









Hindi Upanyason Mei Dalit Jeewan-Sangharsh / हिन्दी उपन्यासों में दलित जीवन-संघर्ष
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पुस्तक में अध्ययन का आधार बनाए गए उपन्यास स्वातंत्र्योत्तर काल में लिखे गए उपन्यास हैं, जिनमें 1952 में प्रकाशित बाबा नागार्जुन के ‘बचलनमा’ से लेकर 2017 में प्रकाशित विपिन बिहारी का ‘मरोड़’ और सुशीला टाकभौरे का ‘तुम्हें बदलना ही होगा’ के बीच की अवधि के दौरान लिखे गए कुछ उल्लेखनीय उपन्यासों को शामिल किया गया है। ये सभी उपन्यास समाज में व्याप्त सामाजिक-आर्थिक असमानता और शोषण पर केंद्रित अथवा उनसे संबंधित हैं तथा दलित जीवन की समस्याओं, प्रश्नों और चुनौतियों से जूझते हैं। प्रत्येक रचनाकार ने दलितों की जीवन-दशा, दर्द और त्रासदी को अपनी-अपनी दृष्टि से देखा और अनुभव किया है, इसलिए उनकी अभिव्यक्ति के स्वर में भी यह अंतर दिखायी देता है। ‘बचलनमा’ और ‘नाच्यौ बहुत गोपाल’ ब्राह्मणवाद का ठोस प्रतिकार न कर दलितों के प्रति गहरी सहानुभूति व्यक्त करते दिखायी देते हैं तो ‘सूअरदान’ जातिगत भेदभाव और अमानवीयता की गहरी आत्मानुभूति कराता हुआ ब्राह्मणवाद का प्रबल रूप में प्रतिकार करता है। अनुभूति एवं संवेदना का यह अंतर दलित और ग़ैर-दलित लेखकों द्वारा लिखित अन्य उपन्यासों में भी देखा जा सकता है। वस्तुत: वर्ण-व्यवस्था, जातिगत ऊँच-नीच, भेदभाव और उसके आधार पर की जाने वाली घृणा, अपमान और उत्पीड़न के विरुद्ध जितना सशक्त स्वर दलित लेखकों की रचनाओं में मिलता है, वैसा ग़ैर-दलित लेखकों की रचनाओं में नहीं मिलता है। तात्पर्य ग़ैर-दलित लेखकों की रचनाओं को नकारना अथवा उनके महत्व को कम करके आँकना नहीं है, इस पुस्तक में अध्ययन का आधार बने सभी उपन्यास दलित जीवन की संवेदना और समस्याओं को बहुत सशक्त ढंग से उठाते हैं।
अन्याय और शोषण का प्रतिकार तथा शोषित-पीड़ितों की पक्षधरता लेखक की ज़िम्मेदारी और उसका दायित्व है। लेखक व्यवस्था का वहीं तक समर्थन कर सकता है जहाँ तक वह समानता, न्याय और मानवीयता अर्थात लोकतांत्रिक मूल्यों का पोषण करती हो। किन्तु, जहाँ कहीं भी व्यवस्था असमानता, अन्याय, और शोषण की पक्षधर और पोषक तथा मानवता विरोधी हो वहाँ पर लेखक दलित, दमित और शोषितों की पक्षधरता में सत्ता के विरुद्ध खड़ा होता है, चाहे वह राजनीतिक सत्ता हो अथवा सामाजिक सत्ता। वर्ण-जाति के आधार पर समाज को विभाजित और विखंडित करने वाली भारत की विषमतामूलक समाज-व्यवस्था ऐसी ही व्यवस्था है, जिसमें दलित वर्ग अनेक शताब्दियों से वर्ण-जातिगत असमानता, अपमान, उपेक्षा, दमन, उत्पीड़न, घृणा, अन्याय और अस्पृश्यता के शिकार तथा मानवीय अधिकारों से वंचित रहे हैं। उनकी आर्थिक ग़रीबी और शोषण का आधार भी विषमतामूलक और अमानवीय सामाजिक व्यवस्था ही रही है। अपनी आजीविका के लिए वे दूसरों पर निर्भर रहे हैं। धर्म के आवरण में लिपटी इस अमानवीय व्यवस्था ने उनको भूखा, नंगा और पशु से भी बदतर स्थिति में रखा है। सदियों से वे सामाजिक-आर्थिक असमानता और शोषण के विरुद्ध संघर्ष करते रहे हैं। किंतु, समाज की तरह साहित्य में भी वे उपेक्षित और हाशिए पर रहे हैं। लेकिन स्वातंत्र्योत्तर काल में, विशेष रूप से संविधान द्वारा भारत के प्रत्येक नागरिक को समानता, स्वतंत्रता, न्याय के साथ मौलिक अधिकारों के रूप में मानवीय अधिकार प्रदान किए जाने के पश्चात उनके प्रति समाज और साहित्य के दृष्टिकोण में कुछ परिवर्तन हुआ है। इसमें एक ओर गांधी के अस्पृश्यता उन्मूलन की भूमिका रही है तो दूसरी ओर डॉ. अंबेडकर