







Jainendra ke Upanyas : Mulyon ki Arthvatta aur Jeewan Sandarbh / जैनेन्द्र के उपन्यास : मूल्यों की अर्थवत्ता और जीवन संदर्भ
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व्यक्तिगत प्रतिष्ठागत मूल्यों की अभिव्यंजना जैनेन्द्र के उपन्यासों में सर्वत्र विद्यमान है। अपने पात्रों की व्यक्तिगत-प्रतिष्ठा के चरम मूल्यों की स्थापना का मूल केन्द्र ‘अहं’ को स्वीकार करते हुए उन्होंने समाज, परिवार तथा संस्कृति के विविध आयामों से व्यक्ति की विद्रोही चेतना का आकलन किया है। इस विद्रोही चेतना में ही प्राय: उन्होंने परम्परागत मूल्यों के स्थान पर नवीन मूल्यों की स्थापना की है। वैयक्तिक धरातल पर स्त्री-पुरुष के दो भिन्न क्षेत्रों का विवेचन जैनेन्द्र के उपन्यासों में उपलब्ध होता है, जिसमें नारी-चरित्र को अधिक विशिष्टता के साथ उद्घाटित किया गया है। जैनेन्द्र के नारी-पात्र उद्दाम वैयक्तिकता के स्तर पर नैतिक विद्रोह से सृजित हैं। वे रूढिग़्रस्त परम्पराओं के विरुद्ध हैं। आर्थिक स्वतन्त्रता के दृष्टिकोण से मूल्य निर्धारण की स्थिति (कल्याणी) और राजनीति का व्यक्ति के सीधे सम्पर्क की परिणति (सुखदा) आधुनिक युगीन चिन्तन की देन है, जो जैनेन्द्र के उपन्यासों में मूल्यों के अपसरण और अनुसरण के अन्तर्विरोधी तत्त्वों के अनुसन्धान की क्रान्तिकारी प्रतिक्रिया के रूप में परिलक्षित होता है (जयवद्र्धन, मुक्तिबोध)। जैनेन्द्र के उपन्यासों में व्यक्ति मूल्यों की स्थापना का क्षेत्र नैतिकतावादी मूल्य है, जिसमें शरीर समर्पण के नव-मूल्यों का विस्फोट (‘सुखदा’, ‘अनन्तर’ आदि), ‘पापा’ के अध्यात्मवादी मूल्य की आत्म-स्वीकृति के भय से कम्पित हो उठता है (‘अनन्तर’, ‘दशार्क’)। वस्तुत: जैनेन्द्र ने हिन्दी उपन्यास साहित्य को परम्परागत मूल्यों के अवमूल्यन की संक्रान्त स्थिति में नये मूल्यों के सृजन को नवीन दिशा देते हुए मानववादी चेतना को व्यापक फलक प्रदान किया है।
अनुक्रम
- भूमिका
- जैनेन्द्र का व्यक्तित्व, कृतित्व एवम् उनका युग
- मूल्यों का स्वरूप-हेतु, प्रयोजन और सैद्धान्तिक विवेचन
- जैनेन्द्र की चिन्तन दृष्टि एवं विभिन्न प्रभाव
- जैनेन्द्र के उपन्यासों का मूल्यगत अनुशीलन
- जैनेन्द्र के उपन्यासों का शिल्प विन्यास
- समसामयिक उपन्यासकार और जैनेन्द्र कुमार
- जैनेन्द्र के उपन्यासों की मुख्य स्थापनाएँ
- सहायक ग्रन्थों की सूची
…इसी पुस्तक से…
विश्वकोष की शब्दावली हो या नीतिशास्त्र की दृष्टि या फिर पाश्चात्य विचारकों की दृष्टि हो–सभी को हम प्राय: एक ही अर्थ पाते हैं, वह है-वस्तुओं को मापने का आधार या क्रय-विक्रय के सन्दर्भ में मूल्य शब्द का प्रयोग। साहित्य में मूल्य का आधार मानवीय संवेदना है, अर्थात् अभिव्यक्ति और अनुभूति है। जिसे बौद्धिक स्तर पर प्रकाशित किया जाता है।
