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Hindu Rashtra ka Nav Nirman — हिन्दू राष्‍ट्र का नव निर्माण -क्रान्तिकारी ग्रन्थ

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Language: Hindi
Pages: 224
Book Dimension: 5.5″ x 8.5″

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विषय सूची

  • भूमिका
  • प्राक्‍कथन
  • कर्तव्य-पथ
  • राष्‍ट्र का नव-निर्माण
  • ब्राह्मणत्व का नाश
  • जात-पाँत तोड़ डालो
  • धर्म व्यवसायियों का नाश
  • धर्म-पाखंड का नाश
  • अछूतपन का नाश
  • ऐसी शिक्षा-वेश्‍या का नाश
  • भाषा, भाव और वेश
  • बेटी-रोटी का विश्‍वव्यापी सम्बन्ध
  • सम-सहयोग उत्पन्‍न करो
  • आत्मविश्‍वास हृदय में उत्पन्‍न करो
  • स्त्रियों को निर्भय करो
  • धर्म और पाप के धन को बलिदान करो
  • वेश्या बहनों को सामाजिक जीवन में स्थान दो
  • ऐसे व्यापार का नाश करो
  • हरामख़ोरों को नष्‍ट कर दो
  • कुरीतियों और रूढ़ियों को नष्‍ट कर दो
  • परिशिष्‍ट
  • साक्षात्कार– मैं इनसे मिला : डॉ. पद‍्मसिंह शर्मा कमलेश
  • पहली सलामी
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Description

प्रस्तुत पुस्तक ‘हिन्दू राष्‍ट्र का नवनिर्माण’ उस ग्रन्थ का एक भाग है जिसे वे 1929 में उस समय पूर्णता की ओर ले जा रहे थे जब क्रान्तिकारी भगतसिंह बहरी अँग्रेजी सरकार के कान खोलने के लिए साथी बटुकेश्‍वर दत्त के साथ असैम्बली में बम-विस्फोट करने की तैयारी कर रहे थे। उस दो हजार पृष्‍ठों के ग्रन्थ का नाम था ‘तब अब क्यों और फिर?’

               8 अप्रैल 1929 के दिन जब भगतसिंह असैम्बली में बम फेंक रहे थे, उस दिन आचार्य चतुरसैन असैम्बली की दर्शक दीर्घा में मौजूद थे। उन्हें भगतसिंह स्वयं असैम्बली तक लेकर आये थे, परन्तु वे उस समय भगतसिंह को नहीं जानते थे, बलवन्त सिंह को जानते थे। अपने इसी छद‍्म नाम से भगतसिंह ‘चाँद’ के कार्यालय में आचार्य चतुरसैन से मिलते थे। असैम्बली में बम फेंकने के दिन जब उन्हें पता चला कि बलवन्त ही क्रान्ति का दीवाना भगतसिंह है तो वे हर्षातिरेक से उछल पड़े, पर इसी सन्देह में कि आचार्य चतुरसैन के क्रान्तिकारियों से घनिष्‍ठ सम्बन्ध हैं, कुछ ही दिनों बाद क्रान्तिकारियों को दी जाने वाली अमानवीय यातनाओं के लिए बदनाम लाहौर के किले की पुलिस ने दिल्ली की पुलिस को साथ लेकर दिल्ली स्थित आचार्य जी के दवाखाने और प्रेस पर छापा मारा और उनकी मेज पर पड़े उस ग्रन्थ के सभी कागज उठाकर ले गयी, जो बचे वे इस पुस्तक के रूप में पाठकों के सामने प्रस्तुत हैं। इस सम्बन्ध में आचार्य जी स्वयं लिखते हैं– “तलाशी शुरू हुई। प्रेस की, दवाखाने की, घर की और घर से सम्बन्धित सब कमरों की। दिनभर तलाशी होती रही। दोपहर हुआ, शाम हुई। रात हो गयी। सड़क पर घुड़सवार घूम रहे थे। ठठ के ठक लोग जुड़े थे। हमारा खाना-पीना, चूल्हा जलाना उस दिन नहीं हुआ। तलाशी में एक पुर्जा भी मतलब का नहीं मिला। पर पुलिस मेरे बहुत से जरूरी और अधूरे लेख उठाकर ले गयी। उन दिनों मैं दो हजार पृष्‍ठों का एक सांस्कृतिक और राजनैतिक महान् ग्रन्थ ‘तब अब क्यों और फिर’ लिख रहा था। उसका बहुत मैटर ‘बंगभंग’ अंश उन दिनों मेरी मेज पर फैला था। भद्रसेन से उसे पढ़वा-पढ़वाकर खानबहादुर ‘तब अब क्यों और फिर’ की लगभग समूची पांडुलिपि उठाकर ले गये। बहुत थोड़ा अंश ही मैं उनसे बचा सका।” जो अंश आचार्य जी ने बचा लिया था, उसी का अंश इस पुस्तक में है।

