







Shaligram kee Aanchalik Kahaniyan / शालिग्राम की आंचलिक कहानियाँ
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नई कहानी की एक प्रमुख प्रकृति आंचालिकता की रही है। शिव प्रसाद सिंह की ‘दादी माँ’ इसका सर्वोत्तम उदाहरण है। ‘दादी माँ’ कहानी के अतिरिक्त प्रतिनिधि आंचलिक कहानियों में मार्कण्डेय की ‘हंसा जाई अकेला’, ‘दूध और हवा’, शेखर जोशी की ‘कोसी का घटवार’, ‘दाज्यू’, फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ की ‘तीसरी कसम’, ‘रसप्रिया’ ‘लाल पान की बेगम’, ‘सिरपंचमी का सगुन’, ‘ठेस’, मधुकर गंगाधर की ‘खून’, ‘बैल का विद्रोह’, ‘बरगद’, शैलेश मटियानी की ‘दो दु:खों का एक सुख’, ‘प्रेतमुक्ति’, ‘पोस्टमैन’, राजेन्द्र अवस्थी की ‘लमसेना’, ‘अमरबेल’, पानू खोलिया की ‘एक किरती और’, ‘हस्ती’ इत्यादि उल्लेखनीय हैं। शालिग्राम की ‘पाही आदमी’, ‘नटुआ दयाल’, ‘केंचुल’, ‘इजोतिया’, ‘बासमती’, ‘राकस’ आदि कहानियाँ भी इसी श्रेणी में रखी जा सकती हैं। ‘एक दुनिया : समानान्तर’ (संपादक : राजेन्द्र यादव, 1970) में राजेन्द्र यादव ने बिहार के कतिपय आंचलिक कथाकारों की चर्चा की है। उन्होंने लिखा है, “नागार्जुन और रेणु ने बिहार की परती (वेस्टलैंड), ‘मैले आंचल’ की ठुमरी गाई है। मधुकर गंगाधर ने ‘तीन रंग : तेरह चित्रों’ में उसकी काली-उजली तस्वीरें दी हैं। …” (पृ. 41)
शालिग्राम की पहली कहानी ‘इजोतिया’ सन् 1963 ई. में ‘धर्मयुग’ में छपी थी। ‘इजोतिया’ कहानी छपने के बाद पाठकों से इन्हें ढेरों पत्र मिले। उसके बाद तो ‘धर्मयुग’, ‘सारिका’, ‘नई कहानियाँ’ आदि विशिष्ट पत्रिकाओं में लगातार इनकी कहानियाँ छपने लगीं और ये ग्राम्यांचल के कुशल चितेरे के रूप में चर्चित हो गए। ‘इजोतिया’ के बाद इनकी सर्वाधिक चर्चित कहानी है ‘नटुआ दयाल’ जो ‘सारिका’ पत्रिका (1-15 अगस्त 1986) में छपी थी। ‘पतंगे की मौत’ कहानी ‘नई कहानियाँ’ में छपी थी, 1969 ई. में। देह गाथा पर आधारित इस आंचलिक कहानी में स्त्री की आकांक्षा, अतृप्ति, उत्तेजना, अंतर्द्वंद्व और अंतर्दशा का सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक चित्रण हुआ है। स्त्री जीवन के यातना भरे कोनों को यह कहानी कलात्मक ढंग से उजागर करती है। ‘कोई उत्तर नहीं’ कहानी ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ में छपी थी। इस कहानी में लेखक ने वृद्ध पिता की मनोदशा को गहराई से समझकर उसकी पीड़ा को सूक्ष्मता से अंकित किया है। सन् 1963 ई. में इनका पहला कहानी संग्रह ‘पाही आदमी’ प्रकाशित हुआ। ‘पाही आदमी’ कहानी संग्रह में कथाशिल्पी ‘रेणु’ ने टिप्पणी लिखी थी, “हिन्दी साहित्य में आंचलिक लेखन और आंचलिकता एक विवाद का विषय बना हुआ है। शालिग्राम का कथा संग्रह ‘पाही आदमी’ इस चर्चा-परिचर्चा के लिए प्रचुर सामग्री लेकर प्रकाशित हो रहा है। एक-एक कहानी रस और वैचित्र्य से परिपूर्ण है। नवागत लेखक की प्रथम रचना में आंतरिकता का तनिक भी अभाव नहीं है। इसलिए सभी कहानियाँ हृदयग्राही हैं।”