मूल्य समाज की आधारशिला भी कहे जा सकते हैं, जो सम्पूर्ण समाज में हलचल पैदा करते हैं। जिनका सम्बन्ध मनुष्य के हृदय से होता है। समय के साथ मूल्य हमेशा परिवर्तनशील होते हैं। ‘मूल्य’ में कभी सत्य की महत्ता रहती है तो कभी ‘शिव’ को आदर्श माना जाता है। मनुष्य का विवेक भी मूल्यों को स्रोत हो सकता है क्योंकि मनुष्य स्वयं ही यह निर्धारित करता है क्या सही है, और क्या गलत है। इस तरह हम देखते हैं कि मूल्यों की सत्ता मानव के वैचारिक जगत पर अधिक निर्भर करती है। इस तरह मूल्य की उपयोगिता अनिवार्य हो जाती है। ‘मूल्य’ केवल आदर्शों की स्थापना नहीं करता है बल्कि यथार्थ को भी स्थापित करता है। इस आधार पर स्थूल रूप से मूल्य दो प्रकार के होते हैं–1. यथार्थवादी मूल्य और 2. आदर्शवादी मूल्य। यथार्थवादी मूल्य वे कहलाते हैं जो जीवन में प्रवृत्यात्मक उत्तर का संचार कर मनुष्य को वास्तविक समस्याओं से जुझने की प्रेरणा दे। आदर्शवादी मूल्य निवृत्यात्मक निष्काम भावना का सन्देश देकर मानव विवेक को प्राय: आध्यात्मिक साधनाओं की ओर बढऩे का निर्देश करते हैं।
यद्यपि मूल्यों का निर्माण प्राय: मुद्दों के सन्दर्भ में हुआ करता है, किन्तु वास्तव में मूल्यों का विशिष्ट स्थान दार्शनिक और नैतिक दृष्टि से ही होता है। मूल्यों का परिवर्तन एवं संक्रमण एक साथ ही किसी तीव्र निर्णायक विभाजन रेखा के द्वारा नहीं होता। नवीन मूल्यों की स्थापना में संक्रमणता ने यथार्थता और आर्थिक समाधान की तलाश के साथ वैज्ञानिकता और यंत्रीकरण की परिस्थितियों ने मानव को व्यक्तिवादी और वैयक्तिक ही नहीं बल्कि अलगाव से अजनबीपन की स्थिति में ला दिया। इसका परिणाम यह हुआ है कि सभ्यता और संस्कृति के अनेक मूल्य जैसे पारिवारिक आर्थिक, सामाजिक, दार्शनिक आदि सभी धाराशायी हो गए और व्यक्ति की क्षणिक क्रियाएँ ही यथार्थ हो गयी। जैनेन्द्र के प्राय: सभी उपन्यासों में सामाजिक मूल्यों की संक्रमणता प्रत्यक्षत: या परोक्षत: उपलब्ध होती है क्योंकि जैनेन्द्र के उपन्यासों में समाज सांकेतिक संगठन के लिए ही प्रयुक्त हुआ। मनोविश्लेषणवादी चेतना ने जैनेन्द्र के पात्रों के चरित्रों में निहित मूल्यों को ज्यादा उजागर किया, और नवीन मूल्यों की स्थापना। यही नवीनता (सामाजिक मूल्यों की संक्रमणता) जैनेन्द्र के उपन्यासों की महत्वपूर्ण उपलब्धि के रूप में उल्लेखनीय है। जैसे–1. राजनीतिक मूल्य, 2. सामाजिक मूल्य, 3. मानव मूल्य, 4. सांस्कृतिक मूल्य, 5. धार्मिक मूल्य, 6. दार्शनिक मूल्य, 7. नैतिक मूल्य, 8. आध्यात्मिक मूल्य।
‘जैनेन्द्र दर्शन’ या ‘जैनेन्द्रीयता’ ने अपने औपन्यासिक पात्रों की नियति में व्यक्ति या वैयक्तिक अभिव्यंजना के स्तर पर नये मूल्यों का संकेत किया है और हिन्दी उपन्यास-जगत में व्यक्तिवादिता की विस्फोटक चेतना को उजागर कर दिया है, जिससे पारिवारिक मूल्यों के परम्परित स्थान पर नये मूल्यों की चेतना, पारिवारिक विघटन के चरम अवमूल्यन, का संकेत हुआ है (‘मुक्तिबोध’, ‘सुनीता’, ‘अनामस्वामी’) इसका उदाहरण हैं।।
