











Mera Daghestan (Both Vols.) / मेरा दग़िस्तान (दोनों खण्ड)
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‘मेरा दग़िस्तान’ और उसके लेखक
दग़िस्तानी पहाड़ों की गहराई में, विस्तृत वन-प्राँगण के छोर पर त्सादा नामक एक अवार पहाड़ी गाँव है। इस गाँव में एक घर है, जो अपने दायें-बायें के पड़ोसी घरों से किसी प्रकार भिन्न नहीं है। घर की वैसी ही समतल छत है, छत को समतल करने के लिए पत्थर का रोलर इस्तेमाल किया गया था। सभी घरों का एक जैसा ही फाटक है और वैसा ही छोटा-सा आँगन है। मगर इसी छोटे-से पहाड़ी घर, इसी कठोर, यानी पाषाणी नीड़ से दो कवियों के नाम उड़कर संसार में बहुत दूर-दूर तक जा पहुँचे। पहला नाम है दग़िस्तान के जन-कवि हमज़ात त्सादासा का और दूसरा दग़िस्तान के जन-कवि रसूल हमज़ातोव का।
इसमें आश्चर्य की तो कोई बात नहीं कि बुजुर्ग पहाड़ी कवि के परिवार में पनपते हुए लड़के को कविता से प्यार हो गया और वह खुद भी कविता रचने लगा। मगर कवि बन जानेवाले कवि के बेटे ने अपनी ख्याति की सीमा बहुत दूर-दूर तक फैला दी। बुजुर्ग हमज़ात ने अपने जीवन में जो सबसे लंबी यात्रा की, वह थी दग़िस्तान से मसक्वा तक। मगर रसूल हमज़ातोव, जो बहुजातीय सोवियत संस्कृति के प्रमुख प्रतिनिधि हैं, दुनिया के लगभग सभी देशों में हो आए हैं।
यों तो रसूल हमज़ातोव की जीवनी में कोई खास बात नहीं है। दग़िस्तानी स्वायत्त सोवियत समाजवादी जनतंत्र के त्सादा गाँव में 1923 में रसूल हमज़ातोव का जन्म हुआ। आरानी के हाई स्कूल और बूयनाक्स्क के अवार अध्यापक प्रशिक्षण विद्यालय में शिक्षा पाई। वे अध्यापक रहे, अवार थियेटर और जनतंत्रीय समाचार-पत्र के संपादक मंडल में उन्होंने काम किया। रसूल हमज़ातोव की पहली कविता 1937 में प्रकाशित हुई।
मसक्वा के साहित्य-संस्थान में रसूल हमज़ातोव के प्रवेश को उनके सृजनात्मक जीवन का नव युगारंभ मानना चाहिए। वहाँ उन्हें न केवल मसक्वा के प्रमुखतम कवि अध्यापकों के रूप में मिले, बल्कि कुछ मित्र और कला-पथ के संगी-साथी भी प्राप्त हुए। इसी संस्थान में उन्होंने अपने पहले अनुवादक मिले या शायद यह कहना अधिक सही होगा कि वो अनुवादकों के मिल गए। यहीं उनकी अवार कविताओं को रूसी कविता में अनुवाद होने के बाद एक नया जीवन मिल गया।
तब से अब तक मख़चक़ला में मातृभाषा में और मसक्वा में रूसी में उनके लगभग चालीस कविता-संग्रह निकले हैं। अब बहुत दूर-दूर तक उनका नाम रोशन हो चुका है, वे लेलिन पुरस्कार और दग़िस्तान के जन-कवि की उपाधि से सम्मानित हो चुके हैं और हिन्दी व उर्दू सहित दुनिया की अनेक भाषाओं में उनकी कविताएँ अनूदित हो चुकी हैं।
हाँ, यह रसूल हमज़ातोव की पहली गद्य-पुस्तक है। और गद्य के क्षेत्र में भी रसूल की प्रतिभा अपनी मौलिकता से भरपूर है।