जन कवि नागार्जुन ने भी इस संग्रह पर अपनी टिप्पणी दी थी, “कोसी तटबंधों से लगे अंचलों में नया संसार आबाद होता जा रहा है। तरुण कथा-शिल्पी शालिग्राम की पैनी निगाहों से छनकर उन अंचलों का जीवन रस हमें अनूठा स्वाद देता है।” इसी तरह काशी विश्वविद्यालय के विद्वान प्रोफेसर डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल ने भी अपने पत्र में ‘पाही आदमी’ संग्रह की कहानियों की प्रशंसा करते हुए लिखा था, “आपने बहुत सरल एवं रोचक शैली में बिहार और नेपाल के बीच के आंचलिक जीवन का चित्र खींचा है, जो बहुत सरस और हृदयग्राही है। ग्राँव के जीवन का निकट से परिचय देने वाली ये कहानियाँ पठनीय हैं और इनका निजी महत्त्व है।”
कहना न होगा, ‘पाही आदमी’ संग्रह की सर्वश्रेष्ठ आंचलिक कहानी है–‘पाही आदमी’। इसमें कोसी अंचल के निम्नवर्गीय लोगों के सामाजिक सरोकार, उनकी जीवटता, उनके सघर्ष, लोक-गीत, लोक-देव, पर्व-उत्सव इत्यादि का बड़ा ही सहज, स्वाभाविक और मनोहारी चित्रण हुआ है। कहानी में वर्णित चरित्र, वातावरण एवं घटनाएँ यथार्थ और गतिशील हैं। कोसी अंचल के भौगोलिक एवं सांस्कृतिक परिवेश और पात्रों से गहरी आत्म-संपृक्ति के कारण यह लेखक को आंचलिक कहानीकार के रूप में प्रतिष्ठित करती है।
कोसी कोई साधारण नदी नहीं है। इसे ‘बिहार का शोक’ कहा जाता है। हजारों वर्षों से कोसी की धाराएँ परिवर्तित होती रही हैं। फलस्वरूप यहाँ के लोग प्रत्येक वर्ष उजड़ने और पुन: पुन: बसने के लिए विवश होते रहे हैं। जीवट के धनी कोसी अंचल के निवासी ने लगातार नदी की धारा से संघर्ष भी किया और उसकी विपत्ति भी झेली। यह उल्लेख्य है कि उस समय कोसी-बराज का निर्माण नहीं हुआ था। कोसी नदी की भयावहता से संघर्ष करते हुए मछुआरों, मल्लाओं, घटवारों की रागात्मक चेतना, आत्मीयता, उत्सव-समारोह से संपन्न प्रस्तुत कहानी आंचलिकता का एक अलग स्वाद देती है।
आंचलिक लोक-राग से संपन्न ‘नटुआ दयाल’ कहानी भी पूरी संवेदनशीलता से कलाकार की रागात्मक चेतना, कुंठा, द्वंद्व तथा लोक-नाट्य की संस्कृति को उजागर करती है। नटुआ दयाल नाच मंडली का सिरमौर है। सब से अच्छा उसका बिहुला नाच होता है। नाच में वह बाला लखिंदर की पत्नी बिहुला का अभिनय करता है। वैसे गोपीचन, विदेशिया, ब्रजभान, राजा भरथरी, हरिचंदर, जयसिंह, कोसिका आदि कोसी अंचल के प्रचलित नाच हैं।