व्यक्तिगत प्रतिष्ठागत मूल्यों की अभिव्यंजना जैनेन्द्र के उपन्यासों में सर्वत्र विद्यमान है। अपने पात्रों की व्यक्तिगत-प्रतिष्ठा के चरम मूल्यों की स्थापना का मूल केन्द्र ‘अहं’ को स्वीकार करते हुए उन्होंने समाज, परिवार तथा संस्कृति के विविध आयामों से व्यक्ति की विद्रोही चेतना का आकलन किया है। इस विद्रोही चेतना में ही प्राय: उन्होंने परम्परागत मूल्यों के स्थान पर नवीन मूल्यों की स्थापना की है। वैयक्तिक धरातल पर स्त्री-पुरुष के दो भिन्न क्षेत्रों का विवेचन जैनेन्द्र के उपन्यासों में उपलब्ध होता है, जिसमें नारी-चरित्र को अधिक विशिष्टता के साथ उद्घाटित किया गया है। जैनेन्द्र के नारी-पात्र उद्दाम वैयक्तिकता के स्तर पर नैतिक विद्रोह से सृजित हैं। वे रूढिग़्रस्त परम्पराओं के विरुद्ध हैं। आर्थिक स्वतन्त्रता के दृष्टिकोण से मूल्य निर्धारण की स्थिति (कल्याणी) और राजनीति का व्यक्ति के सीधे सम्पर्क की परिणति (सुखदा) आधुनिक युगीन चिन्तन की देन है, जो जैनेन्द्र के उपन्यासों में मूल्यों के अपसरण और अनुसरण के अन्तर्विरोधी तत्त्वों के अनुसन्धान की क्रान्तिकारी प्रतिक्रिया के रूप में परिलक्षित होता है (जयवद्र्धन, मुक्तिबोध)। जैनेन्द्र के उपन्यासों में व्यक्ति मूल्यों की स्थापना का क्षेत्र नैतिकतावादी मूल्य है, जिसमें शरीर समर्पण के नव-मूल्यों का विस्फोट (‘सुखदा’, ‘अनन्तर’ आदि), ‘पापा’ के अध्यात्मवादी मूल्य की आत्म-स्वीकृति के भय से कम्पित हो उठता है (‘अनन्तर’, ‘दशार्क’)। वस्तुत: जैनेन्द्र ने हिन्दी उपन्यास साहित्य को परम्परागत मूल्यों के अवमूल्यन की संक्रान्त स्थिति में नये मूल्यों के सृजन को नवीन दिशा देते हुए मानववादी चेतना को व्यापक फलक प्रदान किया है।
कालक्रम के अनुसार जैनेन्द्र के उपन्यासों को दो भागों में बाँटा जा सकता है–
1. स्वातन्त्र्य पूर्व उपन्यास
2. स्वातन्त्र्योत्तर उपन्यास
‘परख’, ‘त्याग-पत्र’, ‘सुनीता’, ‘कल्याणी’ आदि स्वतन्त्रता पूर्व तथा ‘विवर्त’, ‘व्यतीत’, ‘जयवद्र्ध’, ‘मुक्तिबोध’, ‘अनन्तर’, ‘अनाम स्वामी’, ‘दशार्क’ आदि स्वातन्त्र्योत्तर उपन्यास हैं।
‘कल्याणी’ के पश्चात् 14 वर्षों तक लेखन नहीं हुआ, किन्तु ‘सुखदा’ से जैनेन्द्र जी के चिन्तन में व्यापक परिवर्तन परिलक्षित होता है, जहाँ से उनकी दृष्टि व्यक्तिनिष्ठ से समष्टिगत हुई।
हिन्दी साहित्य में आदिकाल से रीतिकाल तक प्राय: मानवेतर सत्ता या सामन्तीय सत्ता का ही अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन मिलता है, किन्तु आधुनिक काल के विवेचन के परिप्रेक्ष्य में मनोवैज्ञानिकता के प्रसार के साथ व्यक्तिवादी चिन्तन का प्रचार एवं प्रसार हुआ। नवीन सांस्कृतिक मूल्यों और नूतन जीवन-दर्शन के दृष्टिकोणों के परिवर्तनों से भी हिन्दी उपन्यास-जगत प्रभावित हुआ। पाश्चात्य संस्कृति एवं सभ्यता के आयातित विचार-पुंज ने भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों को झिंझोड़ डाला और परम्परित मूल्यों को चमत्कारिक धक्का दिया। यही कारण है कि प्रेमचन्दोत्तर काल के उपन्यासों में युगबोध और सामाजिक सांस्कृतिक संचेतना के परिवर्तित सन्दर्भों में व्यक्तिवाद प्रधान बन गया।