 

पहली सलामी
आचार्य चतुरसेन

एक दिन मैं भोजन पर बैठा ही था कि बलवन्त सिंह ने झपटते हुए आकर कहा–झटपट तैयार हो जाइए, मैं टैक्सी लाया हूँ।
वही, लाल अंगारा मुँह, दूज के चन्द्रमा के समान पतली और बाँकी मूँछें, मूँछों के नीचे वैसी ही बाँकी मुस्कराहट, सिर पर अँग्रेज़ी हैट, टर्न काॅलर की शर्ट और निकर, छोटी और तेज आँखें।
मैंने हँसकर कहा–एकदम अर्जेंट आॅर्डर?
जी हाँ, परन्तु समय नहीं है। आप जल्दी कीजिए और माता जी? उसने मेरी पत्‍नी की ओर देखकर कुछ होंठों-ही-होंठों में कहा। परन्तु कहाँ? मैंने प्रश्‍न किया।
असेम्बली में। मैंने कल कहा था न कि वहाँ आज खास दिन है, स्पीकर पटेल इस्तीफा देंगे। स्वराज्य पार्टी वाक आउट करेगी। और भी न जाने क्या कुछ हो जाये। उसके स्वर में तेजी थी, आँखें न जाने क्या सन्देश दे रही थीं और उसके पैर जैसे तपते तवे पर थे।
मैंने कहा–आज आना नहीं हो सकेगा बलवन्त, मुझे एक बहुत ही ज़रूरी काम है। फिर कभी।
फिर कभी नहीं, आज ही। उसने झुँझलाकर कहा। फिर पत्‍नी की ओर देखकर कहा–आप बहुत देर लगायेंगी, जरा जल्द कीजिए, दस बज ही रहे हैं, पहुँचने में दस-पन्द्रह मिनट लग जायेंगे।
पत्‍नी ने मेरी ओर देखा। गाहे-बगाहे यह युवक बलवन्त मेरे पास आ जाता है। विचित्र आदमी है। कभी बच्चों की तरह बेसिर-पैर की बातें करता है, कभी ख़ूब गम्भीर हो जाता है, और कभी गुस्से में आता है तो छोटे-बड़े किसी को नहीं बख़्शता। मैं उसे प्यार करता हूँ। चाहता हूँ, जब आये, उसे दुलार करूँ, कुछ खिलाऊँ-पिलाऊँ। पर बहुत कम ऐसा कर पाता हूँ। एक तांे वह कब आयेगा, और कब चल खड़ा होगा, इसका ठीक-ठिकाना ही नहीं, दूसरे शिष्‍टाचार की भी उसे कोई परवाह नहीं, और खाने-पहनने का तो कभी शौक ही नहीं। मुँहफट कि कभी-कभी मुझे फटकार बैठता है। लेकिन मुझसे बातें ऐसे करता है, जैसे सगे पिता से। ‘बाबू जी’ कहकर सम्बोधन करता है–गुस्से में भी और ख़ुश रहने पर भी। कभी-कभी जब तक चाय-पानी मँगाऊँ, बात करते-करते भाग खड़ा होता है। बिल्कुल सनकी। पर आज कमीज, निकर नयी है। हैट छज्‍जेदार बड़ी बाँकी है। कमीज़ के खुले गले से पुष्‍ट गर्दन ख़ूब भली लग रही है। लाल सुर्ख स्वस्थ चेहरे पर ख़ूब लाल पतले होंठ दिख रहे हैं। अभी उम्र ही क्या है! शायद 24 को पार कर रहा हो। अपना अता-पता कभी बताता नहीं। अर्जुन अख़बार के सम्पादकीय विभाग में अनुवादक है। मेरे पास सिर्फ़ दो कारणों से आता है, या तो फटकारने के लिए या रुपया माँगने के लिए। दाेनों ही मामलों में संकोच और झिझक से रहित। एकदम दो टूक। फटकारता है मुझे कायर कहकर। रुपये माँगता है, तो कहता है, कुछ रुपये दीजिए बाबू जी!
मैं हुज्‍जत नहीं करता। होते हैं तो दे देता हूँ, नहीं तो पत्‍नी के पास भेज देता हूँ। पत्‍नी उसे कभी छूछे हाथ नहीं लौटातीं। रुपया हाथ में न हो, तो भी नहीं। कहीं से बन्दोबस्त कर देती हैं। हम लोग उससे यह नहीं पूछते–‘रुपया करोगे क्या?’ रुपया वह कभी वापस देता भी नहीं। वापस करने की चर्चा कभी करता भी नहीं।
उसने गुस्से से कहा–सारा वक़्त आप यहीं बर्बाद कर देंगे, बाबू जी!
मैंने कहा–मगर पास कहाँ हैं?
ये हैं, उसने जेब से निकालकर दिखा दिये।
मैंने कहा–देखूँ।
देख लीजिएगा रास्ते में, अब आप हाथ धोइए।
क्या खाना भी न खाऊँ?
अब लौटकर खाइयेगा। कुल एक घंटा ही तो लगेगा।
और मैंने हुज्‍जत नहीं की। उठ खड़ा हुआ। पत्‍नी बिना खाये तैयार हो गयीं। चन्द्रसेन भी हमारे साथ था। हम लोग जब एसेम्बली भवन में घुस रहे थे, तब दस बजकर पन्द्रह मिनट हो चुके थे।

