







Ristan kair Nibah (Stories) / रिस्तन केर निबाह (कहानी संग्रह)
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पुस्तक के बारे में
बोली में लिखने वालों की सहज-स्वाभाविक शिकायत हो सकती है, कि जब कहानी बघेली में लिखी गयी है, तो भूमिका भी उसी बोली में लिखी जानी चाहिए। हम उनसे सहमत होते हुए कहना चाहते हैं, कि अन्य भाषा-भाषी भूमिका पढ़कर रचनाकार के लक्ष्य और उसके निहितार्थ को जानने-समझने के लिए खड़ी बोली हिन्दी में लिखना उपयुक्त मानते हैं। इसलिए यह भूमिका राष्ट्रभाषा हिन्दी में लिख रहा हूँ। बोली में कितना सामर्थ्य है, हम जानते व मानते हैं। इसीलिए अन्यों को अपनी बोली के सामर्थ्य को तलाशने-खोजने के लिए इन कहानियों का प्रणयन किया है। प्राक्कथन के माध्यम से हम अन्य बोलियों के समक्ष बेहतर ढंग से अपनी बात रख पाते हैं, ऐसा हमारा मानना है।
हमारी रिमही ‘बघेली’, ‘मैं’ के अहंकार से मुक्त है। वह ‘मैं’ की जगह ‘हम’ का समूहवाची भाव व्यक्त करती है। यह बोलियों की ही संवेदना है कि सूर, तुलसी, मीरा, कबीर, रसखान, रहीम की रचनाएँ कालजयी एवं हमारे जीवन के अनेक प्रसंगों की जीवन्त साक्ष्य हैं। रेणु, नागार्जुन की कहानियाँ पढ़ते-पढ़ाते हम शायद इसलिए द्रवित होते हैं, कि उसमें हमारा लोकजीवन है। बोली की कहानियों में करुणा, विवशता, संघर्ष का वर्णन देखा और भोगा हुआ यथार्थ है। हम कहानियाँ इसलिए लिखते और पढ़ते हैं, कि उसमें हमारे जीवन के अनेक सत्य दिखते हैं।
कहानी न तो पूरी तरह सत्यकथा है, न गल्प। न यथार्थ, न कल्पना बल्कि इन सबका मिला-जुला समन्वित रूप है, जिसमें हमारा और समाज का अक्स है, जिसे हम बेहतर बनाते हैं। निरन्तर छीजती या समाप्त होती जा रही संवेदनाएँ, टूटते सम्बन्ध, खत्म होते रिश्ते हमारे जीवन के लिए चुनौती हैं। इन्हें सहेजने, सँवारने, स्थापित रखने का दायित्व लेखकों का, खासतौर पर कहानीकारों का है।
…
किसी भी भाषा या बोली में, साहित्य की शुरूआत तो पद्य से होती है, किन्तु वह समृद्ध होता है गद्य से। इसी बात को महाकवि दण्डी ने बहुत गम्भीरता से अनुभव करते हुए उद्घोष किया था– गद्यः कवीनां निकषं बदन्ति।
संसार की अन्य भाषाओं की ही भाँति हिन्दी का भी सामर्थ्य उसकी बोलियों पर आश्रित है। यदि बोलियों को पृथक कर दिया जाय, तो कोई भी भाषा रेत के महल की तरह, पल भर में धराशायी हो जायेगी। इस तथ्य को समझते हुए हमें हिन्दी की रक्षा और उसके विकास के लिए, उसकी बोलियों को बढ़ावा देना होगा।
पूर्वी हिन्दी (अर्धमागधी) की एक बहुत महत्त्वपूर्ण बोली है– बघेली। इसे दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जायेगा, कि अवधी और छत्तीसगढ़ी के बीच फँसी बघेली बोली को आज तक वह स्थान प्राप्त नहीं हो सका, जिसकी वह अधिकारिणी है। आज के विकासवादी दौर में कमोवेश प्रत्येक बोली उपेक्षा का शिकार हो रही है।
बघेली बोली के विकास के लिए यद्यपि साहित्य प्रेमियों ने यथासाध्य प्रयास किये हैं, कर भी रहे हैं, किन्तु यह पर्याप्त प्रतीत नहीं होता। बोलियों और भाषा के लिए कुछ करने का दायित्व जिन पर है, वह भी इससे पल्ला झाड़ते नज़र आते हों, तब बघेली के गद्य के विकास के प्रति सजग होना और भी आवश्यक हो जाता है।
बघेली गद्य के विकास हेतु विधावार अभियान चलाने की महती आवश्यकता को देखते हुए, वर्ष 2023 को ‘बघेली कथा-साहित्य वर्ष’ के रूप में मनाने का निश्चय हुआ और बघेली कथा-साहित्य की दस पुस्तकों का एक ही वर्ष में प्रकाशन निश्चय ही उत्साहवर्धक कहा जायेगा।
डॉ. चन्द्रिका प्रसाद ‘चन्द्र’ इस अभियान की एक महत्वपूर्ण और सशक्त कड़ी के रूप में हमारे प्रेरणास्रोत के रूप में नज़र आते हैं। आपकी बघेली कहानियों का एक संकलन सन् 2008 में ‘थोर क सुक्ख’ शीर्षक से प्रकाशित हो चुका है। उनकी फाइलों में बन्द अनेक अप्रकाशित-अप्रसारित बघेली कहानियाँ थीं। ‘बघेली कथा-साहित्य वर्ष’ के इस अनुष्ठान में उन्होंने उन सबको खोज कर ‘रिस्तन केर निबाह’ शीर्षक से प्रकाशित कराने का जो निर्णय लिया, वह न केवल बघेली कथा-साहित्य के लिए, अपितु नयी पीढ़ी के रचनाकारों के लिए भी अनुकरणीय है।
बीस बघेली कहानियों के इस संग्रह में चन्द्र जी ने सामाजिक-पारिवारिक अन्तर्द्वन्द्वों का बहुत सूक्ष्मता से निरीक्षण करते हुए, उन्हें अपनी कहानियों के कथानक में पिरोया है। संग्रह की कहानियों में उनके अंचल की बघेली का स्वरूप झलकता है, तो उनकी कहन और शैली पाठक को बलात् पूरी कहानी पढ़वाने में समर्थ है।
‘बघेली कथा-साहित्य वर्ष’ के सप्तम् पुष्प के रूप में उनका कहानी संग्रह ‘रिस्तन केर निबाह’ न केवल बघेली कथा और गद्य के विकास में अग्रणी होगा, अपितु बघेली कथा-साहित्य के फलक पर दीर्घ काल तक पूरी धमक के साथ अपनी उपस्थिति का आभास कराता रहेगा। पाठकों के बीच उनके पहले कहानी संग्रह की ही भाँति समादृत होगा। ऐसा विश्वास है।
— डॉ. राम गरीब पाण्डेय ‘विकल’
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