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Jharkhand Kai Rajvansh / झारखंड के राजवंश (ऐतिहासिक परिचय)

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Language: Hindi
Pages: 182
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को हुआ। एक राज्य के लिए उन्‍नीस वर्ष की आयु अल्प ही मानी जायेगी किन्तु भौगोलिक, सांस्कृतिक और सामाजिक इकाई के रूप में यह क्षेत्र सदियों से हिन्दुस्तान के इतिहास के संग-संग यात्रारत है। ‘झारखंड’ नाम की उत्पत्ति तो मध्यकाल में हुई किन्तु इसकी ऐतिहासिक यात्रा तो प्राग् ऐतिहासिक काल में ही शुरू हो चुकी थी। यहाँ की प्रमुख नदियों; शंख, उत्तर कोयल, दक्षिण कोयल, दामोदर, बराकर तथा सुवर्णरेखा और उनकी सहायक नदियों की पेटी (BASINS) से पुरा पाषाण काल, मध्य पाषाण काल तथा नव पाषाण काल के अनगिनत साक्ष्य मिले हैं। इन साक्ष्यों के आधार पर ही मान गोविन्द बनर्जी ने कहा कि झारखंड में असुर काल के साक्ष्यों की तुलना मोहनजोदड़ो और हड़प्पा कालीन साक्ष्यों से करने पर हम यह सोचने के लिए विवश हो जाते हैं कि असुर काल और मोहनजोदड़ो-हड़प्पा काल के साक्ष्य समान युग और संस्कृति के लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
पुरा इतिहास काल के बाद भी इस प्रदेश के विभिन्‍न क्षेत्रों की उपस्थिति भारतीय इतिहास के हर कालखंड में रही है। इसके बावजूद राष्‍ट्रीय इतिहास के विस्तृत फलक पर झारखंड के इतिहास को वांछित स्थान नहीं मिला जिसके कतिपय कारण हो सकते हैं। इन कारणों की पड़ताल अलग शोध का विषय है। किन्तु यह स्थापित तथ्य है कि भारत के अन्य राज्यों की भाँति इस राज्य में भी राजवंशों का उद्‍भव हुआ और सदियों तक ये राजवंश इस क्षेत्र की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन को नियन्त्रित करते रहे। सत्ता, समृद्धि और शौर्य की कसौटी पर झारखंड के इन राजवंशों की उपलब्धि और ख्याति भले ही अल्प और अचर्चित रही, किन्तु उनकी और उनके द्वारा शासित राज्यों की लम्बी उपस्थिति झारखंडी इतिहास का महत्त्वपूर्ण पड़ाव है और इसलिए झारखंड के इतिहास को ठोस रूप और समुचित स्थान देने के लिए इन राजवंशों का अध्ययन आवश्यक है।
झारखंड में राजवंशों के अध्ययन में एक दुविधा राज्यनिर्माण के कालनिर्णय को लेकर है। विद्वानों में मतैक्य नहीं है कि इस प्रदेश में किस कालखंड में राज्य निर्माण की प्रक्रिया शुरू हुई। कुमार, सुरेशसिंह एवं कयामुद्दीन अहमद के मतानुसार झारखंड में बाह्य एवं आंतरिक शक्तियों द्वारा राज्य निर्माण की प्रक्रिया मध्यकाल में शुरू हुई। एक ओर छोटानागपुर के नागवंशी और पलामू के चेरो राज्य स्थानीय आदिवासी जीवन-पद्धति से विकसित हुए तो दूसरी और सिंहभूम, वीरभूम एवं शिखरभूम ऐसे राज्य उत्तर और मध्य भारत से आये राज्याकांक्षी योद्धाओं द्वारा स्थापित किये गये। सुरजीत सिन्हा बराभूम, पातकुम एवं पंचेत राज्यों की