भारतीय स्वतन्त्रता-पूर्व प्रेमचन्द कालीन उपन्यासों में पात्रों का चित्रण मनोविज्ञान के सहज धरातल से उठकर आदर्शवादी और सुधारवादी परिप्रेक्ष्य में अधिक मिलता है, यहाँ तक कि यथार्थवादी भूमि की परिणति अन्तत: आदर्शवादी नियति का स्वरूप धारण कर लेती है।
यद्यपि देवकीनन्द खत्री ने कल्पनालोक की अवतारणा कर हिन्दी उपन्यासों की प्रारम्भिक भूमिका में क्रियात्मक सहयोग प्रदान किया है, तथापि मनोरंजन के ऐन्द्रजालिक व्यामोह से हिन्दी पाठकों की मानसिक वृत्ति को सामसियक अन्तराल की ओर उन्मुख कर सामाजिक मूल्यों की स्थापना का ऐतिहासिक कार्य प्रेमचन्द-युग में ही सम्पन्न हुआ। अतएव प्रेमचन्द का औपन्यासिक अवदान एक ओर सामाजिक उपन्यास के अन्तर्गत मानव-चरित्र के यथार्थ चित्रण के लिए महत्त्वपूर्ण है, तो दूसरी तरफ नये मूल्यों की खोज की चेष्टा में धार्मिक आदर्शों के स्थान पर नैतिक यथार्थ की मानवतावादी प्रतिस्थापना। इसी युग में प्रसाद ने शुद्ध भारतीय वातावरण प्रस्तुत करते हुए यथार्थवादी चेतना के स्तर पर सामाजिक विषमताओं को चित्रित किया, जिसमें मानवतावादी आदर्शों का ही प्रकारान्तर से पिष्ट-पोषण हुआ है। किन्तु तत्कालीन राजनीतिक चेतना से संचालित प्रगतिशील विचारधारा से सम्पुष्ट कथान्यास के स्तर पर हिन्दी औपन्यासिकों में यशपाल ने अति-यथार्थ की भूमिका पर भौतिक विकृतियों तथा विसंगतियों की अन्तर्यात्रा में मानववादी मूल्यों की अवतारणा की।
वस्तुत: प्रेमचन्द से यशपाल तक की औपन्यासिक सृजनात्मकता कल्पना क्षेत्र से निकलकर वास्तविकता की ओर उन्मुख हुई, जो मूलत: तद्युगीन यथार्थवादी दृष्टिकोण, जनवादी परम्पराओं और मानववादी प्रवृत्तियों से सम्पन्न तथा समृद्ध होती गयी।
अस्तु, जैनेन्द्र ने हिन्दी उपन्यास-साहित्य को नवीन संवेदना प्रदान की। उन्होंने मनो-विश्लेषण या मनो-विज्ञानपरक औपन्यासिक दृष्टिकोण से पात्रों के आन्तरिक संघर्ष और द्वन्द्वात्मक चेतना का सजीव एवं सक्रिय चित्रण आरम्भ किया। अत: जीवन-दृष्टि को विषय-वस्तु का केन्द्रीय तत्त्व मानकर मूल्य-चेतना के स्तर पर औपन्यासिक अन्तर्वस्तु का अनुसन्धान जैनेन्द्र के उपन्यासों में स्पष्टत: परिलक्षित किया जा सकता है। यहीं से औपन्यासिक कथा-वस्तु के अन्तर्गत मानव-चरित्र की अवतारणा में भी किंचित मौलिक परिवर्तन दृष्टिगोचर होने लगता है, क्योंकि जैनेन्द्र के चिन्तन में स्पष्ट हो गया कि ‘मनुष्य की अस्मिता नहीं, तो मर्यादा, संयम, कर्तव्य की भावना भी नहीं है। मात्र अस्तित्व से क्या होगा? क्योंकि अस्तित्व की सुरक्षा नहीं, बल्कि अस्मिता की सुरक्षा जरूरी है।’ इसलिए जीवन में मूल्यों की नितान्त आवश्यकता है। इसी विचार-दर्शन के प्रस्थान-पार्थक्य के अन्तराल में औपन्यासिक धरातल पर जैनेन्द्र के मनोवैज्ञानिक कथा-शिल्प में व्यक्ति के आपसी एवं निजी सम्बन्धों को विश्लेषित किया गया है।