के संघर्ष का दबाव रहा है। गांधी ने यदि सवर्ण हिंदुओं के एक वर्ग को प्रभावित किया तो दलित समाज ने डॉ. अंबेडकर से प्रेरणा और ऊर्जा ग्रहण की। कहने की आवश्यकता नहीं है कि डॉ अंबेडकर दलितों के वैचारिक पिता हैं। दलित संबंधी ग़ैर-दलित लेखकों की रचनाओं में गांधी के हृदय परिवर्तन की छाप दिखायी देती है तो दलित लेखकों की रचनाओं में डॉ. अंबेडकर की अधिकार चेतना का प्रभाव दिखायी देता है। यह प्रभाव इस पुस्तक में विवेचित उपन्यासों में सुखद रूप से दिखायी देता है। यह सुखद है कि इस पुस्तक में आलोचनात्मक अध्ययन का विषय बनाए गए सभी उपन्यास इस दौर के महत्वपूर्ण उपन्यास हैं, जो साहित्य में दलितों की न्यायिक, तार्किक एवं लोकतांत्रिक आवाज़ को कुशलतापूर्वक उठाते हैं और उसका समर्थन करते हैं। ये उपन्यास, साहित्य में दलितों का प्रतिनिधित्व करने के साथ-साथ उनको नेतृत्वकारी भूमिका में खड़ा करते हैं।
पुस्तक में प्रत्येक उपन्यास पर अलग-अलग लेखकों द्वारा लिखे गए आलोचनात्मक आलेख उपन्यासों की समुचित विवेचना प्रस्तुत करते हैं। पुस्तक के प्रारंभ में जाति-व्यवस्था और धर्म पर केंद्रित दो आलेख उपन्यासों के चिंतन और चेतना को समझने में आधार का काम करते हैं। हिंदी उपन्यासों में दलित जीवन, संघर्ष और चेतना को समझने के लिए यह एक महत्वपूर्ण पुस्तक है। मेरा विश्वास है हिंदी साहित्य के पाठकों, छात्रों, शोधार्थियों एवं अध्यापकों के लिए भी बहुत उपयोगी सिद्ध होगी और इसका व्यापक स्वागत किया जाएगा।
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भरत
जन्म : 2 जुलाई, 1989 ई. में साहनी परिवार में हुआ।
आरंभिक शिक्षा : दिल्ली से तथा बी.ए. (देशबन्धु महाविद्यालय) और एम.ए. की उपाधि दिल्ली विश्वविद्यालय से प्राप्त की। एम.फिल. गुजरात केन्द्रीय विश्वविद्यालय, गाँधीनगर से और वर्तमान में यहीं से पी-एच.डी. में शोधरत्।
चालीस से अधिक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों में पत्र-वाचन। दस से अधिक विभिन्न संपादित किताबों में आलेख। बीस से अधिक विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में आलेख और कविताओं का प्रकाशन। दो साझा काव्य-संग्रह ‘काव्य संगम’ और ‘वर्तमान सृजन’ में कविताएँ प्रकाशित। ‘हिन्दी उपन्यासों में आदिवासी जीवन’ किताब का संपादन, ‘मल्लाह और सोन मछरी’ प्रथम काव्य-संग्रह अभी प्रकाशन की प्रक्रिया में।
सम्मान : युवा कवि सम्मान (2014), सुभाषचन्द्र बोस युवा कवि सम्मान (2014)।
वर्तमान : विभागाध्यक्ष (हिन्दी-विभाग), गवर्नमेंट आर्ट्स एंड कॉमर्स कॉलेज, वांकल, गुजरात।
मो. : 8780216553, 9971884008।
e-mail : kumarbhrat2011@gmail.com
मनोज कुमार
जन्म : 24 दिसम्बर, 1989 को ग्राम मेहगाँव, जिला भिंड, मध्य प्रदेश में।
प्रारंभिक शिक्षा : बी.ए. / एम.ए. दिल्ली विश्वविद्यालय। एम. फिल. हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय और हरियाणा केन्द्रीय विश्वविद्यालय में पी-एच.डी. (हिन्दी)। अनुवाद डिप्लोमा इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय। भाषा, पक्षधर, हंस, युद्धरत आम आदमी, रेतपथ, जनकृति इत्यादी पत्रिकाओं में शोध-आलेख प्रकाशित।
रचनाएँ : हिन्दी उपन्यासों में आदिवासी जीवन-संघर्ष (पुस्तक) www . यमराज जीवनदान योजना डॉट कॉम (नाटक), हम आदिवासी कहलाते हैं (कविता) आदि।
सदस्य : हिन्दी साहित्य समिति, युवा हिन्दी साहित्य, मनस्वी आदि।
मो . : 09728424929
e-mail : manojkumaraarya@gmail. com
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