स्थापना 13वीं-16वीं शताब्दी के बीच में बताते हैं। दूसरी और एम. एम. सिंह और आर. आर. दिवाकर ऐसे इतिहास लेखकों की मानें तो झारखंड में राजवंशों की उत्पति प्राचीन काल से ही द‍ृष्‍टिगोचर होती है। समुद्रगुप्त ने झारखंड के कई आदिवासी राज्य प्रमुखों (chiefs of principalities) को अधीनस्थ कर लिया। प्रयाग अभिलेख के आधार पर आर. सी. मजूमदार का भी अनुमान है कि प्रशस्ति में उल्लिखित आटविक राज्य पूर्व की ओर अवस्थित छोटानागपुर के पहाड़ी प्रदेशों की ओर संकेत करते हैं। हर्षवर्धन के समकालीन चीनी यात्री, ह्वेनसंग ने अपने यात्रा वृत्तांत में संथाल परगना में एक छोटे राज्य के अस्तित्व की चर्चा की है जिसे कनिंघम ने कान्कजोल के रूप में चिन्हित किया है। इस राज्य का विशेष परिचय न देकर ह्वेनसांग ने सिर्फ इतना ही कहा है कि पड़ोसी राजा ने इस राज्य को अपने राज्य में मिला लिया। ओमाले के अनुमानानुसार ह्वेनसांग उल्लिखित यह राज्य राजमहल के दक्षिण पश्‍चिम में पहाड़ों और भागीरथी नदी के बीच के मैदानी इलाके में अवस्थित था। 8वीं शताब्दी में मगध राजा, आदिसिम्हा के शासनकाल में अयोध्या के दो व्यापारी सहोदर बंधुओं द्वारा हजारीबाग जिले में राज्य की स्थापना का उल्लेख मिलता है। स्थानीय लोगों ने इनमें से एक से राजा बनने की गुहार लगाई और तदनुसार मगधराज आदिसिम्हा ने उनको इस शर्त पर राजा की मान्यता प्रदान की कि वह उनको कर देंगे। दूध-पानी-शिलालेख के अनुसार अयोध्या के तीन व्यापारी बन्धु उदयमान अजितमान और श्रीधौत्मान को मगधाधिराज आदिसिम्हा ने तीन गाँव दिये थे। संध्याकर नन्दी रचित ‘रामचरितम’ के आधार पर इतिहासविदों ने ऐसे चार राजाओं का उल्लेख किया है जिनके राज्य झारखंड क्षेत्र में अवस्थित थे। ये चार राज्य थे–अपरा मंदार, कुजावती, तैलकम्पा एवं कजंगाल। अपरा मंदार की पहचान देवघर और मंदार पर्वत के समीपवर्ती क्षेत्र के रूप में की गयी है जहाँ का राजा लक्ष्मी सेन अथवा लक्ष्मीसुर था। संथाल परगना के नया दुमका से 14 मील उत्तर का क्षेत्र कुजावती राज्य में था जिसका राजा सुरपाल था। तैलकम्पा की पहचान आधुनिक तेल्कुप्पी के रूप में हुई है जिसका राजा रुद्र शिखर था। कजंगाल संथाल परगना में स्थित आधुनिक कान्कजोल है जो नरसिम्हार्जुन द्वारा शासित था। ये चारों राजा यद्यपि पालवंशी रामपाल (1077-1130) के अधीनस्थ सामन्त थे, किन्तु इतने शक्तिशाली थे कि रामपाल को अपने खोए राज्य की प्राप्ति के लिए इन सामन्तों से याचना करनी पड़ी थी।
