







Sariman Poot (Bagheli Kahaniyan avam Laghukathain) / सरिमन पूत (बघेली कहानियाँ एवं लघुकथाएँ)
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पुस्तक के बारे में
कहानी का जन्म भारत में हुआ है। यहीं से कहानी निकल कर दूर देशों में गयी। कहानी कहने और सुनने की यह कला हमारे लोक में विकसित हुई। आगे चलकर यही कला कहानीकारों के लिए मूल आधार बनी। भारत कथाओं का देश है। वेद, पुराण, रामायण, महाभारत जैसी कहानियों से यह देश शुरू से समृद्ध रहा है। जिस प्रकार आदिकवि महर्षि बाल्मीकि की ‘यत्क्रौंच मिथुनादेकं…..’ की स्वस्फूर्त पंक्तियाँ, लोक की संवेदना और करुणा से अनुप्राणित होकर काव्य का आधार बनीं, उसी प्रकार लोक-संवेदना का रस लेकर हमारी कहानियाँ भी गति करती चलती हैं।
साहित्य का मुख्य उद्देश्य लोक कल्याण है। नारद को दुनिया का पहला पत्रकार माना जाता है। पूरी दुनिया में घूमते हुए, आम जनता के सुख-दुख की चिन्ता करते हैं। यही वजह है कि उन्हे सर्वाधिक लोकवृत्त का ज्ञाता माना जाता है। एक कहानीकार तब तक कोई कहानी नहीं लिख सकता, जब तक वह किसी की करुणा से द्रवित होकर अपने हृदय में उसे अनुभव नहीं करता। प्रेमचंद इसीलिए बड़े कथाकार माने जाते हैं, क्योंकि उन्होंने लोक की पीड़ा को अपनी पीड़ा समझा और कागज पर ठीक उसी तरह उतारा जिस प्रकार समाज को देखा परखा।
हिन्दी भाषा की जड़ों को खाद-पानी देने वाली अनेकानेक बोलियों में से ‘बघेली’, पूर्वी हिन्दी की एक महत्त्वपूर्ण बोली है। प्रत्येक बोली की तरह ही बघेली बोली और इसके अंचल के अपने संस्कार हैं, सामाजिक सरोकार हैं, उनका सांस्कृतिक वैशिष्ट्य भी है। कोई कितनी भी तरक्की कर ले, किसी भी परिवेश में रहता हो, किन्तु उसकी माटी की सुगन्ध उसके अन्दर किसी न किसी कोने में संरक्षित अवश्य रहती है। यही कारण है, कि अनेक रचनाकारों ने लोक साहित्य के माध्यम से अपनी अमिट पहचान बनायी है। रचनाकार का मिट्टी से यही जुड़ाव उसकी बोली के साहित्य को ऊँचाई तक ले जाने का हेतु बनता है।
इन्दिरा अग्निहोत्री भी एक ऐसी ही रचनाकार हैं, जिन्हें अपनी मिट्टी से अपनी बोली से और अपनी संस्कृति से लगाव है। बघेली की साहित्यिक परम्परा को अनेक रचनाकारों ने विविध विधाओं में लेखनी चलाते हुए आगे बढ़ाया है। इसी क्रम में इन्दिरा अग्निहोत्री ने अपनी बघेली के प्रति प्रेम और अपने दायित्व का निर्वाह करते हुए, बघेली कहानियों का सृजन किया है। बघेली बोली की साहित्यिक परम्परा में गद्य का विकास बहुत बाद में हुआ। बघेली में कहानी लेखन की शुरूआत हालांकि 1980 के आसपास से हो चुकी थी। कुछ कहानी संग्रह प्रकाशित भी हुए, किन्तु इस गति को सन्तोषप्रद नहीं कहा जा सकता। बघेली कथा-साहित्य को गति देने में इन्दिरा अग्निहोत्री का यह संग्रह ‘सरिमन पूत’ एक सार्थक प्रयास कहा जाएगा।
इन्दिरा अग्निहोत्री के कथा संग्रह ‘सरिमन पूत’ की कहानियों को पढ़ते हुए यह सहज ही आभास होता है, कि लेखिका की जड़ें समाज में बहुत गहराई तक समायी हुई हैं। मेरी यह मान्यता है, कि कोई भी कहानीकार या रचनाकार तभी सफल कहानीकार हो सकता है, जब उसे समाज के विभिन्न अंगों की जानकारी हो। उदाहरण के तौर पर संग्रह की एक कहानी है- ‘अनमोल सुक्ख’। इस कहानी में ठकुराइन प्रतिभा सिंह ने अपने पति ठाकुर हीरा सिंह को शराब के दुर्व्यसन से बचने के लिए न केवल समझाया, अपितु लड़ाई-झगड़ा करके मायके भी चली गयीं। जब वही हीरा सिंह, शराब पीकर जान गँवा चुके व्यक्ति के अनाथ बच्चों को देखते हैं, तब उन्हें अपनी पत्नी की बातें याद आती हैं, उनका अन्तरमन जाग्रत होता है। दरअसल जीवन की यही सच्चाई है, कि हमें कहीं से भी सीखकर जीने की कला हासिल करनी चाहिए।
