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Sahitya kai Naye Pariprekshya / साहित्य के नये परिप्रेक्ष्य

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Language: Hindi
Pages: 200
Book Dimension: 5.5″x8.5″
Format: Hard Back

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पुस्तक के अंश

‘समरशेष है’ (1999) झारखंड आन्दोलन पर लिखा गया अब तक का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास है। यह उपन्यास संथाल आदिवासियों के महाजनी शोषण और सरकारी परियोजनाओं से होने वाले विस्थापन के दर्द को भी सामने लाता है। यह उपन्यास आठवें दशक में शिबू सोरेन द्वारा महाजनों के खिलाफ चलाये गये धानकाटिया आन्दोलन को प्रमुख विषय बनाता है। राकेश कुमार सिंह द्वारा लिखा गया उपन्यास ‘जहाँ खिले हैं रक्त पलाश’ (2003) पलामू जिले के आदिवासियों पर ठोस टिप्पणियाँ करता है। ये टिप्पणियाँ यह जानने के लिए पर्याप्त हैं कि आधुनिक ‘सभ्य’ समाज आदिवासियों को किस नजरिए से देखता है, इनका कितने तरीकों से शोषण कर सकता है, कितने ‘गम्भीर’ तरीकों से इनका मजाक उड़ा सकता है। इसी लेखक का अगला महत्त्वपूर्ण उपन्यास ‘पठार पर कोहरा’ (2003) है। यह मुंडा आदिवासियों पर महाजनों, ठेकेदारों के द्वारों किये जाने वाले सूक्ष्म अत्याचार को सामने लाता है। यह उपन्यास हार मान चुके ‘बिरसाइतों’ को फिर से सोचने को मजबूर करता है। इसकी महत्त्वपूर्ण स्थापना यह है कि प्रत्येक बाहरी ‘दिकू’ नहीं होता है। सन् 2005 में सिदू-कान्हू के संथाल विद्रोह ‘हूल’ (1855) को विषय बनाकर दो उपन्यास लिखे गये हैं। एक मधुकर सिंह ने लिखा है– ‘बाजत अनहद ढोल’ और दूसरा राकेश कुमार सिंह ने लिखा है– ‘जो इतिहास में नहीं है’। दोनों ही लेखकों की लगभग समान मान्यताएँ हैं, लेकिन ‘जो इतिहास में नहीं है’ काफी मेहनत से लिखा गया उपन्यास है। इसमें ‘हूल’ की घटनाओं को पूरे सन्दर्भों के साथ, पर्याप्त गहराई में जाकर, पूरे संवेदनात्मक ढंग से लिखा गया है। इसमें व्यक्त हारिल मुर्मू व लाली की प्रेमकथा भी पूरे भावनात्मक ढंग से आदिवासी लोक-संस्कृति के साथ सामने आती है। कोई भी प्रसंग मुख्य कथा के साथ अलग से चिपकाया हुआ नहीं लगता है। ‘मिशन झारखंड’ (2006) विनोद कुमार का दूसरा उपन्यास है। यह उपन्यास झारखंड की वर्तमान राजनीति पर केन्द्रित है। इसमें दो बातें मुख्यत: सामने आयी हैं। एक तो यह कि झारखंड की आदिवासी राजनीति गैर-आदिवासी हितों को पूरा कर रही है।