रसूल हमज़ातोव तो मानो अपनी इस पुस्तक की प्रस्तावना में लिखा है कि यह पुस्तक कैसी होगी, किस विधा में लिखी जाएगी और उसका शीर्षक क्या होगा। उन्होंने इसकी भाषा-शैली, प्रतिक और रूपक-प्रणाली और विषय-वस्तु का भी वर्णन किया है। रसूल हमज़ातोव की यह पुस्तक पढ़कर कोई भी पाठक निश्चय ही यह पूछ सकता है– “यह तो प्रस्तावना हुई पर पुस्तक कहाँ है?” मगर पाठक का ऐसा पूछना ठीक नहीं होगा। बहुत आसानी से ही यह बात स्पष्ट हो जाती है कि भावी पुस्तक के बारे में चिंतन वास्तव में लिखने का एक ढंग ही है। धीरे-धीरे और अनजाने ही पुस्तक की ‘प्रस्तावना’ मातृभूमि, उसे प्यार करनेवाले बेटे के रवैये, कवि के दिलचस्प और कठिन कर्तव्य, उससे कुछ कम कठिन और कम दिलचस्प न होनेवाले नागरिक के कर्तव्य से सम्बन्धित अपने में संपूर्ण और सार-गर्भित पुस्तक का रूप ले लेती है।
पुस्तक आत्म-कथात्मक है। कहीं-कहीं तो वह आत्म-स्वीकृति का रूप ले लेती है। उसमें निश्छलता है, काव्यात्मक सरसता है। इसमें जहाँ-तहाँ लेखक का प्यारा-प्यारा मजाक, मैं तो कहूँगा, शरारतीपन बिखरा हुआ है। संक्षेप में, वह बिल्कुल वैसी ही है, जैसा उसका लेखक। इस पुस्तक के बारे में रूस के एक राष्ट्रीय समाचार-पत्र में प्रकाशित एक लेख को शीर्षक दिया गया था – ‘जीवन की प्रस्तावना’।
‘मेरा दग़िस्तान’ पुस्तक में पाठक को अनेक अवार कहावतें और मुहावरे मिलेंगे, खुशी से उमगते या गम में डूबे हुए बहुत-से ऐसे किस्से मिलेंगे, जिनका लेखक को या तो स्वयं अनुभव हुआ, या जो जन-स्मृति के भंडार में सुरक्षित हैं, और इसी भाँति जीवन और कला के बारे में वे परिपक्व चिंतन भी पा सकेंगे। इस किताब में भलाई की बहुत-सी बातें हैं और यह जनता व मातृभूमि के प्रति प्रेम से ओत-प्रोत है।
पाठकों को संबोधित करते हुए रसूल हमज़ातोव ने अपने कृतित्व के बारे में इस तरह से लिखा है– “ऐसे भी लोग हैं, जिनकी अतीत-सम्बन्धी स्मृतियाँ बड़ी दुखद और कटु होती हैं। ऐसे लोग वर्तमान और भविष्य की भी इसी रूप में कल्पना करते हैं। ऐसे भी लोग हैं, जिनकी अतीत-सम्बन्धी स्मृतियाँ बड़ी मधुर और सुखद हैं। उनकी कल्पना में वर्तमान और भविष्य भी मधुर होते हैं। तीसरी किस्म के लोगों की स्मृतियाँ सुखद और दु:खद, मधुर और कटु दोनों तरह की होती हैं। वर्तमान और भविष्य-सम्बन्धी उनके विचारों में विभिन्न भावनाएँ, स्वर-लहरियाँ और रंग घुले-मिले रहते हैं। मैं ऐसे ही लोगों में से हूँ।
“मेरी राहें हमेशा ही सीधी-सादी नहीं रहीं, हमेशा ही मेरे वर्ष चिंतामुक्त नहीं रहे। मेरे समकालीन, तुम्हारी ही तरह मैं भी अपने युग की हलचल, दुनिया की उथल-पुथल और बड़ी महत्त्वपूर्ण घटनाओं के भँवर में रहा हूँ। हर ऐसी घटना लेखक के दिल को मानो झकझोर डालती है। लेखक किसी घटना की खुशी और गम के प्रति उदासीन नहीं रह सकता। वे बर्फ पर उभरनेवाले पद-चिह्न नहीं, बल्कि पत्थर पर की गयी नक्काशी होते हैं। अब मैं अतीत के बारे में अपनी सारी जानकारी और भविष्य के बारे में अपने सभी ख़यालों को एक तार में पिरोकर तुम्हारे पास आता हूँ, तुम्हारे दरवाजे पर दस्तक देता हूँ और कहता हूँ– मेरे अच्छे दोस्त, यह मैं हूँ। मुझे अंदर आने दो।”
व्लदीमिर सलाऊख़िन
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