रेणु की परम्परा में सृजित शालिग्राम के उपन्यास भी कोसी अंचल की संवेदना को व्यक्त करने वाली महत्त्वपूर्ण औपन्यासिक कृतियाँ हैं। अपने दोनों उपन्यासों–‘किनारे के लोग’ (1996) तथा ‘कित आऊँ कित जाऊँ’ (2008) में लेखक ने स्वातंत्र्योत्तर काल में ग्राम्यांचल में विकसित संवेदना को सामाजिक अंत:क्रिया के स्तर पर पकड़ने की कोशिश की है। रेणु के ‘मैला आंचल’ और ‘परती परिकथा’ में कोसी अंचल के पाँचवें दशक की कथा है और शालिग्राम के ‘किनारे के लोग’ में छठे-सातवें दशक के कोसी क्षेत्र की संवेदना को उद्घाटित किया गया है। स्वातंत्र्योत्तर भारत में शुरू के दो दशक के सामाजिक जीवन में काफी उतार-चढ़ाव हुआ। यह सामंतवाद के अवसान का काल था; साथ ही नए मूल्यों के निर्माण का काल भी। जैसे ही लोगों के मन में बसी आजादी की भावना के कार्यान्वयन का अवसर आया, समाजार्थिक विसंगतियाँ भी मुखर होने लगीं। ‘किनारे के लोग’ में इन्हीं तथ्यों को उजागर किया गया है। दलित-चेतना पर आधारित इस उपन्यास में सामाजिक संश्लिष्टता को उद्घाटित करते हुए रैयतदारी प्रथा और बंधुआ मजदूरी के टूटते तिलिस्म को दिखाया गया है। नि:संदेह जमींदारी प्रथा के अवसान और रैयतों के नाम जमीन होने की प्रक्रिया का इसमें यथार्थ चित्रण है।
दूसरे उपन्यास ‘कित आऊँ कित जाऊँ’ में लेखक ने कोसी कछारों पर बसे मल्लाहों और गोढ़ियाओं के सामाजिक-सांस्कृतिक एवं अभावजन्य वैषम्य परिस्थितियों को यथा-तथ्य उजागर किया है। कोसी क्षेत्र की ये दोनों श्रमशील जातियों का जीवन जल पर ही आश्रित था। सामंतवाद का अस्त हो रहा था और लोकतन्त्र का उदय हो रहा था। ऐसे संक्रमणकालीन समय में अथक परिश्रम करने वाले इन दोनों जातियों के दु:ख-दर्द, हँसी-खुशी, जीवन-शैली, पर्व-उत्सव, संघर्ष और समस्याओं का लेखक ने बड़ा ही सजीव चित्रण किया है। यातायात के साधनों से रहित एवं अन्यान्य सुविधाओं से वंचित सुदूर ग्राम्यांचल में बसे श्रमजीवियों की आर्थिक समस्याओं का स्वाभाविक वर्णन उपन्यासकार की लेखन-कला का विशिष्ट उदाहरण है। कहना न होगा शालिग्राम के कथा-साहित्य में कोसी अंचल के विगत साठ वर्षों की संचित अनुभूतियों की सशक्त उपस्थिति हुई है। इन उपन्यासों में लेखक ने कोसी अंचल की ग्रामीण भाषा एवं ग्रामीण मुहावरों का बड़ा ही सटीक प्रयोग किया है। उन्होंने अपने जातीय परिवेश में मैथिली, अंगिका एवं भोजपुरी शब्दों का समयानुकूल प्रयोग किया है। इस सम्बन्ध में लेखक का कहना है, “मैंने गाँव की धरती पर खासकर कोसी नदी के मुहाने से घिरे गाँव तथा टोलों के निम्न, मध्यम एवं उच्चवर्गीय चरित्रों की उठा-पटक स्थितियों को हिन्दी के साथ-साथ बिहार की सहचरी भाषाएँ मैथिली, अंगिका तथा भोजपुरी का प्रयोग करते हुए, चरित्रों के वस्तुनिष्ठ एवं आत्मनिष्ठ पहुँच को समायोजित करने का भरसक प्रयास किया है।”
