







Laghukatha Mein Prayog / लघुकथा में प्रयोग
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Editor(s) – Ashok Bhatia
संपादक — अशोक भाटिया
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लघुकथा में प्रयोग
अशोक भाटिया
प्रयोगों की कोई सीमा नहीं होती। रचना की जरूरत नये प्रयोगों को जन्म देती है। ‘आलोचना’ के जुलाई-सितम्बर 2021 अंक में प्रमुख कहानीकार योगेन्द्र आहूजा की लम्बी कहानी ‘डॉक्टर जिवागो’ का प्रयोगात्मक आरम्भ आने वाले प्रसंगों का संकेतक भी है–“अस्पताल मृत्यु से बना था। मृत्यु की ऊँची-ऊँची दीवारों में मृत्यु की खिड़कियाँ और दरवाज़े थे, मृत्यु का एक लम्बा गलियारा, डॉक्टरों और नर्सों के कमरे, सीढ़ियाँ और तहखाने, मृत्यु की बेंचें, कुर्सियाँ, बिस्तर, हर बिस्तर तक मृत्यु पहुँचाते पाइप और नालियाँ, और नलकों से टप-टप टपकती मृत्यु। मृत्यु के बड़े गेट के अन्दर मृत्यु के छोटे गेट को खिसकाकर अन्दर क़दम रखो तो रिसेप्शन पर एक ऊबी हुई मृत्यु स्वागत करती थी और कोने में बड़े-बड़े डस्टबिन नज़र आते थे, पिछले दिन की बासी, मैली-कुचैली मृत्युओं से भरे हुए।” भाषाई प्रयोग की ये पंक्तियाँ कहानी में आने वाली दुर्घटनाओं की संवाहक भी हैं। प्रमुख प्रमुख कथाकार रवीन्द्र वर्मा मृत्यु के इर्द-गिर्द ‘मृत्यु की कहानी’ नामक लघुकथा को बुनते हैं, जिसका आरम्भ है –“मुझे ठीक-ठीक याद नहीं कि मृत्यु कब पैदा हुई थी?” और अन्त है –“क्या मैंने मृत्यु को कहानी बना दिया है?” तो कल्पना के प्रयोग से लेखक पाठक को कहीं भी यात्रा करा सकता है। डा. हृदयनारायण उपाध्याय का मत विचारणीय है –“इसमें (लघुकथा में) विस्तार की, प्रयोग की और नवनिर्मिति की काफी संभावनाएँ हैं।” यहाँ विस्तार से अभिप्राय अर्थ-विस्तार से है। प्रयोग से संरचनात्मक नवनिर्मिति की अनेक संभावनाएँ बनती हैं। प्रयोग का लक्ष्य वस्तु को तीव्र, संघनित रूप में पाठक तक पहुँचाना होता है। इस सन्दर्भ में जर्मन के प्रगतिशील जन-चेतना के विख्यात कवि-नाटककार बर्तोल्त ब्रेख्त की कथा ‘रूप और वस्तु’ लेखकों-कलाकारों-दार्शनिकों सबके लिए कुतुबनुमा का काम करती है। वे लिखते हैं– “कुछ कलाकारों के साथ यही दिक्कत है, जो अनेक दार्शनिकों के साथ हुआ करती है, जब वे दुनिया को देखते हैं। रूप की तलाश में वे वस्तु से हाथ धो बैठते हैं।” रचना में ‘मैं’ नामक पात्र माली के कहने पर एक जयपत्र की झाड़ी को गेंद का आकार देना शुरू करता है। काटते-काटते झाड़ी बहुत छोटी हो जाती है। माली देखकर कहता है–“बेशक यह गेंद है, मगर जयपत्र की झाड़ी कहाँ है?” तो रूप, शिल्प या प्रयोग के चक्कर में वस्तु को विकृत नहीं किया जा सकता। वस्तु को बेहतर ढंग से पाठक तक पहुँचाना ही शिल्प आदि का मंतव्य होता है। आइये, प्रयोग के कुछ दिलचस्प उदाहरणों की चर्चा करें।
कथाकार प्रभाकर माचवे ने, विशेष रूप से, लघु उपन्यासों की रचना में ख्याति अर्जित की। ‘वीणा’ के मार्च 1934 अंक में प्रकाशित उनकी ‘अपराध’ लघुकथा स्त्री-पुरुष सम्बन्धों को नयी दृष्टि और नये कोण से देखती है। इसलिए प्रयोग के माध्यम से अर्थ को बारीकी से पकड़ने का सफल प्रयास करती है। इसका आरम्भ देखें –“पुरुष का नाम था अपराध और स्त्री का नाम था क्षमा। …क्षमा को अपराध करने का अधिकार नहीं और अपराध को क्षमा करने का। तो भी दोनों अपराध करते और जब क्षमा माँगने की बारी आती तब यह समस्या उठती कि पहले अपराध किसने किया और पहले क्षमा करे कौन?” इस प्रयोग के पीछे चिन्तन और विषय की अद्भुत पकड़ सक्रिय है। यह क्यों फैल है, मेरी समझ से बाहर है।
हिन्दी लघुकथा को संघर्ष के दौर में दिशा देने वाले कथाकार-सम्पादक रमेश बत्तरा की, 1973 में लिखी, पहली लघुकथा ‘सिर्फ एक?’ एक अलग-सा प्रयोग थी। लेखक रचना के वाक्यों में यथास्थान कोष्ठकों का प्रयोग करता जाता है। कोष्ठकों में रखे शब्द एक तो पाठक की सोच को विस्तार देते हैं, दूसरे सजग पाठक की तरफ से ये शब्द एक प्रतिक्रिया भी हैं, जो आम पाठक को रचना पढ़ने का तरीका-सलीका भी सिखाते हैं। लघुकथा में संक्षिप्तता क्या होती है और कैसे आती है, यह सब भी कोष्ठकों में रखे शब्द सिखा जाते हैं। रचना की आरंभिक कुछ पंक्तियाँ देखें –नाईट शिफ्ट से (या कहीं से भी) वापसी पर एक आदमी (सिर्फ एक आदमी?) की राहजनी–“जो कुछ भी है, निकाल दो।”
“…कुछ भी नहीं है।”और साथ ही आदमी ने दोहरे घेराव में से बच निकलने (भागना या दो-दो हाथ करना, कुछ भी) की साहस-भरी कोशिश कर डाली।”
रचना में प्रयोग यदि रचना के मूल मंतव्य पर ही भार-स्वरूप होंगे, तो प्रयोग का उद्देश्य ही चरमरा जाएगा। यहाँ रचना बताती है कि राहजनी में आदमी की हत्या के बाद उसकी विधवा ने ससुराल, मायके, समाज आदि का द्वार खटखटाया। कहीं से कोई मदद नहीं मिली। लेकिन –“सातवें दिन वह औरत (सिर्फ एक औरत?) निर्वस्त्र होकर शहर के चौराहे पर जा खड़ी हुई। सारा शहर उसकी सहायता के लिए उमड़ पड़ा।” रमेश बत्तरा का रचनाकार यहाँ पाठक को व्यापक सामाजिक परिप्रेक्ष्य में विचरण करने को प्रेरित करता है। ‘सिर्फ एक?’ हिन्दी-लघुकथा के क्षेत्र में एक नायाब प्रयोग है। ……….
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