जैनेन्द्र के उत्तरवर्ती उपन्यासकारों में इलाचन्द्र जोशी, अज्ञेय, अमृतलाल नागर आदि की मनोवैज्ञानिक अवतारणाओं में भी मूल्य-चेतना के प्रति दृष्टि-भेद है। इलाचन्द्र जोशी जीवन-मूल्यों के प्रति भावुकतामूलक अवधारणा रखते हैं और अज्ञेय बौद्धिकतापरक परिकल्पना, जिनकी तुलना में अमृतलाल नागर विवेक प्रसूत मूल्य-बोध की वैचारिक परम्परा में जैनेन्द्र के विकल्पों को विकसित और नियोजित करते दिखाई पड़ते हैं। निश्चय ही परवर्ती उपन्यासकार प्राय: आधुनिकतावादी जीवन-दृष्टि के अन्तर्विरोधी मूल्यों के विकेन्द्रीकरण का अनुमोदन करते परिलक्षित होते हैं, किन्तु जैनेन्द्र मूल्यों के अतिक्रमण की सम्भावना को स्वीकार कर भी अवमूल्यन का समर्थन नहीं करते। वे यान्त्रिक सभ्यता के पक्षधर कभी नहीं रहे, यहाँ तक कि परवर्ती काल में वे गाँधीवादी हो उठे थे। उनकी दृष्टि में मनुष्य का समाज परिश्रम पर आश्रित है। जो मानव-समाज दूसरों के शोषण पर निर्भर है, वह विकसित तो क्या होगा, सुरक्षित भी नहीं रह सकता। इस सभ्यता ने उसे उपभोक्तावादी बना दिया। यान्त्रिक एवं वैज्ञानिक संस्कृति मानव-मूल्यों को समाप्त कर रही है। अत: इस संस्कृति के प्रभुत्व को समाप्त करना होगा। अस्तु, जैनेन्द्र उपभोक्तावादी संस्कृति का विरोध करते हैं। इसी दृष्टि से वे माक्र्सवाद तथा अस्तित्ववाद को भी अस्वीकार करते हुए कहते हैं कि यह जड़ संस्कृति है, क्योंकि पदार्थ और अस्तित्व के अलावा विचार भी महत्त्व रखते हैं।
जैनेन्द्र के यथार्थवाद पर आक्षेप है कि वे कोरी काल्पनिक कहानियाँ ही उपन्यासों में गढ़ते हैं, क्योंकि ये जीवन का अनुभव किये बिना ही टेबुल पर बैठकर लिखी गयी हैं और आभिजात्य वर्ग से सम्बन्धित हैं। जैनेन्द्र इसका जवाब देते हैं कि वास्तव में जीवन का स्वयं अनुभव करना जरूरी नहीं, बल्कि अनुभूति बड़ी चीज है। उस अनुभूति को आधार बनाकर उन्होंने लिखा है। द्वितीय आक्षेप है कि घटना एवं चरित्र अयथार्थवादी हैं, तो इसका उत्तर वे देते हैं कि ये घटनाएँ एवं चरित्र प्रतीक-स्वरूप हैं, लेकिन विचारों का प्रतीकात्मक प्रस्तुतीकरण हुआ है या नहीं– यह मुख्य बात है। जैनेन्द्र की यह दृष्टि ही उनके मूल्य-बोध के प्रत्यारोपण को स्पष्ट करती है।
यदि मूल्य-बोध के स्तर पर जैनेन्द्र के (समकालीन होते हुए भी) पूर्ववर्ती उपन्यासकारों में देवकीनन्दन, प्रेमचन्द, यशपाल आदि और परवर्ती उपन्यासकारों में इलाचन्द्र जोशी, अज्ञेय, अमृतलाल नागर आदि से तुलना की जाये तो स्पष्ट होगा कि प्राय: उन सभी रचनाधर्मी उपन्यासकारों में मूल्य-चेतना अनिवार्यत: विद्यमान है, परन्तु जैनेन्द्र में अपेक्षाकृत मूल्यान्वेषण की केन्द्रीय गहनता और सीमान्त व्यापकता सर्वाधिक गत्यात्मक है। जैनेन्द्र के व्यक्तित्व एवं चरित्र के अतिरिक्त उनके कर्तृत्व की तुलनात्मक विशिष्टता उनका पूर्वाग्रह-प्रतिरोधी विमुक्त आदर्श ही है। अतएव उनकी तरह मानव-मूल्यों का इतना बहुआयामी अनुशीलन उनके समय में किसी ने नहीं किया। अस्तु, स्पष्ट है कि मूल्य-बोध के चिन्तन एवं सृजन के स्तर पर आने वाले युगों में प्रेमचन्द की भाँति जैनेन्द्र को ही मूल्यों का मसीहा माना जाएगा।