कथा-साहित्य सृजन के साथ-साथ शालिग्राम जी रिपोर्ताज लेखन की ओर भी प्रवृत्त हुए। इनका पहला रिपोर्ताज ‘धर्मयुग’ के 21 नवम्बर 1971 के अंंक में प्रकाशित हुआ। शीर्षक था–‘अटपट बैन मोरंगिया रैन’। ‘धर्मयुग’ के अतिरिक्त ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ और ‘दिनमान’ में भी इनके रिपोर्ताज प्रकाशित हुए। रचनाकालीन समय में इनके रिपोर्ताजों की खूब चर्चा हुई, लेकिन सर्वाधिक चर्चा हुई सन् 1976 ई. में एक अति पिछड़े ग्रामीण क्षेत्र में इनके द्वारा आयोजित ‘अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन’ के रिपोर्ताज की, जो ‘धर्मयुग’ में छपा था। 6 मार्च 1977 ई. को छपे इस रिपोर्ताज का शीर्षक था– ‘आम के पेड़ पर रंग-बिरंगी चिड़ियाँ और धरती पर साहित्य चर्चा।’ सन् 1976 ई. में जब पूरे देश में आपातकाल की स्थिति लागू थी, तब इन्होंने अनेकानेक छोटी बड़ी नदी-नालों से घिरे खगड़िया जिला के ‘बेलदौर’ जैसे हाशिए पर पड़े ग्राम्यांचल में ‘शहर से गाँव चलो’ बैनर के अन्तर्गत अखिल भारतीय साहित्य-सम्मेलन का भव्य आयोजन किया था। उन्हीं दिनों उस क्षेत्र में जन सुविधा हेतु कोसी नदी पर पीपा पुल का निर्माण किया गया था। यातायात के साधनों से रहित रास्ते की कठिनाइयों के बावजूद दो दिवसीय परिचर्चा गोष्ठी तथा कवि सम्मेलन अत्यंत सफल रहा। वरिष्ठ कवि विद्याकर कवि, जो उन दिनों लोक निर्माण मंत्री थे, ने कार्यक्रम का उद्घाटन किया था। कार्यक्रम में नागार्जुन, आरसी प्रसाद सिंह, लाल धुआँ, रॉबिन शॉ ‘पुष्प’, डॉ. विष्णु किशोर झा ‘बेचन’ आदि अनेक वरिष्ठ कवि एवं लेखकों ने भाग लिया था, जिसकी पत्र-पत्रिकाओं में काफी चर्चा हुई थी।
इन्होंने ‘बेलदौर’ में 24 जनवरी 2006 ई. को नव बिहार निर्माण के क्रम में ‘शहर से गाँव’ नहीं बल्कि ‘गाँव में शहर’ लाने हेतु एक भव्य कवि सम्मेलन का आयोजन किया था। उक्त आयोजन की रिपोर्टिंग देते हुए ‘जागरण’ प्रतिनिधि श्री निर्भय झा ने लिखा था, “कोसी की कलकल छल-छल धारा के बीच निरन्तर सृजन में रत जीवन के सत्तर बसंत देख चुके ‘किनारे के लोग’ के शालिग्राम का मन अभी नहीं थका है। यानी आज की तारीख में भी वे सक्रिय हैं। उनकी माने तो कल का गीत लिए होठों पर आज लड़ाई जारी है। उन्होंने खगड़िया के सर्वाधिक पिछड़े प्रखंड बेलदौर में एक विराट कवि सम्मेलन का आयोजन कर अपनी सक्रियता का परिचय दिया। पचौत गाँव को अपनी कर्मभूमि बनाये श्री शालिग्राम की आँखों में जीवन के प्रति अगाध राग की लकीरें स्पष्ट झलकती हैं। वैसे उनकी कर्मभूमि का हिस्सा सहरसा भी रहा है। लेकिन वे कभी कोसी से अलग नहीं हुए। कोसी का सच्चा पुत्र। इसलिए कोसी के इलाके का जगजीवन उनकी कहानियों एवं उपन्यासों में रह-रहकर आ जाता है।”
