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Kaun aur Samay (Hindi translation of Do Pakistani Laghu Upanyas authored in Shahmukhi Lipi) <br> कौन और समय (शाहमुखी लिपि से हिन्दी में अनुदित दो पाकिस्तानी लघु उपन्यास)
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Language: Hindi
Book Dimension: 5.5″x8.5″
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Author(s) — Mudssar Bashir
लेखक — मुदस्सर बशीर
Translator(s) — Dr. Kamal Puri & Dr. Rajendra Toki
अनुवादक — डॉ. कमल व डॉ. राजेन्द्र टोकी
| ANUUGYA BOOKS | HINDI | Total 134 Pages | 2022 | 5.5 x 8.5 inches |
| available in HARD BOUND & PAPER BACK |
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पुस्तक के बारे में
पाकिस्तानी कथाकार मुदस्सर बशीर के दोनों लघु उपन्यास कुछ नया कहने, करने को सामने रख कर ही लिखे गए हैं। ऐसा करते समय लेखक इस बात के लिए विशेष रूप से सजग रहा है कि पठनीयता और रोचकता को कहीं क्षति न पहुंचे और पाठक मूल भाव भी पकड़ ले।
‘कौन’ में लेखक ने जहाँ मनुष्य के नायक बनने की कामना तथा कहीं अचेतन मन में पडी दूसरों के जीवन को ऊपर से देखकर वैसा जीवन जीने की लालसा और जीवन की वास्तविकता की अभिव्यक्ति है। फ़िल्म का नायक बनने की ललक कथानायक ‘सरमद’ को विभिन्न पात्रों का भेष धारण करने और फिर उनके वास्तविक यथार्थ से रुबरु होकर इनकी ज़िन्दगी से कैसे विमुख होता है, इसका अत्यंत सुन्दर, नाटकीय और रोचक वर्णन इस लघु उपन्यास में देखने को मिलता है। इसके लिए लेखक ने फंतासी का सुन्दर प्रयोग किया है।
‘समय’ लेखक का पहला उपन्यास है जिसमें उसने गॉथिक उपन्यास की तकनीक का प्रयोग करते हुए एक रहस्यात्मक वातावरण का निर्माण करके प्रेम कहानी के साथ-साथ इतिहास के कुछ ढके-छिपे कोनों को छूने का प्रयास किया है।
ये दोनों उपन्यास लेखकीय कौशल के साथ-साथ उसकी पुरातात्विक, ऐतिहासिक और संगीत की गहरी समझ का भी परिचय देते हैं। औपन्यासिक परिपाटी को तोडते हुए लेखक ने पाकिस्तानी पंजाबी उपन्यास को एक नया धरातल प्रदान किया है। प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या उपन्यास आपके हाथों में है।
एक गोरी औरत ने उसके पास बैठते हुए कहा। वो ख़ुद भी मिट्टी का पेड़ा पकड़कर गूँथने लग गयी।
“हमारी तो एक बीघा भी ज़मीन नहीं। फिर हम क्यों हरेक बिजाई और कटाई पर बेगार करने चले जाते हैं।”
भश्कू ने मिट्टी गूँथते हुए, हुक्के का कश लगाकर कहा। सरमद को ऐसे लगा जैसे उसका मुँह पुराने तम्बाकू और गुड़ के स्वाद से भर गया हो।
“भश्कू, ये बातें करनी ही क्यों? यहाँ नवाब साहब की सरकार है, जो वो कहेंगे, वो होगा। कोई नयी बात थोड़ी है। पीढ़ियों से यही कुछ तो चलता रहा है, हमारे साथ भी चल रहा है।”