एसेम्बली भवन में आज बेशुमार भीड़ थी। दर्शक गैलरी में तिल धरने की जगह न थी। मुझे दर्शकों की गैलरी के द्वार पर छोड़कर बलवन्त न जाने कहाँ गायब हो गया था। पत्‍नी को लेडीज़ गैलरी में बैठाकर मैं अपने बैठने की जुगत सोच रहा था। बैठने की जगह नहीं मिल रही थी। बहुत लोग मेरी भाँति खड़े इधर-उधर भटक रहे थे। मैं बीच-बीच में लोगों के कन्धों पर से उचककर वक़्ता के भाषण का एकाध शब्द सुन लेता था। उस दिन ‘पब्लिक सेफ्टी बिल’ पर बहस हो रही थी। बहस ख़ूब गर्मागर्म थी। पर मुझे कुछ आनन्द नहीं आ रहा था, आराम से बैठने का डौल ही नहीं लग रहा था। मैं भीड़ से उचककर आगे देखने लगा। मोतीलाल नेहरू अपने स्थान से उठकर किसी दूसरे सदस्य के पास जाकर उसके कान में फुसफुसा रहे थे। उधर ही मेरा ध्यान था। एक हल्का-सा धक्‍का खाकर पीछे देखा–रानी मंडी खड़ी थीं। मैं मुँह खोलकर उनसे कुछ कहना ही चाह रहा था कि एक दुबले-पतले-साँवले युवक पर हठात‍् मेरी नज़र पड़ गयी। मैं सोचने लगा, इसे कहीं देखा है। उसने मेरी तरफ़ देखा। मुझे मालूम हुआ, मुझे देखकर उसके होंठ कुछ हिले, पर दूसरे ही क्षण वह आँखों से ओझल हो गया। थोड़ी देर सोचने के बाद याद आया, इस व्यक्ति ने भी चाँद के फाँसी अंक के लिए राजनीतिक फाँसी प्राप्त बन्दियों का बहुत-सा दुष्प्राप्य मसाला दिया था। यह भाग क्यों गया? बात क्यों न की? मैं तेजी से उसी ओर को लपका जिस ओर वह गया था–पर उसका पता नहीं चला।
मैं इधर-उधर नज़र दौड़ा ही रहा था कि सहसा तीर की भाँति तेज़ी से चलता हुआ बलवन्त उधर से गुजरा। वह एक प्रकार से मुझे धक्‍का देता हुआ-सा निकल गया। मैंने उसे पुकारा और एक क़दम उसके पीछे लपका परन्तु उसने इस पर ध्यान नहीं दिया। कुछ देर बाद देखा–थोड़े ही अन्तर पर वह उसी साँवले युवक से धीरे-धीरे कुछ बात कर रहा है। मैं तेज़ी से–कहना चाहिए दौड़कर उसके पास पहुँच गया, परन्तु मुझे आता देख वे दोनों ही भिन्‍न दिशाओं की ओर जाकर एकदम भीड़ में ग़ायब हो गये।
मैं इस अद‍्भुत मामले से चमत्कृत-सा खड़ा सोच ही रहा था कि घंटी बजी। सब लोग आगे बढ़कर कार्रवाई देखने लगे। बहस खत्म हो चली थी और सदस्यगण थियेटर के पात्रों की भाँति इधर-से-उधर वाेट देने को उठ रहे थे। मैं भी और सब बात भूलकर यही देखने लगा।

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