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डॉ. वरुण कुमार तिवारी
जन्म : 1946 ई. l शिक्षा : एम.ए., बी.एल., पीएच. डी. l प्रकाशित कृतियाँ : कविता संग्रह – तीसरी दुनिया के लिए (2002); अपने होने का एहसास (2007); कुछ दूर रेत पर चलकर (2009); क्षितिज पर एक पगडंडी (2015); चयनित कविताएँ (2024) l समीक्षा-ग्रन्थ (मौलिक) – मधुकर गंगाधर की साहित्य-साधना (2013); पाठान्तर (2013); सृजन समीक्षा के अन्तर्पाठ (2015); कोसी अंचल का सृजनात्मक हिन्दी साहित्य, (कहानी खंड 2019); मधुकर गंगाधर का साहित्य : समग्र मूल्यांकन (2022); कोसी अंचल का सृजनात्मक हिन्दी साहित्य (उपन्यास खंड 2024); कोसी के हिन्दी शब्द-शिल्पी (2024) l सम्पादित ग्रन्थ : हरेराम समीप : व्यक्ति और अभिव्यक्ति (2009); मधुकर गंगाधर की कहानी-यात्रा (2015); मधुकर गंगाधर का उपन्यास साहित्य (2017); मधुकर गंगाधर के नाटक (2018); आदमकद आईना : टुकड़ों में (मधुकर गंगाधर के साक्षात्कार, 2019); विनय कुमार चौधरी : कृति समाकलन (2020); विश्व वेदना के उद्गाता : जनार्दन प्रसाद झा ‘द्विज’ (2022); मधुकर गंगाधर की प्रतिनिधि कहानियाँ (2023); प्रताप साहित्यालंकार की प्रतिनिधि कहानियाँ (2023) l अन्य : डॉ. वरुण कुमार तिवारी की कविताओं पर डॉ. आनन्द प्रकाश त्रिपाठी द्वारा सम्पादित ‘प्रतिरोध की ऊर्जस्वल चेतना’ (2015) आलोचना ग्रन्थ प्रकाशित l पत्रिकाएँ : आजकल, समकालीन भारतीय साहित्य, साहित्य अमृत, साक्षात्कार, उत्तर प्रदेश, उद्भावना, उन्नयन, युद्धरत आम आदमी, काव्यम्, युगीन काव्या, जनपथ, प्रेरणा, नयी धारा, लोक गंगा, अक्षर पर्व, अलाव, सम्बोधन, शुक्रवार, राष्ट्रीय सहारा, नवभारत टाइम्स, परिषद् पत्रिका (बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्), अक्सर, अभिनव मीमांसा, अनभै साँचा, राजभाषा भारती, राजभाषा रूपाम्बरा, युग तेवर, किताब, प्रसंग, संवदिया, समय के साखी इत्यादि पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ और समीक्षाएँ प्रकाशित l आकाशवाणी के दिल्ली, पटना, दरभंगा आदि केन्द्रों से कविताएँ प्रसारित। आकाशवाणी आर्काइव के लिए कथाकार मधुकर गंगाधर के साथ तीन घंटे की बातचीत। कुछ कविताओं के मराठी, गुजराती एवं मैथिली अनुवाद प्रकाशित l पुरस्कार : काव्य साधना पुरस्कार (महाराष्ट्र दलित साहित्य अकादमी, 2003); रघुवीर सहाय राष्ट्रीय शिखर साहित्य सम्मान (साहित्यकार संसद, बिहार, 2003); विद्यासागर (विक्रमशिला हिन्दी विद्यापीठ, बिहार 2010) एवं अम्बिका प्रसाद दिव्य पुरस्कार (भोपाल, 2017) l सम्पर्क : प्लॉट नम्बर 4/383 प्रथम तल, सेक्टर-4, वैशाली, गाजियाबाद-201010, उत्तर प्रदेश l मो. 8860478066 l ई-मेल : barunktiwari@gmail.com
