

Saanjh Ka Saphar / साँझ का सफर -Aged Discourse, Vraddh Vimarsh
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अनुक्रम
निवेदन
सैद्धांतिकी
1. दूसरी दुनिया के वृद्ध
2. बेदखली के वृद्ध
3. वृद्ध, वृद्धावस्था और वृद्धाश्रम
4. वृद्धावस्था में विदेही चिन्तन
5. अन्तिम सच
6. जरूरत के दादाजी
7. वृद्ध महिला एक लैंगिक विवेचन
8. वृद्धावस्था भाग्यवान को मिलती है
कहानी साहित्य
9. बूढ़े का पैरोल पर छूटना
10. मंजिल क्या है?
11. पिता : घर की चौखट पर बिखरते सपने
12. माँ : जिसे आसानी से भुला दिया जाता है
13. बेटा : जिसके पास समय नहीं है
14. मुखिया की विदाई
15. खालीपन के साथी
16. घर से श्मशान तक
17. सेवानिवृत्ति के मायने
18. समय का क्या करें?
19. बुढ़ापे के साथी
20. दादी का साया
उपन्यास साहित्य
21. बहुत जी लिए अपनों के लिए अब…
22. हर दिन आशीर्वाद है
23. अन्तिम समय का जीवन
24. कुत्ते की पसन्द…
25. वृद्धों का कैसा हो भविष्य?
26. वृद्धत्व की तैयारी
27. अन्तिम सफर
28. मृत्यु पर विमर्श
संदर्भ ग्रंथ सूची
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Description
Description
रमेश चन्द मीणा जी एक सजग सामाजिक प्रहरी हैं। यह गुण उनके व्यावहारिक स्वभाव का हिस्सा है इसलिए इनके शब्द बड़े मार्मिक और संवेदना से भरे होते हैं। इनकी पुस्तक ‘संवेदनहीनता के शिकार वृद्ध’ के शीर्षक और इनमें शामिल लेख यह बताते हैं कि मनुष्य अपना अवमूल्यन खुद करने पर उतारू है तो उसे क्या कोई मनुष्य बनाएगा! आजकल की पीढ़ी की बात तो जाने दीजिए पुरानी पीढ़ी के समय से जो वृद्ध जनों के साथ मानवीयता का क्षरण हुआ है, उसकी कोई सीमा तय नहीं है। पुस्तक पढ़ते हुए लगता है कि हम मनुष्य के रूप में अपनी गिरावट ही तय नहीं कर पा रहे हैं कहाँ जाकर रुकेंगे? इस गंभीर पुस्तक के गंभीर लेखक रमेश चन्द मीणा जी को इस गंभीर विषयक पुस्तक लिखने के लिए और गंभीरता से सोचने के लिए बहुत-बहुत बधाई और शुभ कामनाएँ। आशा है कि इस पुस्तक के गंभीर पाठक पुस्तक पढ़ने के बाद मीणा जी के विचार को कुछ न कुछ विमर्श के केन्द्र में लाएँगे।
– निर्भय देवयांश, संपादक, लहक पत्रिका
वृद्ध इस समाज का आवश्यक और सम्माननीय हिस्सा रहे हैं। परिवार तभी मुकम्मल होता है जब उस परिवार का कोई एक अदद मुखिया उसे संचालित करता है। क्या आज ऐसा हो रहा है? यह सवाल जवाब माँगता है, जवाब देने से पहले हम बगले झाँकने लगते हैं।
वृद्ध होने पर वह दूसरी दुनिया बसा लेता हो, ऐसा कुछ होता नहीं है पर बहुत हद तक यही सच है कि वृद्धों की अपनी दुनिया होती है, जिसमें वे जीते हैं, शेष जीवन भोगते हैं। वृद्ध की दुनिया किससे अलग है? जाहिर है युवाओं से। युवा बढ़ता खून और दूसरा सूखता, घटता व निचुड़ता खून है। युवा अपनी चढ़ती जवानी में बहुत-सी बातों पर गौर नहीं करते सो अपने बुजुर्गों की मान-मर्यादा नजरअंदाज होती हुई एक दिन जब शक्ति उनके हाथ से निकल चुकी होती है तब उन्हें घर में कहीं एक कोना भी नसीब नहीं होता है। उन्हें किसी एक कोने में या वृद्धाश्रम में यूँ छोड़ दिया जाता है जैसे वे कोई घर का फालतू सामान हैं जिसे दीपावली पर आने वाले कबाडि़ये को सस्ते में दे देना है या इतना भी नहीं कइयों के साथ इससे भी बदतर बीतती है। उन्हें घर से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। इनमें से ही कुछ वृद्धाश्रम में शरण लेते हैं। बहुत से ऐसे हैं जो सड़क पर दम तोड़ने पर मजबूर होते हैं।
वृद्धाश्रम पाश्चात्य अवधारणा रही है। भारत में आज भी वृद्धाश्रम को भारतीय संस्कृति के खिलाफ मानते हैं जैसे उदारीकरण में घट रही हर घटना को भारतीय संस्कृति का विरोधी माना अवश्य जाता है पर अधिकांशत: करते वैसा ही हैं। ठीक इसी तर्ज पर वृद्ध समाज के हाशिए पर चले जाने/रहने या समय काटते रहने पर इनके इस पीड़ा-दर्द को कौन समझे? इनके अपने कहे जाने वाले औरत, पुत्र-पुत्री जिन्हें वारिसाना हक मिलते हैं। वे सब कुछ हासिल करना अपना हक समझते हैं पर अपनी जिम्मेदारी से मुँह मोड़ लेते हैं। ऐसा क्यों हो रहा है? क्या हम पूरी तरह पश्चिमी रंग में रंग चुके हैं? रंग कभी इंगलैण्ड का चढ़ रहा था अब अमेरिका का चढ़ रहा है सो हम औद्योगिक युग में जी रहे हैं। वे एक उम्र के बाद वृद्धाश्रम में चले जाते रहे हैं आज वही सब भारत में घटित हो रहा है। फलतः जब प्रभुदत्त शर्मा सत्तर के होने पर ‘सत्तर के पार एक दूसरा संसार’ लिखते हैं तो कुछ बात समझ में आती है।
वृद्धों का दूसरा संसार वैसे हमेशा से रहा है पर वर्तमान में यह संसार अधिक दुखदायी, त्रासद और कष्टमय हो गया है। इस कष्ट के पीछे बेशक अपनी परम्पराओं से मुँह मोड़ना, भूलना और अपने सुख के पीछे अंधे होकर दौड़ लगाना है। तभी जिन्दगीभर गधे की तरह घर का भार ढोने वाला मुखिया घर की चौखट से बाहर कर दिया जाता है। साठ के दशक में उषा प्रियंवदा की ‘वापसी’ के नायक के साथ यही घटित होता है। तब भले ही इस कहानी को पाश्चात्य रंग में रंगी कहा गया था पर आज कोई भी पाठक इसे पढ़कर अपने आस-पास की कहानी कहेगा। अब जब रजा जाफरी की कहानी ‘कबाड़’ आने पर सहजता से लिया जाता है।
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