मध्यकाल के शुरुआती दौर में झारखंड क्षेत्र में कई छोटे-छोटे राज्य स्थापित हुए। इन राज्यों की स्थापना स्थानीय आदिवासी सरदारों (chiefs) और मध्य भारत से आये राज्याकांक्षी राजपूत सरदारों (chiefs) ने की। 1169 ई. के फुलवारी स्थित शिलालेख से ज्ञात होता है कि पलामू के जपला क्षेत्र में खैरवालवंशी प्रताप धवल महानायक की हैसियत से शासन करता था। महानायक की पदवी से प्रतीत होता है कि वह गहड़वालों का सामन्त था। लगभग उसी काल में पलामू के दक्षिण और दक्षिण-पूर्वी भाग में रक्सेल राजपूतों की सत्ता थी जो राजस्थान से चलकर रोहतास होते हुए पलामू आये थे। रक्सेलों ने देवगन और कुंदेलवा में अपने किले बनवाये। चेरो वंश के आगमन तक पलामू पर उनका वर्चस्व कायम रहा। झारखंड के पश्‍चिमी सिंहभूम एवं सरायकेला एवं खरसावाँ जिले में सिंहराजवंश का शासन था। 1205 ई. में दर्पनारायण सिंह द्वारा पोड़ाहाट राज्य की स्थापना की गयी। मगनु राउत डोरा रचित ‘वंश प्रभा लेख’ के अनुसार इस राज्य की स्थापना 693 ई. में हुई। परम्परानुसार सिंहवंश की पहली शाखा के संस्थापक काशीनाथ सिंह थे। इस वंश के तेरह राजाओं ने शासन किया। काशीनाथ सिंह और दर्पनारायण सिंह के बीच कोई रक्त सम्बन्ध था या नहीं, इसकी जानकारी उपलब्ध नहीं है। किन्तु दर्पनारायण द्वारा स्थापित राज्य सदियों तक अस्तित्व में रहा और अपनी भौगोलिक स्थिति के फलस्वरूप बाहरी आक्रमण से अछूता ही रहा। कालान्तर में इस वंश की एक शाखा सरायकेला और खरसावाँ में राज्य स्थापित कर 1947 ई. तक सत्ता में बनी रही। सरायकेला राज्य की पूर्वी सीमा खरकाई नदी थी जिसके उस पार धालभूम राज्य था। इसकी स्थापना धाल वंश द्वारा अनुमानतः 14वीं शताब्दी में की गयी। वर्तमान पूर्वी सिंहभूम जिले और पश्‍चिम बंगाल के झाड़ग्राम (के कुछ हिस्से) में धालवंशी राजाओं का शासन था। धालभूम के संस्थापक और उसके स्थापना काल को लेकर विद्वानों में मतैक्य नहीं है। ओमाले के मतानुसार राजपुताना स्थित ढोलपुर के जगन्‍नाथ ने स्थानीय राजा चिन्तामणि धोबा को पराजित कर इस राज्य की नींव रखी। जनश्रुति के आधार पर डाल्टन (E. T. Dalton) ने लिखा कि इस वंश के संस्थापक का जन्म ब्राह्मणी माता और धोबी पिता के संयोग से हुआ जबकि रीड की मान्यता है कि इस वंश का सम्बन्ध भूमिज जनजाति से है। इस सबके विपरीत कुछ विद्वानों ने इस वंश को परमार वंश से जोड़ने की भी कोशिश की है।
1368 ई. के आसपास बाग़देव/बाघदेव सिंह के द्वारा रामगढ़ राज्य की स्थापना हुई। छोटानागपुर महाराजा की सेवा में नियुक्त बागदेव ने अपने बड़े भाई सिंहदेव सिंह की सहायता से अपनी सेना खडी कर, कर्णपुरा परगना के शासक को पराजित कर रामगढ़ राज्य की नींव रखी, स्वयं राजा बन गये और बड़े भाई को राज्य का फौजदार बना दिया।मध्यकाल में झारखंड में कुंडा, केंदी, चाई और खडगडीहा नाम के चार छोटे राज्य अस्तित्व में आये। चाई चम्पा के बारे में विशेष सामग्री उपलब्ध नहीं है। हमें इतना ज्ञात है कि 1340 ई. में झारखंड में मलिक बाया की घुसपैठ के समय चाई चम्पा पर जान्गरा नामक आदिवासी राजा का नियन्त्रण था जिसने घुसपैठ की सूचना पाकर पराजित होने की अपेक्षा सपरिवार मृत्यु का आलिंगन करना पसन्द किया। बाया के आगमन का समाचार सुनकर मानगढ़ के राजा मानसिंह पलायन कर गया। 1669 ई. में औरंगजेब के व्यक्तिगत सेवक रामसिंह द्वारा कुंडा राज्य की स्थापना हुई। 