







Vikalp (Short Stories of Aadivasi Perspective) / विकल्प (आदिवासी परिप्रेक्ष्य की कहानियों का संग्रह)
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उसके भी दो बच्चे थे। बेटी बड़ी थी और बेटा छोटा। बेटी ने कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद बी.एड. की ट्रेनिंग ली। गुमला के एक मिशन स्कूल में टीचर की नौकरी भी लग गयी उसकी। वहीं मिंज परिवार से उसके लिए रिश्ता आया, तो उसकी शादी भी हो गयी। उसका परिवार वहीं बस गया था। बेटा महत्त्वाकांक्षी था। महानगरों का ख्वाब देखा करता था। उसे हाई सोसाइटी में उठने-बैठने की इच्छा होती थी। बड़ी कम्पनी में काम करना चाहता था। वैसे उसकी वह मंशा पूरी तो नहीं हुई, लेकिन उसकी नौकरी दिल्ली में लग गयी। जब नौकरी लगी, तो उसे गाँव छोड़ना ही था। वहाँ वह अपने अधूरे सपनों को पूरा करने की जी-तोड़ मेहनत कर रहा था। लेकिन महानगरों की जिन्दगी में कहीं ठहराव नहीं था। जितना भी कमा लो, वह थोड़ा ही लगता था। इसके बावजूद उसे वहाँ परिवार के साथ रहना ही था। गाँव में अपनी बूढ़ी माँ को छोड़कर।
वह आँगन में झाड़ू बुहार करती सोच रही थी कि शोभा ने आकर टोक दिया। उसका चिन्तन वहीं रुक गया।
‘क्या दादी, तुम हमेशा इतना काम क्यों करती रहती हो? आराम क्यों नहीं करती हो?’
‘आराम कहाँ बेटी! काम न करूँ, तो खाना भी नहीं मिले!’ झाड़ू दीवार के सहारे टिकाती हुई वह बोली। ‘लेकिन दादी, तुम्हारे तो जवान बेटा है, और बहू भी।’
‘जब बच्चे छोटे होते हैं, तब तक वे अपने होते हैं। जब बड़े हो जाते हैं तो वे माँ-बाप के नहीं रह जाते हैं। उनकी अपनी ही दुनिया बस जाती है।’
‘सब वैसे तो नहीं होते, दादी!’
‘किसकी-किसकी बात करती हो?’
‘दादी, तुम्हारा बेटा तो तुम्हारे पास बराबर रुपये भेजता है। मैं उसी की बात कह रही हूँ!’
‘रुपया ही सब कुछ नहीं होता है, शोभा बेटी! बुढ़ापे में आदमी को और भी सहारा चाहिए।’
‘फिर तुम अपने बेटे के पास क्यों नहीं चली जाती हो?’
‘ना-ना!’ मचिया में बैठी हाथ हिलाती हुई वह बोली। ‘शहर में मुझसे रहा नहीं जाता। ना कहीं जाना, ना आना। दिन-भर पिंजरानुमा फ्लैट में बन्द रहना, मेरे वश की बात नहीं।’
‘दादी, मुझे तो वहाँ रहना अच्छा लगता है। बड़े शहरों की बात ही कुछ और होती है।’ शोभा इठलाकर बोली।
‘हाँ-हाँ, क्यों नहीं? तुम जैसी जवान लड़कियों को तो शहर का जीवन अच्छा लगेगा ही। इस छोटे-से कस्बे या गाँव में रहना भायेगा क्यों?’
‘फिर भी दादी, तुम कुछ भी समझो …शहर के जीवन में भाग-दौड़ और रोमांच बहुत है।’
‘ओह कैसा रोमांच!… न किसी से मिलना, न जुलना! फिर वहाँ का भागम-भाग। जैसे हर कोई कहीं भागा जा रहा है। किसी को किसी की चिन्ता नहीं। किसी को किसी की बात सुनने की फुर्सत नहीं। ना-ना मैं वैसी जिन्दगी नहीं जी सकती!’
‘दादी, आखिर इस छोटे शहरनुमा गाँव में तुम्हें क्या मिल रहा है? सालों से यहाँ वही-का-वही है। कोई बदलाव भी नहीं हुआ!’ शोभा बहस करती।
‘यहाँ आत्मिक शान्ति है। सुबह जब गिरजाघर का घंटा बजता है, तब ऐसा लगता है जैसे प्रभु नींद से जगाकर अपने पास बुला रहा है। सब कुछ कितना सुखद लगता है।’ वह आत्मविभोर हो जाती है यह सब सोचकर।
‘आज के बदलते युग में गिरजा जाने से ही सब कुछ नहीं मिलता है, दादी!’
