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Paani Ki Kahani / पानी की कहानी
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Language: Hindi
Pages: 168
Book Dimension: 5.5″x8.5″
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अनुक्रम
- पानी की व्यथा
- पानी की कहानी
- जल
- जलचक्र
- पंच महाभूत में जल तत्व
- भारत में स्नान भी पर्व
- भारत की सर्वाधिक मान्य नदी – गंगा
- स्वच्छ जल की उपलब्धता बन रही – चुनौती
- जल प्रदूषण
- औद्योगिक इकाइयों से जल प्रदूषण
- अंधविश्वास, टोने टोटके से भी जल प्रदूषित
- सावधान! महासागरों में बढ़ रहा है कचरा
- भूजल का गहराता संकट
- क्यों सूखती जा रही हैं नदियाँ…
- झीलों तालाबों का संबंध भी है नदियों से
- लें पानी की पवित्रता का संकल्प
- सभ्यता संस्कृति की वाहक-नदियाँ
- दिल्ली की जीवनधारा है यमुना
- यमुना के खादर में प्रदूषित जल से खेती
- पर्यावरण में संतुलन का आधार हैं नदियाँ
- सरकार की महत्वपूर्ण योजना-जल जीवन मिशन
- उपभोक्तावादी मानसिकता से भी जल संकट
- बोतल में जल या नैनोप्लास्टिक
- रिवर फ्रंट की संकल्पना
- दलदलीय भूमि (वेटलैंड)
- बाढ़ से निजात दिलाने में सहायक होते हैं तालाब झीलें
- रख रखाव के अभाव में सूख रहे हैं तालाब
- वर्षा जल संचयन की पुरानी परंपरा
- वर्षा की बूंदें अमृत हैं
- जल प्रबंधन अपरिहार्य
- ल के संबंध में भ्रांतियाँ
- वाराणसी में असि और वरुणा की करुणा
- जल भराव समस्या या ….
- सघन वृक्षारोपण से जल वृद्धि
- जलवायु परिवर्तन का प्रभाव
- जल के स्रोत ही बन गए तीर्थ
- आरण्यक संस्कृति में पानी का महत्व
- समझें पर्वों पर जल का महत्व
- अनुकरणीय प्रयोग-आधा गिलास पानी
- जल आंदोलन – जन आंदोलन
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Description
Description
इसी पुस्तक से ….
- प्रथम विश्व युद्ध अथवा द्वितीय विश्व युद्ध नदियों अथवा पहाड़ों के मध्य नहीं हुए। दुनिया के अनेक देशों में आतंकवाद हिंसक जंगली जानवरों यथा सिंह, बाघ, घड़ियाल आदि ने नहीं फैलाया।
- नदियों पर दूसरा सबसे बड़ा आक्रमण राजनीतिक सांठगांठ में बाहुबलियों, भू माफियाओं द्वारा हो रहा है।
- नदियाँ किसी की नहीं और विडंबना कि अधिकार सभी का है। अब इस सभी के अंदर सज्जन शक्ति शांत है और दुर्जन शक्ति अपनी ताकत निरंतर बढ़ाती जा रही है।
- नदियाँ जीवन का आधार है। नदियों ने जीवन दिया है। नदियों के किनारे ही सभ्यताओं का जन्म हुआ है। नदियाँ संस्कृति-परंपराओं को अपने में समेटे चलती हैं।
- अनेक नदियों की पहचान उनके किनारे की हरियाली से नहीं अपितु कचरे के ढेर से है। नदियों के घाट प्लास्टिक पॉलिथीन तथा विभिन्न प्रकार के कूड़े कचरे के ढेर से अटे पड़े हैं। नदियों में अब कमल नहीं खिलते प्रदूषण के झाग फूटते हैं। जल के पंछी-बत्तख, जल मुर्गी और हंस नहीं तैरते दिखते अपितु प्लास्टिक पॉलिथीन का कचरा तैरता रहता है।
- नदियों के किनारे अबोध पशु पानी पीने नहीं आत्महत्या की दवाई (विष) लेने आते हैं। वैसे भी निरंतर मर रहे पशुओं का पोस्टमॉर्टम तो होता नहीं।
- सरकारी आंकड़ों में तो सर्वत्र हरियाली ही है। प्रतिवर्ष करोड़ों का फंड और लाखों पौधों का रोपण होता है। और उन्हीं पौधों को काट-काट करके कागजों से फाइलें मोटी की जाती हैं धरातल पर हमारे नगर महानगर हाफ रहे हैं। ठीक से सांस भी नहीं ले पा रहे।
- धार्मिक भावना अब आडंबर कर्मकांड में सिमट अध्यात्म व पर्यावरण से कोसों दूर पहुँच चुकी है। जलाभिषेक हेतु प्रयोग करो और फेंको की तर्ज पर प्लास्टिक के कलश बाजार में उपलब्ध हैं। कलिमल हरणी, भवसागर तारिणी नदियाँ शैंपू, तेल, साबुन के खाली रेपर, पाउच, खाली प्लास्टिक की बोतलों, पॉलिथीन आदि से अटी हुई हैं। पूजा-पाठ, चढ़ावे, कर्मकांड आदि की जल को प्रदूषित करने वाली सामग्री, से स्वयं की मुक्ति चाहती हैं।
- शायद उस काल में पंछी भी बच्चों की आवाज सुन बार-बार कलरव करते थे। पोखर के जल में जलमुर्गी अटखेलियाँ करती थी। बगुले सूर्य उपासना में ध्यान मग्न रहते थे। बत्तखें पंक्तिबद्ध कमल ताल के इस छोर से उस छोर दौड़ लगाती थी।
- कीचड़ में नहीं स्वच्छ जल में ही नील कमल खिलते थे। सरोवर जीवंत संस्कृति के केंद्र थे। ग्रामीण संस्कृति का पिकनिक स्पॉट थे।
- महानगरों में सबसे प्रदूषित शहर बनने की होड़ लगी हुई है। स्वच्छता में इंदौर को छोड़ दें तो बाकी नगर गंदगी का स्वर्ण पदक पाने की होड़ में लगे हुए हैं।
- हिमालय के ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। यही स्थिति रही तो अगले कुछ वर्षों में गंगा यमुना जैसी नदियों में भी जल का प्रवाह स्थिल हो जाएगा।
- सूर्य को जल देना प्रतीकात्मक था। परंतु भावना सूर्य देव के मान-सम्मान की थी। जल तो वास्तव में तुलसी के बिरवा को, केले, पीपल या वट वृक्ष को दिया।
- प्रदूषित हो रही नदियाँ अपने अविवेकी भक्तों, श्रद्धालुओं को क्या आशीर्वाद देगी? वर्तमान युग में तो ये जल के स्रोत मानव से स्वयं के लिए अभय अर्थात निर्मलता, स्वच्छता का संकल्प चाहते हैं।
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