औरत ने प्यार से भश्कू का मुँह चूमते हुए कहा। फिर वो मिलकर मिट्टी गूँथते रहे और बाद में कपड़े झाड़कर बाहर निकल गये। गाँव की गलियों से होते हुए धीरे-धीरे एक खेत में जा पहुँचे। वहाँ पहले ही मर्दों-औरतों की एक भीड़ लगी हुई थी। जगह-जगह गेहूँ की बालियाें के ढेर बाँधे हुए पड़े थे। बैलों की जोड़ियाँ जोत दी गयी थीं, जिनके पीछे मर्द और औरतें ढेरियाँ बिछाकर चल रहे थे, बालियाँ और धड़ अलग होते जा रहे थे। ढेरियाँ खुलती गयीं। औरतें सूखी घास और भूसा अलग करती गयीं। बीच में गेहूँ के दानों का ढेर लग जा रहा था। सरपंच को ऐसे लगा जैसे दाने किसी नाटक के पात्र हों और उसके आस-पास भूसा और पराली दर्शक हों, जो नाटक देख भी रहे हों, खेल भी रहे हों। इतने में हवा के दो-तीन झोंके आये और औरतें काँटेदार बेलचों से गेहूँ हवा में उछालने लगीं। रेशम एक तरफ़ से ज़मीन पर से छोटे-छोटे दाने उठाने लगी। कुछ देर बाद दो लोगों ने रोटियाँ, अचार, प्याज और लस्सी कामगारों के आगे ला रखी। सरमद ने खाना खाते लोगों की ओर देखा, उसे लगा जैसे दित्ता सैनी और मौजी खान भी साथ ही खाना खा रहे हों। फिर उसका ध्यान रेशम की ओर गया जो औरतों में सबसे सुन्दर थी। सारे दिन की मेहनत से थके कामगार एक-दूसरे से बातें करते रहे और फिर काम पर लगे। गेहूँ की ढेरियाँ बाँध-बाँधकर बड़े घर पहुँचायी जाने लगीं और पूरा साल काम करने वाले ख़ुदा के घर से खाली हाथ अपने घरों को लौटे। सारा अनाज उनके घर गया जिन्होंने खेत में कभी पाँव न धरा था। रेशम और भश्कू भी खाली हाथ लौटे। घर से बाहर भश्कू ने भट्ठी से कुछ बर्तन बाहर निकाले और टनकाकर देखे–
“कल शाम को खोलेंगे और देखेंगे कि कितने पके, कितने कच्चे रहे और कितने तिड़क गये।” भश्कू ने कहा।
“तू इतनी चिन्ता मत किया कर। अगर सारे ही कच्चे निकल आये या सारे ही दरारदार भी हो गये, तो भी क्या? नैन-प्राण सलामत रहें। मिट्टी अपने पास है। और बन जायेंगे।
रेशम ने प्यार से उसका हाथ पकड़ते हुए कहा। घर में पाँव रखने लगे गली के सिरे से एक फ़कीर की आवाज़ आने लगी जो इकतारे पर गा रहा था –
“प्रभू रंग बिना
मोहे सब सुख दीना
प्रभू रंग बिना
मोहे सब सुख दीना
दूध-पूत और आना-धाना
लक्ष्मी सब रंग
सब बाताें में
मोहे लायक कीना
प्रभू रंग बिना
मोहे सब सुख दीना।”
भश्कू और रेशम कुछ देर फ़कीर की आवाज़ में डूबे रहे और फिर घर के अन्दर आ गये।
“मुझे लगता है तुझे राग भोपाली पसन्द है।”
शीशे से आवाज़ आयी।
“नहीं, ऐसा तो कुछ नहीं।”
“तो फिर घड़ी-घड़ी इसकी स्थाइयाँ तेरे आगे क्यों आ जाती हैं?”
“राम जाने। अब घर के अन्दर तो जाऊँ। देखूँ भश्कू को स्क्रिप्ट ने आगे क्या करवाना है।”
“स्क्रिप्ट ने करवाना है, समाज ने या समय ने।”
शीशे ने हँसकर कहा और सरमद ने तुरन्त जवाब दिया।
“स्क्रिप्ट भी तो समाज से ही बनती है।”
भश्कू को अन्दर तीनों जवान लड़कियाँ दिखीं जो ओढ़नियों पर कढ़ाई कर रही थीं। भश्कू खटिया पर लेटा तो उसकी आँख लग गयी। वो तब जागा जब दरवाज़े पर दस्तक हुई। रेशम ने दरवाज़ा खोला तो सामने ज़मींदार खड़ा था।
“कहाँ है भश्कू?
“अन्दर है।”
“तू भी चल अन्दर ही।”
ज़मींदार ने रेशम को धकियाते हुए कहा और भश्कू से बोला–
“जा भश्कू। हवा तेज़़ चल रही है। जाकर तंगली (छलनी) से गेहूँ छान ले।”
…इसी पुस्तक से….
Additional information
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Weight | 400 g |
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Dimensions | 9 × 6 × 0.5 in |
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