15वीं ई. शताब्दी में एक दक्षिण भारतीय ब्राह्मण, हंसराज भट्ट ने बन्दावत जाति के राजा को पराजित कर खडगडीहा राज्य की स्थापना की। 16वीं ई. शताब्दी में पलामू में चेरो वंश के भागवत/भगवंत राय ने अपने स्वामी रक्सेलवंशी राजा मानसिंह के परिवार का उच्छेद कर चेरो राज्य की स्थापना की। यह राज्य 1813 ई. तक अस्तित्व में रहा। लगान की देनदारी और अन्दरूनी कलह के कारण यह राज्य नीलाम हो गया और इसके अन्तिम राजा चूड़ामन राय को 300 की मासिक पेंशन पर गुजर करना पड़ा।
झारखंड के संथाल परगना क्षेत्र में राजवंशीय राज्य अस्तित्व में आये किन्तु उनकी स्थिति छोटानागपुर के राजवंशीय राज्यों से भिन्‍न थी। हालाँकि कजांगल नामक राज्य इस क्षेत्र में हर्षवर्धन-ह्वेनसंग के समय में अस्तित्व में था और पालवंशी रामपाल के शासनकाल में भी अपरा मंदार, कुजावती और कजंगल नामक सामन्ती राज्य थे, किन्तु मध्यकाल में इस क्षेत्र में कुछ कारणों से राज्य निर्माण की प्रक्रिया प्रायः ढीली रही। एक कारण तो यह था कि खड़गपुर राज्य का प्रभाव संथाल परगना के हंडवे क्षेत्र तक था जिसके फलस्वरूप उस क्षेत्र में कोई अन्य राजवंश पनप न सका। दूसरा कारण इस क्षेत्र में पहाड़िया आदिवासियों की मजबूत उपस्थिति थी। भय और आतंक के पर्याय इस आदिम जनजाति के भय से ताकतवर से ताकतवर राज्याकांक्षी भी उसके गढ़ में जाने की हिम्मत नहीं करता था और राजस्व लाभ की द‍ृष्‍टि से भी यह क्षेत्र उपयुक्त नहीं था क्योंकि जंगलों और पहाड़ों से घिरे क्षेत्र में रहनेवाले पहाड़िया कृषि-कार्य में कुशल नहीं थे। फिर अकबर के शासनकाल में बंगाल के सूबेदार राजा मानसिंह ने राजमहल को बंगाल की राजधानी बनाकर इस सम्भावना को कुंद कर दिया कि कोई साहसी व्यक्ति उस क्षेत्र में अपने वंश के नाम पर राज्य की नींव रख सके। फिर भी मुगलों की क्षत्रछाया में मध्यकाल में खेतौरी राज, महेशपुर राज, पाकुड़ राज और संकरा का पहाड़िया राज राजमहल के क्षेत्र में अस्तित्व में आये।
राजमहल क्षेत्र में आने से पूर्व खेतौरी मुँगेर जिले के खेडी पहाड़ के शासक थे। 1503 ई. के आसपास अपने तीन राजपूत सेवकों के षड्‍यन्त्र के फलस्वरूप वे राजमहल की ओर भागने पर मजबूर हुए। कालान्तर में इसी वंश के रूपकरण खेतौरी ने राजा मानसिंह की कृपा से अपने स्वामी नट राजा, दरयार सिंह की हत्या कर खेतौरी राज की नींव राखी।

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Description

अनुक्रम

  • प्राक्‍कथन
  • झारखंड में राजवंशीय राज्यों की निर्माण प्रक्रिया
  • नागवंश (छोटानागपुर)
  • सिंहराजवंश (पोड़ाहाट)
  • सिंहराजवंश (सरायकेला)
  • धालवंश (धालभूम/घाटशिला)
  • सिंहराजवंश (रामगढ़)
  • चेरो राजवंश (पलामू)
  • देववंश (खड़गडीहा)
  • संथाल परगना के राजवंश
  • उपसंहार
  • सन्दर्भ ग्रन्थों की सूची

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