







Vishwa Cinema – Kuch Anmol Ratan <br>विश्व सिनेमा – कुछ अनमोल रत्न
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Author(s) — Vijay Sharma
लेखिका — विजय शर्मा
| ANUUGYA BOOKS | HINDI| 200 Pages | 5.5 x 8.5 Inches |
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…पुस्तक के बारे में…
होसे सारामागो मेरे एक प्रिय लेखक रहे हैं। उनकी ‘ब्लाइंडनेस’ फिल्म एक अनोखी फिल्म है। यह एक विचित्र अन्धेपन की बात करती है। गैब्रियल गार्सिया मार्केस तथा होसे सारामागो दोनों ही नोबेल पुरस्कृत लेखक हैं। यह कहने की जरूरत नहीं कि मैं मार्केस की फैन हूँ। शुरू में इन दोनों लेखकों का मानना था कि उनकी किताबों पर फिल्म नहीं बन सकती है, बनेगी तो किताबों के साथ न्याय नहीं करेगी। इसीलिए बड़ी-से-बड़ी रकम का प्रस्ताव मिलने पर भी फिल्म बनाने के अधिकार किसी को नहीं दिये। लेकिन बाद में उनके विचार में परिवर्तन आया और उन्होंने अपनी-अपनी किताब पर फिल्म बनाने के अधिकार दिये और उनकी किताबों पर फिल्में बनी। कभी बहुत अच्छी फिल्म बनी कभी उतनी अच्छी न बनी। सारामागो की ‘ब्लाइंडनेस’ की बात ऊपर कर आयी हूँ। मार्केस की किताब ‘लव इन द टाइम ऑफ कॉलरा’ पर इसी नाम से फिल्म बनी है। दोनों उपन्यासकारों की केवल एक-एक किताब पर बनी फिल्म यहाँ ली है।
हॉर्वर्ड फास्ट की शताब्दी अभी थी उसकी किताब पर ‘स्पार्कटस’ पर एक बेहतरीन फिल्म बनी है। फिल्म एक व्यक्ति के साहस और डिटर्मिनेशन के कारण प्रेरणादायक फिल्म है। युवावस्था जुनून का पर्याय होती है, यह जुनून लक्ष्यपूर्ण अथवा लक्ष्यहीन हो सकता है। ‘इनटू द वाइल्ड’ एक जुनूनी व्यक्ति के एडवेंचर और त्रासद अन्त की फिल्म है। इसी तरह एक व्यक्ति ठान ले तो अपने आस-पास की दुनिया बदल सकता है। ‘एरिन ब्रॉकोविच’ एक ऐसी ही स्त्री पर बनी फिल्म है जो व्यक्तिगत हित को भुलाकर सार्वजनिक हित के लिए कमर कस लेती है।
यह युवा का जुनून ही है जो उसे हमारी धरोहर को बचाने के लिए प्रेरित करता है। मार्टिन स्कॉरसिसे ऐसे ही फिल्म निर्देशक हैं जिन्होंने बचपन में पॉवेल की फिल्म देखी और उसके प्रेम में पड़कर खुद फिल्म निर्देशक बन गये और जब लोगों ने पॉवेल और उनकी फिल्मों को भुला दिया तो मार्टिन ने उनका और उनकी फिल्मों का पुनरुत्थान किया। मार्टिन स्कॉरसिसे ने शुरुआती फिल्मों के एक निर्देशक जॉर्ज मिलियस के जीवन को केन्द्र में रखकर ‘ह्यूगो’ फिल्म बनायी। यहाँ वे फिल्मों का उत्सव मनाते हैं तथा अपने जीवन के कई अनुभवों को फिल्म में ढ़ालते हैं।
‘परफ्यूम : स्टोरी ऑफ ए मर्डरर’ एक अनोखी फिल्म है, उसे लिखकर नहीं देखकर ही समझा जा सकता है। इस फिल्म पर लिखने के फलस्वरूप मेरा ‘हंस’ के यशस्वी सम्पादक राजेन्द्र यादव से परिचय हुआ। मेरी जिद थी कि मैं जब ‘हंस’ में अपनी कोई रचना भेजूँगी तो उसे रिजेक्ट नहीं होना चाहिए। इस कारण बहुत समय तक मैंने इस पत्रिका में कुछ नहीं भेजा, जबकि मेरी बेटी अनघा सदा कहती, मम्मी तुम इतना अच्छा लिखती हो और इस ‘हंस’ की इतनी तारीफ करती हो तो इस पत्रिका में क्यों नहीं अपनी रचनाएँ भेजती हो। और एक दिन मैंने ‘परफ्यूम : स्टोरी ऑफ ए मर्डरर’ देखी, कई बार देखी और उस पर लिखकर राजेन्द्र यादव को भेज दिया। शीघ्र ही उनका फोन आया, वे यह फिल्म देखना चाहते थे। फोन सुनकर मैं कितनी रोमांचित हुई शब्दों में बताना कठिन है। उन दिनों फिल्में इतनी आसानी से उपलब्ध नहीं हुआ करती थीं। कई बार उनको फिल्म भेजी हर बार कुछ गड़बड़ हो जाये और अन्तत: उन्होंने यह फिल्म देखी। फिर हमारी कई बार बात हुई, कई बार मिलना हुआ, कई बार उनकी पत्रिका में प्रकशित होना हुआ।
एक और अनोखी फिल्म है, ‘मचूगा’ इस फिल्म में चिली का वास्तविक इतिहास बच्चों की नजरों के सामने से गुजरता है। वर्ग-भेद की प्रकृति और उनके व्यवहार पर बहुत कम फिल्में इतने सूक्ष्म लेकिन गहन तरीके से दृष्टि डालती हैं। युद्ध की पृष्ठभूमि में बनी चेक फिल्म ‘ज़ेलारी’ प्रेम के कोमल पक्ष को उजागर करती है। ‘रिवोलुशनरी रोड’ भी एक विशिष्ट फिल्म है क्योंकि इसमें पिछली सदी के मध्य में पारिवारिक और सामाजिक जीवन से जुड़े कुछ मुद्दे उठाये गये हैं जो आज भी उतने ही महत्त्वपूर्ण हैं।
पहले ध्यान नहीं दिया था मगर बाद में देखा कि ये सारी फिल्में किताबों पर आधारित हैं। साहित्य प्रारम्भ से सिनेमा की प्रेरणा रहा है। दोनों का बहुत निकट का सम्बन्ध है हालाँकि दोनों दो भिन्न विधाएँ हैं। दोनों कलाओं के मूल्यांकन के मापदंड भी भिन्न हैं। दोनों की भाषा, मुहावरे और तकनीकि भी भिन्न हैं। अक्सर हम फिल्म देखते हुए फिल्म की कहानी पर ही अटक जाते हैं जबकि कहानी फिल्म का एक हिस्सा है, एकमात्र हिस्सा नहीं। सिनेमा की भाषा भिन्न होती है जहाँ कथानक बहुत नीचे पायदान पर होता है। जैसे हम साहित्य के लिए खुद को संस्कारित करते हैं वैसे ही दर्शकों-अध्ययनकर्ताओं को फिल्म के लिए भी खुद को संस्कारित करना आवश्यक है। इसके लिए सिनेमा की भाषा का अध्ययन-अध्यापन जरूरी है। कुछ संस्थान इस दिशा में कदम उठा चुके हैं मगर आज समय आ गया है जब सिनेमा को शिक्षा का अंग बनाया जाना चाहिए। सिनेमा हमारे जीवन में बहुत घुल-मिल गया है, अब इसे गम्भीरता से लेना होगा।
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