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डॉ. सुनीता गुप्ता
जन्म – 25 अगस्त 1966
शिक्षा – एम.ए.(हिन्दी), पी-एच.डी
सम्प्रति – 9477464008 l g.sunita18@gmail.com
जैनेन्द्र (1905-1988) (मूलनाम आनन्दीलाल) हिन्दी के सर्वाधिक चर्चित एवं विवादित नामों में से एक है। यद्यपि मूल्यों के रूढ़ अर्थ के साथ जैनेन्द्र की संतति कठिन जान पड़ती है किन्तु इस पुस्तक की सबसे बड़ी विशेषता इस धारणा से टकराना है। यह पुस्तक इस बात की पड़ताल करती है कि जैनेन्द्र किस प्रकार मूल्यों से मुक्त होते हुए बल्कि कहें कि परम्परागत मूल्यों से मुक्त होते हुए नए व्यक्तिगत मूल्य गढ़ रहे हैं। उनके आरम्भिक लेखन में इन व्यक्तिगत मूल्यों का अस्तित्व एक विस्फोटक के रूप में अधिक दिखाई पड़ता है। बाद में वे इसे अपने पात्रों के सहज क्रियाकलापों से सूक्ष्म रूप में भी संकेतित करते हैं। अपने रचनाकर्म के उत्तराद्र्ध में जैनेन्द्र अधिक समाजोन्मुखी हो जाते हैं जो उनके पूर्वाद्र्ध के ‘जैनेन्द्र’ होने के आस्वाद को थोड़ा कम-सा करता है। राजनीति में नए मूल्य बोध के साथ उतरा ‘जयबद्र्धन’ नए मूल्यों की जो आशा जगाता है उसमें यथार्थपरक क्रियान्वयन थोड़ा कठिन भले भी मालूम होता है। किन्तु उसमें असहयोग आन्दोलन में सक्रिय कार्यकर्ता रहे जैनेन्द्र के अनुभव भी हैं। इसी तरह स्त्री सम्बन्धी उनकी नई सोच एक ठोस क्रांतिकारी स्त्री को गढऩे में कितनी सफल या असफल है, यह पुस्तक इससे भी जूझती है।
जैनेन्द्र के उपन्यास मानव जीवन की सार्थकता की चिन्ता करते हैं। डॉ. धर्मवीर भारती के शब्दों में कहें तो ”सार्थकता का पहलू सबसे बड़ा मानव मूल्य है।” हम चाहे जिस युग में जैसी भी जटिलताओं को जिये हमारे सुखों-दुखों, आशाओं-निराशाओं, निर्माणों-ध्वंसों की परिभाषा और प्रयुक्ति तत्कालीन मूल्यों को साथ ले या उनसे लड़-भिड़ कर ही आगे बढ़ती है। जैनेन्द्र का साहित्य, विशेषकर उनके उपन्यास इसका सबसे अच्छा उदाहरण हैं और यह पुस्तक विस्तारपूर्वक इसका विश्लेषण करती है। पुस्तक की पठनीयता इसका एक और आकर्षण है।
प्रथम द्रष्टया जैनेन्द्र के पात्र वाह्य जगत एवं उसकी परिस्थितियों से निरपेक्ष तथा अपनी आन्तरिक गति से संचालित दिखाई पड़ते हैं। जैनेन्द्र अपने लेखन में पात्रों की भीड़ भी नहीं लगाते। नितान्त वैयक्तिकता से परिचालित दिखने वाले ये पात्र एक आस्था से जुड़े हुए हैं। एकबारगी यह ‘आस्था’ शब्द कानों को भले ही सहज लगे किन्तु साहित्य का प्राण यह आस्था ही है। समाज को और सुन्दर बनाने की आस्था ही साहित्य कर्म का मुख्य उद्देश्य है, कहना न होगा कि इस बिन्दु पर जैनेन्द्र का साहित्य त्रुटिहीन और अत्यन्त प्रासंगिक है।
—प्रो. रूपा गुप्ता, वर्धमान विश्वविद्यालय, प. बंगाल
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