







Stree Mukti : Yatharth aur Utopia / स्त्री-मुक्ति : यथार्थ और यूटोपिया
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Editor(s) — Rajiv Ranjan Giri
सम्पादक – राजीव रंजन गिरि
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पुस्तक के बारे में
स्त्री – मुक्ति का संघर्ष सिर्फ़ महिलाओं का नहीं बल्कि एक सामाजिक संघर्ष भी है। पूरी दुनिया बदलेगी, तभी आधी दुनिया भी बेहतर होगी। लिहाज़ा जब राधा बहन भट्ट उत्तरांचल में महिलाओं-पुरुषों को साथ लेकर गंगा को उसके मुहाने पर कैद करने की विकसित सोच से लोहा लेती हैं, और मेधा पाटकर लालगढ़ से लेकर दंतेवाड़ा तक बिछी हिंसा के खिलाफ एवं नर्मदा आंदोलन हेतु सड़क पर उतरती हैं, तो वह महिलाओं के साथ समाज और देश के लिए एक बेहतर कल को भी संभव बनाने की लड़ाई लड़ रही होती हैं।
पूँजी और व्यवस्था के विकेन्द्रीकरण की लड़ाई से कटकर एकांगीरुप से स्त्री – मुक्ति का कारवाँ आगे बढ़ नहीं सकता। इसलिए अभिषेक करना है तो वैकल्पिक विकास और संघर्ष की लौ, तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद, जलाने वाली उन महिलाओं का करना चाहिए, जिन्होंने बाजार, उपभोग और हिंसा के पागलपन के खिलाफ समय और समाज के लिये, अपने जीवन का लक्ष्य तय किया है।
बीसवीं शताब्दी का अंत होते-होते हम यह बात स्वीकार कर चुके हैं कि कोई भी विचारधारा देश काल से परे जाकर सार्वभौम नहीं होती। मार्क्सवाद हो या उदारवाद– हर विचारधारा अपने एक खास संदर्भ में अवस्थित होती है। उसका अपना एक विशिष्ट इतिहास और भूगोल होता है। इस तरह देखें तो विचार एक तरह की विशिष्ट स्थानिकता, इतिहास और भूगोल की अंत:क्रियाओं से जन्म लेते हैं। अब तक हम जिस परिघटना को ज्ञानोदय (एनलाइटेनमेंट) कहते थे, उसे अब हम-जान बूझकर यूरोपीय ज्ञानोदय कहने लगे हैं; इसी तरह, जैसे मार्क्सवाद सार्वभौम विचारधारा नहीं है, ठीक उसी तरह नारीवाद भी सार्वभौम नहीं है। भारत में नारीवाद की एक विशेषता यह रही है कि उसने कभी सार्वभौम होने का दावा भी नहीं किया।
हम जो खुद को नारीवादी कहते हैं वे यौनिकता के दो चेहरों के बीच फ़ँस गये हैं। एक चेहरा हम बहुत अच्छी तरह पहचानते हैं; वह है खतरा और हिंसा वाला चेहरा, क्योंकि पितृसत्तात्मक समाज में बहुत ज्यादा हिंसा है। लेकिन जो दूसरा चेहरा है, जो चाहत और सुख से जुड़ा हुआ है, उस चेहरे को हम नहीं पहचानते। जब हम उसे पहचानते हैं तो एक वैकल्पिक विमर्श की जरूरत महसूस होती है।
…इसी पुस्तक से
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