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Hindi Sahitya aur Divyang Vimarsh / हिन्दी साहित्य और दिव्यांग विमर्श – आलोचना

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Language: Hindi
Pages: 168
Book Dimension: 5.5″x8.5″
Format: Hard Back

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अनुक्रम

  • भूमिका
  • सूरदास एक लोकप्रिय गाँधी – डॉ. महेन्द्र सिंह धाकड़
  • दिव्यांगता विमर्श साहित्य में नवीन प्रतिमान एवं आदर्श को गढ़ने का प्रतिष्ठा काल और आवश्यकता –डॉ. गीता शर्मा बित्थारिया
  • दिव्यांग-विमर्श और विकलांग जीवन की कहानियाँ –डॉ. जितेन्द्र कुमार सिंह
  • दिव्यांग में भी छिपा है सफ़ल ज़िन्दगी का तूफ़ान –किशोर दिवसे
  • हिन्दी साहित्य की रचनाओं में विकलांग व्यक्तित्व–एक अध्ययन –नवीन कुमार जोशी
  • सामाजिक संदर्भ में दिव्यांगजन की स्थिति –सिमरन कुमारी
  • इक्कीसवीं सदी में दिव्यांग और दिव्यांगों की दुनिया में हिन्दी कहानी –धीरेंद्र प्रताप सिंह
  • भारतीय समाज में दिव्यांग विमर्श की अवधारणा एवं स्वरूप –डॉ. त्रिभुवन गिरि
  • ‘ज्यों मेहँदी को रंग’ में दिव्यांग जीवन –मीनाक्षी गिरि
  • विकलांग जीवन की रचनात्मक अभिव्यक्ति एवं ज्यों मेहँदी को रंग उपन्यास –डॉ. महात्मा पाण्डेय
  • विकलांगता से दिव्यांगता : एक पुनरवलोकन –वैभव गिरि
  • दिव्यांगों का संघर्ष और 21वीं सदी का हिन्दी उपन्यास – डॉ. राजेंद्र सिंह चूला
  • दिव्यांगों का सामाजिक जीवन : भारतीय समाज के परिप्रेक्ष्य में –डॉ. वन्दना
  • लेखकों के बारे में
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Description

