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THAHARNA-BHATKANA / ठहरना-भटकना

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Language: Hindi
Pages: 139
Book Dimension: 5.5″x8.5″

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गिरहें

जब त्वचा का त्वचा पर खुरचना उबासी का सबब बनने लगे
समझ लेना चाहिए, साथ इकट्ठी की गई स्मृतियाँ फीकी होने लगीं हैं,
उससे द्वेष नहीं रखा जा रहा,
अब बस अपने हाथ को उसकी हथेली में गर्म किया जा रहा है

कल्पनाओं से असंतोष शायद ही हो
सोचते हुए मुतमइन नहीं हुआ जा सकता
कि उन बंधनों को तोड़ा नहीं है अब तक
जिनकी गिरहों से बुनी चादर की सिलवट
देह से भी अधिक गर्म हो रही है

ऐसी गिरहें जब भूल जाएँ सुलझना
उन्हें सुलझाने की कोशिश नहीं की जानी चाहिए
– आदत से मजबूर होने पर भी –
महीन गिरहें अमूमन आधी फँसी ही रह जाती हैं

…इसी पुस्तक से…

* * *

जिन नये कवियों की कविताओं में हिन्दी कविता में आसन्न बदलावों की आहट सुनाई पड़ती है उनमें उपांशु का नाम तुरत याद आता है। निश्चित रूप से हिन्दी कविता में नये स्वरों के आगमन से कविता में गुणात्मक परिवर्तन हो रहे हैं। जीवन और समाज में हो रहे परिवर्तनों को सबसे पहले कवियों की एंटिना पकड़ती है। एकदम नये कवियों की रडार पर सुदूर जीवन- गतिविधियों की छायाएँ दर्ज होती हैं। और एक नया मुहावरा, कहन भंगिमा और भाषा-आचरण प्रगट होता है। उपांशु की कविताएँ,और इनके सहकर्मियों की कविताओं में इसे सहज ही देखा जा सकता है। ‘लक्ष्य एक हो तो भी दृष्टि भिन्न हो जाती है।’ केवल दृष्टि ही नहीं संपूर्ण काया भिन्न हो जाती है।

— अरुण कमल

SKU: 9789389341737

Description

उपांशु

जन्म – 2 फ़रवरी 1994, पटना में
अंग्रेजी से स्नातक और परास्नातक
संपर्क : m.upanshu@gmail.com

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