‘किसने तुम्हें यह कह दिया? आज भी जो कुछ हमें मिल रहा है, वह प्रभु की कृपा ही तो है। शहर में तो सुबह हुई कि नहीं, बच्चों को स्कूल जाने के लिए तैयार करो। बच्चों का टिफिन तैयार करो…उनके स्कूल की बस छूट जायेगी, उसकी चिन्ता लगी रहेगी। …इसके बाद सभी अपने-अपने ऑफिस के लिए भागेंगे। पूरा सप्ताह यही भागम-भाग लगा रहता है शहरों में। शाम को लौटो, तो बच्चों का होमवर्क पूरा करो। सब थककर चूर। किधर खाना खाया कि नहीं, टी.वी. से चिपक जाते हैं सब लोग। ओह, रात्रि प्रार्थना जैसी परम्परा तो जैसे शहरों में रही नहीं कभी।’
‘ओफ्फ दादी, तुम तो उन दिनों की बात करती हो, जो आज कल्पना में ही देखी जा सकती है। …मैं तो अब चली।’
…इसी पुस्तक से…
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वाल्टर भेंगरा ‘तरुण’
(जन्म 10 मई 1947, खूँटी)। पिता-स्व. इग्नेस भेंगरा। माता-स्व. मरियम लोंकटा। शिक्षा-सन्त जेवियर्स कॉलेज, राँची से स्नातक (1970)। पत्रकारिता एवं टेलीविजन प्रशिक्षण-डी सेल्स जर्नलिज्म इंस्टीट्यूट, नयी दिल्ली (1972)। फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया, पुणे एवं दूरदर्शन के केन्द्रीय निर्माण केन्द्र, नयी दिल्ली (1988-89)। कर्म क्षेत्र-‘कृतसंकल्प’ युवा हिन्दी मासिक, पटना का सम्पादन अक्टूबर (1972-80)। ‘जग ज्योति’ समाचार पाक्षिक, राँची का सम्पादन एवं प्रकाशन (1981-86)। ‘उदित वाणी’ हिन्दी दैनिक, जमशेदपुर कुछ समय के लिए सह-सम्पादक। ‘दूरदर्शन समाचार संवाददाता’ कोलकता, राँची, जयपुर, नयी दिल्ली एवं लखनऊ केन्द्रों में (1988-2007)। सन्त जेवियर्स कॉलेज, राँची के मास कम्यूनिकेशन्स एंड वीडियो प्रोडक्शन डिपार्टमेंट में सहायक समन्वयक (2007-14)। लेखन–संजीवन साप्ताहिक, नयी दिल्ली से पहली कहानी प्रकाशित (1963)। कहानी-संग्रह– लौटती रेखाएँ (1981), देने का सुख (1983), जंगल की ललकार (1989), अपना-अपना युद्ध (2014)। उपन्यास–शाम की सुबह (1981), तलाश (1986), गैंग लीडर (1988), कच्ची कली (1990), लौटते हुए (2005)। आकाशवाणी, राँची से और विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में वार्ता व समसामयिक विषयों पर आलेख। विदेश यात्रा–भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. शंकर दयाल शर्मा की यूरोप यात्रा का दूरदर्शन समाचार कवरेज के लिए तेहरान, यूक्रेन, तुर्की, हंगरी, ग्रेट ब्रिटेन, ग्रीस और बहरीन की यात्रा (1993)। सम्मान–बिहार सरकार के राज्यभाषा विभाग द्वारा जंगल की ललकार कहानी संग्रह (1989)। काथलिक बिशप्स कान्फ्रेंस ऑफ इंडिया, नयी दिल्ली द्वारा मसीही साहित्य रत्न (2002)। झारखंड इंडीजीनियस पीपल्स फोरम, राँची द्वारा लेखन व पत्रकारिता के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य के लिए (2017)। आदिवासी हिन्दी लेखक के रूप में कहानी और उपन्यासों के माध्यम से हिन्दी भाषा में योगदान के लिए ‘अयोध्या प्रसाद खत्री स्मृति साहित्य सम्मान’ (2017)। ‘प्रभात खबर’ हिन्दी दैनिक, राँची द्वारा मीडिया शिक्षा के क्षेत्र में योगदान के लिए ‘गुरु सम्मान’ (2018)। गुड बुक्स एजुकेशनल ट्रस्ट, राँची द्वारा मसीही हिन्दी साहित्य में योगदान के लिए (2019)। संप्रति-वर्तमान में सेवानिवृत्ति के बाद पैतृक निवास खूँटी, झारखंड में स्वतन्त्र लेखन व बागवानी। सम्पर्क-इग्नेस सदन, अमृतपुर, डाक व जिला-खूँटी (झारखंड) 835210।
ईमेल- walterbtarun@gmail.com मो. 09798943597
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