पुस्तक के बारे में

हिन्दी साहित्य जगत में 21वीं सदी विविध विमर्शों की सदी के रूप में जानी जाएगी। विमर्शों का दौर भारतीय सामाजिक जागरण की पराकाष्ठा को दर्शा रहा है। इस जागरण का बीजारोपण भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के काल में हुआ था। व्यक्ति जागता है यानी चेतनावान होता है तो स्वयं पर दृष्टिपात करने के साथ समाज की दशा-दिशा को भी गंभीरता और बारीकी से देखता है कि सुधार और विकास के लिए कहाँ अवकाश है। इसी तरह समाज जागृत होता है तो वह स्वयं और अपने आस-पास पर दृष्टि डालने के साथ राष्ट्र की दशा-दिशा पर भी विचार करता है। यह समष्टिगत दृष्टि ही साहित्य का, विमर्शों का उपजीव्य है। विमर्श रचना और रचनाकार दोनों को परिष्कृत करते हैं। हिन्दी गद्य साहित्य की पाँच मुख्य विधाओं में आलोचना विधा सम्मिलित है। विमर्श नयी रचनाओं को अवकाश देने के साथ आलोचना विधा को समृद्ध भी करते हैं। आलोचना और समीक्षा के मूल में विमर्श उपस्थित होते हैं।
आधुनिक काल का हिन्दी साहित्य चाहे वह गद्य हो या पद्य, हर तरह के विमर्शों से आपूरित है। स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श, बाल विमर्श, वृद्ध विमर्श, किन्नर विमर्श के बाद अगली कड़ी के रूप में दिव्यांग विमर्श अब साहित्य की विषय वस्तु बना हुआ है। साहित्यकार होने की शर्त ही है कि वह अति संवेदनशील हो। जो संवेदनशील है वह समाज के हर स्तर पर, हर कोने पर, हर कदम पर दृष्टि रखता है। समाज का दर्पण बनकर समाज की हर आवश्यकता, अभाव, विकृति, सुकृति को अपनाकर अभिव्यक्त करता है। समाज के हर व्यक्ति को उसका अधिकार मिले वह शोषण से मुक्त हो, साथ ही वह अपने कर्तव्यों का निर्वहन भी अनुशासित रहकर करे यह सुनिश्चित हो, यह भी देखना और दिखाना साहित्य का धर्म है। इसी धर्म का निर्वाह करते हुए अब साहित्य की दृष्टि दिव्यांग जनों पर पड़ी है। दिव्यांगता अंगों के विविध प्रकारों के अनुरूप विविध प्रकार की होती है। कोई हाथ से लाचार है, कोई पैरों से, कोई देख-सुन नहीं पाता और कुछ में समझ की कमी होना जिनकी संख्या में लगातार बढ़ोतरी होती जा रही है। इनके जीवन यापन की सामग्री और साधन जुटाना समाज और राष्ट्र दोनों का दायित्व है। प्रशासन इनके लिए क्या कर सकता है और समाज इनके लिए क्या कर सकता है? क्या करना चाहिए जिससे ये आत्मनिर्भर बनकर आत्मसम्मान के साथ जीवन व्यतीत कर सकें जो मनुष्य की प्रथम आवश्यकता है। इनके लिए चलने-फिरने, सुनने-समझने, पढ़ने-लिखने के वैज्ञानिक साधन सरकार उपलब्ध करा सकती है, तो उपलब्ध करा रही है या नहीं…?
इन दिव्यांगों की मन:स्थिति का मनोवैज्ञानिक अध्ययन करना कि कब ये कैसा सोचते हैं, कैसा अनुभव करते हैं, क्या चाहते हैं, कौन सी बात या गतिविधि इन्हें तकलीफ देती है। इन तमाम प्रश्नों को लेकर, जिज्ञासाओं को लेकर अनेक लेख, कहानियाँ उपन्यास लिखे जा रहे हैं। कुछ यथार्थ पर आधारित हैं तो कुछ कल्पना पर। कविताएँ लिखी जा रही हैं। नाटक लिखे और मंचित किए जा रहे हैं। दिव्यांगता ईश्वर प्रदत्त भी होती है तथा संसार में आने के बाद किन्हीं दुर्घटनाओं का शिकार होने पर भी उत्पन्न होती है। दिव्यांगता शारीरिक भी होती है और मानसिक भी। इनके प्रभाव भी दिव्यांगों को अलग-अलग व्यक्तित्व प्रदान करते हैं। कुछ दिव्यांग अपनी दिव्यांगता को स्वीकार कर विनम्र उदार सेवा-भावी हो जाते हैं जैसे प्रेमचंद का पात्र सूरदास और कवि सूरदास। कुछ दिव्यांग कुंठा ग्रस्त होकर विकृत व्यक्तित्व धारण कर लेते हैं। उनका दृष्टिकोण, सोच और प्रयास सब नकारात्मक हो जाते हैं। अत: अपने-अपने व्यक्तित्व के कारण भी ये समाज से वही पाते हैं, जो देते हैं। अब समाज इनकी स्वाभाविक प्रतिक्रिया को समझे और इन्हें कुंठा रहित श्रेष्ठ मानव बनने के साधन और परिवेश उपलब्ध कराए यह उसका औदार्य होगा। होना भी चाहिए।
विमर्श इन्हीं पर है। दिव्यांगों का यथार्थ क्या है, साहित्यकार क्या रच रहा है। क्या यह प्रभावशाली है? क्या इस तरह के साहित्य को पढ़कर, कहानी, कविता, उपन्यास, नाटकों को पढ़कर समाज दिव्यांगों के प्रति संवेदनशील हुआ है? सरकार इनके प्रति अपना दायित्व निभा रही है?

….इसी पुस्तक से…

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