इन्दिरा अग्निहोत्री एक पारिवारिक महिला भी हैं। उन्हें परिवार की पृष्ठभूमि की जानकारी अच्छी तरह से है। ‘मैभा महतारी’ कहानी में ममता बिटिया के मन में मैभा माँ के प्रति जो धारणा थी, इस कहानी में उस भ्रम को तोड़ते हुए, एक नयी दिशा दिखायी है। जो औरत ममता की सौतेली माँ बनकर आती है, वही ममता के सुख के लिए अपनी कोख तक सूनी रखती है और ममता को ही बेटी मान कर उसे डॉक्टर बनाने में सफल होती है। विशेष रूप से ध्यानाकर्षण करने वाली यह कहानी, निरन्तर विमर्श की माँग करती है।
‘पछिताव’ कहानी में, लेखिका ने कन्या भ्रूण हत्या पर सटीक टिप्पणी की है। बेटी की चाहत को समाज नकारता आया है। समाज की नजर में बेटा ही प्रमुख होता रहा है, आज भी है। इस अवधारणा में आज बदलाव की माँग को स्वर देने का काम इन्दिरा अग्निहोत्री ने इस कहानी में किया है। ‘पछिताव’ कहानी एक सार्थक सन्देश देकर अपनी सार्थकता सिद्ध करती है।
शालीन भाषा के साथ संग्रह की कहानियाँ स्त्री विमर्श के लिए एक बड़ा मंच प्रदान करती हैं। संग्रह की कई कहानियों में स्तब्ध कर देने वाली घटनाएँ हैं, लेकिन वह सनसनी नहीं फैलातीं, अपितु गम्भीर बात को इशारे से कह कर चली जातीं हैं। ‘सही निरनय’ कहानी में डॉ. सुमित को लेखिका ने आईना दिखाया है। सुमित अपनी पत्नी सरिता को धोखे में रखकर अपनी सहकर्मी डॉ. सुधा को दिल दे बैठते हैं, जबकि वह पहले से ही दो बच्चियों के पिता हैं। यह रहस्य जब डॉं. सुधा को मालूम पड़ता है, तब सुधा न केवल सुमित को शादी से इंकार करती है, अपितु यह लिखकर शर्मिन्दा भी करती है, कि जब तुम अपनी पत्नी सरिता के नहीं हो सकते, तो मेरे कैसे हो सकोगे?
संग्रह की महत्त्वपूर्ण, शीर्षक कहानी ‘सरिमन पूत’ वर्तमान की एक सच्चाई है। ‘सरिमन पूत’ का कथानायक जो मास्टर है, वह अपनी पूरी जिन्दगी चार बेटों और तीन बेटियों के लिए समर्पित करता है, लेकिन जब उसकी सेवा की बारी आती है, तब बेटे उसकी उपेक्षा ही नहीं करते, बल्कि बेटियों को भी बाप की मदद नहीं करने देते। उलटे बेटियों को अपमानित भी करते हैं। लेखिका ने बदलते दौर के इस तथ्य को बड़ी गम्भीरता से पकड़ा है। ‘सरिमन पूत’ आज के समय के लिए जरूरी कहानी है।
‘आपन-आपन सोच’ कहानी में नीलम एक साधारण सी लड़की, एक साधारण घर में ब्याही जाती है। भोगवादी संस्कृति के दौर में नीलम को उसका साधारण रहन-सहन वाला पति नहीं भाता। वह पूर्व प्रेमी राहुल के साथ मंदिर में पुनर्विवाह करती है, लेकिन नीलम समझ नहीं पाती कि समाज जिस तरह दिखता है, उस तरह होता नहीं। परिणामतः एक दिन नीलम स्वयं को एक ऐसे चौराहे पर खड़ी पाती है, जहाँ उसको सिर्फ मौत मिलती है।
इन्दिरा अग्नहोत्री ने अपनी कहानियों में बघेली के ठेठपन को गम्भीरता से पकड़ा है, तो समय के साथ संवाद करने में भी उन्हें सफलता मिली है। ‘गरीबन के भगमान’ लघुकथा में नेता जी से दोहरे चरित्र को ईमानदारी से उजागर किया है। उनके बघेली के शब्द आम जीवन में प्रचलित हैं। ‘बिसुआस के खून’ लघुकथा में जो पति, पत्नी के लिए भगवान तुल्य होता है वही अपनी पत्नी के साथ बड़ा छल करता है। ‘हमहूँ चलब’, ‘बेलेंटाइन डे’, ‘परम्परा’, ‘अलउँजार’ आदि लघुकथाएँ इस बात की गवाही देती हैं, कि इन्दिरा अग्निहोत्री ने मात्र कल्पना का कलेवर तैयार नहीं किया है। उन्होंने अपने परिवार-समाज और देश की समकालीन परिस्थितियों, समस्याओं, विद्रूपों को बहुत करीब से देखा-परखा है और सत्य को सामने ले आने का साहस दिखाया है। इसे निस्सन्देह इन्दिरा अग्निहोत्री की रचनात्मक ईमानदारी कहा जायेगा।
— डॉ. विवेक द्विवेदी
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