शालिग्राम
जन्म : 21 मई, 1934 ई. – बिहार का प्रलयंकारी भूकंप का साल – मुंगेर (अब खगड़िया) जिला अंतर्गत पचौत गाँव में। किन्तु साहित्यिक विरासत सहरसा की धरती पर मिली; जहाँ साहित्यिक गोष्ठी में बाबा नागार्जुन, रेणु, राजकमल चौधरी इत्यादि वरिष्ठ कथाकारों का प्रायः समागम होता था; जहाँ से 1963 ई. में ‘पाही आदमी’ कहानी संग्रह का प्रकाशन हुआ। ‘पाही आदमी’ के सम्बन्ध में रेणु ने लिखा, “हिन्दी साहित्य में आंचलिक लेखन और आंचलिकता एक विवाद का विषय बना हुआ है। शालिग्राम का कथा संग्रह ‘पाही आदमी’ इस चर्चा-परिचर्चा के लिए प्रचुर सामग्री लेकर प्रकाशित हो रहा है। एक-एक कहानी रस और वैचित्र्य से परिपूर्ण है। नवागत लेखक की प्रथम रचना में आंतरिकता का तनिक भी अभाव नहीं है। इसलिए सभी कहानियाँ हृदयाग्राही हैं।” जनकवि नागार्जुन ने भी उस संग्रह पर टिप्पणी दी थी, “कोसी तटबंधों से लगे अंचलों में नया संसार आबाद होता जा रहा है। तरूण कथा-शिल्पी शालिग्राम की पैनी निगाहों से छनकर उन अंचलों का जीवन-रस हमें अनूठा स्वाद देता है।”
शालिग्राम की पहली कहानी ‘इजोतिया’ है जो 1963 ई. में ‘धर्मयुग’ में छपी थी। तदन्तर ‘नई कहानियाँ’, ‘सारिका’ आदि प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में भी इनकी कहानियाँ छपने लगीं। कहानी के साथ ही इनके लिखे रिपोर्ताज भी ‘धर्मयुग’, ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ एवं ‘दिनमान’ में छपने लगे। ‘अटपट बैन मोरंगिया रैन’, शीर्षक इनका रिपोर्ताज 21 नवंबर 1971 ई. को ‘धर्मयुग’ में प्रकाशित हुआ था। कुछ दिनों बाद ही यह रिपोर्ताज राजस्थान के अजमेर माध्यमिक शिक्षा बोर्ड की दसवीं कक्षा के पाठ्यक्रम में स्वीकृत कर ली गई थी।
‘पाही आदमी’, ‘सात आंचलिक कहानियाँ’, ‘नई शुरुआत’ तथा ‘शालिग्राम की आंचलिक कहानियाँ’ (कहानी संग्रह), ‘किनारे के लोग’, ‘कित आऊँ कित जाऊँ’ तथा ‘मैलो नीर भरो’ (उपन्यास), ‘सांघाटिका’ तथा ‘आँगन में झुका आसमान’ (कविता-संग्रह), ‘देखा दर्पण अपना तर्पण’ (आत्मकथा), ‘अटपट बैन’ (रिपोर्ताज-संग्रह), ‘घोघो रानी कित्ता पानी’ (कोसी अंचलीय लोक जीवन का चित्रण), तथा ‘पत्रों के द्वीप में’ (साहित्यकारों के पत्र) उनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं।
–संपादक
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