपन के उस प्रचलित सिद्धान्त से बहुत अच्छी तरह मेल खाती थी, जो अचानक कुछ प्रकार के अपराधियों पर अक्सर लागू किया जाता है। इसके अलावा यह बात कि रस्कोलनिकोव को हाइपोकांड्रिया की पुरानी बीमारी थी, जिसकी वजह से वह हमेशा उदास रहता था, कई लोगों की गवाही से पूरी तरह साबित हो चुकी थी, जिनमें डॉ. ज़ोसिमोव, उसके पुराने सहपाठी, उसकी मकान-मालकिन और उसकी नौकरानी शामिल थे। ये सब बातें इस निष्कर्ष की ओर प्रबल संकेत करती थीं कि रस्कोलनिकोव किसी आम हत्यारे, चोर और डाकू जैसा बिलकुल नहीं था, बल्कि यह कि वे लोग इस मामले में एक बिलकुल ही दूसरी तरह के आदमी से निबट रहे थे। इस सिद्धान्त के समर्थकों को यह देखकर बड़ी निराशा हुई कि अभियुक्त ने ख़ुद अपनी तरफ़ से कोई सफ़ाई पेश करने की कोशिश नहीं की। अन्तिम प्रश्‍नों के उत्तर में–कि किस चीज़ ने उसे हत्या करने पर मजबूर किया और किस चीज़ ने उसे डाका डालने के लिए प्रेरित किया–उसने बिलकुल साफ़-साफ़ और बहुत बुरी लगनेवाली स्पष्‍टता के साथ कहा कि इन सब बातों की वजह थी उसकी दयनीय भौतिक स्थिति, उसकी ग़रीबी और लाचारी, और उसकी यह इच्छा कि वह कम-से-कम तीन हज़ार रूबल की मदद से अपने जीवन की पहली मंज़िल के दौरान तो अपनी माली हालत मज़बूत कर ले, जिसके बारे में उसे पूरी उम्मीद थी कि जिस औरत का ख़ून किया गया था उसके फ़्लैट में इतनी रक़म तो मिल ही जायेगी। लेकिन उसने हत्या करने का फ़ैसला ख़ासतौर पर अपने विवेकहीन और कायर स्वभाव के कारण किया था, और इसके अलावा इसलिए कि वह अपनी मुसीबतों और अपनी असफलताओं से तंग आ चुका था। जब उससे पूछा गया कि उसने अपना अपराध स्वीकार क्यों किया, तो उसने साफ़-साफ़ जवाब दिया कि उसने जो कुछ किया था उसका उसे सचमुच अफ़सोस था।

 

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