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स्त्री हो, दलित हो, आदिवासी हो, दिव्यांग हो, किन्नर हो, वृद्ध हों या नयी पुरानी पीढ़ी के प्रतिनिधि, ये सभी जानते और मानते हैं कि पद और सत्ता की प्राप्ति आदर्शवादी सिद्धांतों पर चलकर या नैतिक मूल्यों की रक्षा करते हुए प्राप्त नहीं किए जा सकते। राजनीति समाज को इस तरह आच्छादित किए हुए हैं कि वह जीवन के हर अंग, हर कदम को प्रभावित करती है। लोकतंत्र की बुनियादी बातें संकीर्ण जातीयता और धार्मिकता के अंधे उन्माद में खो जाती हैं और उदारवाद, प्रगतिशीलता, मानववाद जैसे शब्द हवाई हो जाते हैं। सद्‍भावना और विश्वास के आपसी गठबंधन के स्थान पर एक-दूसरे के प्रति अविश्वास और दुर्भावना के भावों की वृद्धि हुई है। ऐसे कठिन समय में साहित्य के नये परिप्रेक्ष्य, नये दृष्टिकोण को सशक्त और स्पष्ट होना आवश्यक है। पक्षपात से मुक्त होकर, निर्भीक, नि:शंक होकर अभिव्यक्त होना ही सहज-सरल उपाय है।
समाज से दृष्टि पाकर समाज को नयी दृष्टि देता है। शिक्षा के व्यापक प्रचार-प्रसार ने भारतीय समाज के हर वर्ग को अंतरबाह्य से समृद्ध किया है। सरकारी योजनाओं की भरमार है। आरक्षण का प्रतिशत बढ़ता ही जा रहा है। दलितों पर विमर्श करते हुए ‘दलित’ शब्द के अर्थ की प्रासंगिकता पर विचार करने की आवश्यकता है। यह भी कि यह कब कहाँ किस वर्ग की पहचान बना है। सरकार आदिवासियों, किसानों और स्त्रियों के लिए अनेक तरह की योजनाएँ बनाकर उन्हें सुविधाएँ प्रदान कर रही है, सवाल लाभार्थियों का है कि वे किस तरह इसका उपयोग अपनी अंतरबाह्य समृद्धि के लिए करते हैं। वृद्धावस्था, किन्नर और दिव्यांग जैसे विषयों पर सरकार अब संवेदनशील होकर विचार कर रही है और उन्हें मूलभूत सुविधाएँ उपलब्ध करा रही है, फिर समाज में समस्याएँ खत्म क्यों नहीं होतीं? जनता का चरित्र भी विचारणीय है। 21वीं सदी का साहित्य इसी नये दृष्टिकोण से सम्पन्न-समृद्ध हो, पक्ष-विपक्ष दोनों ओर से सोचे-देखे-समझे और समझाए तब उसकी सार्थकता होगी। आश्वस्ति की बात यह है कि ऐसा हो रहा है।

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Description

डॉ. अंजु बाला

1 दिसंबर 1978 को हरियाणा के मिर्चपुर (हिसार) के एक शिक्षित किसान परिवार में जन्म। आरंभिक शिक्षा गांव में। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र से बी.ए., एम.ए., बी.एड. और पीएच.डी.। जर्मन भाषा और साहित्य का तीन वर्षीय पाठ्यक्रम तथा पत्रकारिता एवं जनसंचार में डिप्लोमा भी। दर्जनों शोध आलेख राष्ट्रीय – अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित। तीस से अधिक राष्ट्रीय – अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों में शोध पत्रों की प्रस्तुति। अंतरानुशासिक पूर्व समीक्षित शोध पत्रिका ‘बोहल शोध मंजूषा’ के दो अंकों का संपादन। दिल्ली विश्वविद्यालय के श्री गुरु नानक देव खालसा कॉलेज में 2011 से अध्यापन। प्रकाशित कृतियाँ : ‘नारीवाद की हिंदी कथा’, ‘हिंदी साहित्य विमर्श के नये आयाम’, ‘साहित्य, मीडिया और आजीविका’, ‘नामवर सिंह का संसार’, ‘हिंदी साहित्य में दलित विमर्श’, ‘साहित्य के नये परिप्रेक्ष्य’ और ‘हिंदी साहित्य और दिव्यांग विमर्श’। संप्रति : असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, श्री गुरु नानक देव खालसा कॉलेज (दिल्ली विश्वविद्यालय) देव नगर, करोलबाग, नई दिल्ली-110005

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