







Guru Nanak Dev Ji : Vyaktitatva aur Vichardhara <br> गुरु नानक देव जी : व्यक्तित्व और विचारधारा
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Author(s) — Ravindra Gasso
लेखक — रविन्द्र गासो
| ANUUGYA BOOKS | HINDI | Total 190 Pages | 2022 | 6 x 9 inches |
| available in HARD BOUND & PAPER BACK |
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पुस्तक के बारे में
गुरु नानक देव जी सिक्ख-पन्थ के प्रवर्तक प्रथम गुरु हैं। आपका व्यक्तित्व और विचारधारा पन्थ, प्रान्त, देश या किसी एक धर्म की सीमा में बँधा हुआ नहीं है। आप महान मानवतावादी युग-द्रष्टा और युग-स्रष्टा विलक्षण सन्त थे। आपका जन्म 15-04-1469 ईस्वी (03 बैसाख सुदी 1526 विक्रमी) को लाहौर से कुछ दूर राय भोए की तलवंडी (अब ननकाना साहिब, पाकिस्तान) गाँव में हुआ था। माता जी का नाम त्रिपता और पिता जी का नाम मेहता कालू चन्द (कल्याणदास) था। 22-09-1539 ईस्वी (23 आश्विन, 1596 विक्रमी संवत) को आपका देहान्त हुआ था। प्रारम्भिक 27 वर्ष आप गृहस्थ जीवन में रहे। संस्कृत, फारसी, पुरातन विद्या, हिसाब-किताब, राजस्व आदि की शिक्षा ली। सुलतानपुर लोधी में बहन नानकी के ससुराल में नवाब के मोदीखाने के कारदार रहे। पत्नी का नाम बीबी सुलखनी जी था। बहन का नाम नानकी (गुरु जी की सबसे प्रिय) और जीजा भाई जय राम जी थे। दो पुत्र श्रीचन्द (जन्म 1494 ई.), लखमी चन्द (जन्म 1496 ई.) थे। बड़े पुत्र श्री चन्द उदासीन सम्प्रदाय के संस्थापक हुए लेकिन नानक जी ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी बनाने के योग्य नहीं पाया।
गुरु जी ने 25 वर्ष बड़ी यात्राओं (उदासियों) द्वारा बगदाद (ईरान) से लेकर ढाका (बाँग्ला देश) तक काश्मीर से लेकर श्रीलंका तक का भ्रमण किया। सभी धर्मों-मतों के विद्वानों के साथ संवाद किया। अन्तिम 18 वर्ष करतारपुर, रावी नदी के तट पर स्वयं बसाये गाँव में रहे। यहीं पर ‘किरत करो (श्रम करो)– वंड छको (बाँट कर खाओ)– नाम जपो’ के सिद्धान्त पर आधारित सिक्ख-पन्थ का प्रवर्तन किया। लंगर-प्रथा का महान संकल्प संगत और पंगत (पंक्ति में सब बराबर) के सिद्धान्त पर स्थापित किया। करतारपुर में ही अपनी समस्त वाणी को मौखिक से लिखित रूप दिया। 15 अन्य सन्तों की चुनिन्दा रचनाओं को मिलाकर गुरु जी ने अपनी वाणी की ‘पोथी’ बनायी जो द्वितीय गुरु अंगद देव जी को सौंपकर अपनी सोच और विचारधारा को मानवता के कल्याण हेतु सुरक्षित, संरक्षित और सम्पादित करने का ऐतिहासिक कार्य किया। यही वाणी पाँचवें गुरु श्री गुरु अर्जुन देव जी द्वारा ‘श्री गुरु ग्रन्थ साहिब’ में संकलित की गयी अन्य चार गुरुओं व भक्तों की वाणी सहित। फिर दसवें गुरु श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी ने ‘श्री गुरु ग्रन्थ साहिब’ को पुन: सम्पादित कर उसमें गुरु तेग बहादुर जी की वाणी को शामिल किया और इसे ‘प्रकट गुरु’ की उपाधि दी।
गुरु नानक देव जी की समस्त वाणी 19 रागों में है। जपुजी साहब, सिध गोसटि, सोदर, सोहिला, आरती, रामकली, दखणी ओअंकार, आसा दी वार, मलहार ते माझ की वार, पटी, बारहमाहा आदि– यह है नानक वाणी। उनकी वाणी कुल 974 पदों में है।
गुरु नानक देव जी की वाणी में बाद में कोई मिश्रण नहीं हुआ जबकि ऐसा उस काल या पूर्व के काल की मौखिक परम्परा के कारण अन्य सभी कवियों की रचनाओं में हुआ।
नानक जी की सोच की बुनियाद धर्म-निरपेक्ष और जाति-प्रथा उन्मूलन की रही है। आपने हिन्दू-मुस्लिम सबको बराबर समझा। उन्हें पहला इल्हाम सुलतानपुर लोधी में वेईं नदी में जो हुआ था वह सन्देश है– ‘न कोई हिन्दू है, न कोई मुसलमान है।’ यह प्राणी-मात्र को अकाल पुरख प्रभु की रचना मानने का घोष है। सम्पूर्ण जीवन व विचारधारा में कहीं भी कभी भी गुरु नानक देव जी ने हिन्दू-मुसलमान में और जाति आधारित भेद नहीं किया।
…इसी पुस्तक से…
गुरु नानक देव जी सीधे लालो नाम के एक तरखान (बढ़ई) के घर चले गये। वह अपना लकड़ी का काम कर रहा था। परिचित और आत्मीय अन्दाज में उनसे पूछा कि “सारी उम्र काम ही करता रहेगा भाई लालो?’ अपने खुरदरे श्रमिक हाथ जोड़ भाव-विह्वल लालो ने गुरु जी का स्वागत किया। उन्हें ग्राहकों के लिए बनाये लकड़ी के पीढ़ों पर बैठाकर स्वयं घर से उनके खाने के लिए कुछ बनाने के लिए चला। लालो द्वारा बनायी कोधरे (खेतों में स्वत: उगने वाला अनाज जो गरीबों के लिए सहज-सुलभ होता है) की रोटी पर साग का पेड़ा गुरु जी बड़े आनन्द से रस-विभोर होकर तृप्त भाव से खा रहे थे और मेजबान से धीमे-धीमे स्वर में बातें भी कर रहे थे। भाई लालो को उनके सवाल का मर्म समझ आ गया था कि सच्चे मन से मेहनत की कमाई और भी कई गुणा बरकत वाली (ईश्वर-प्रदत्त सौभाग्य) और आनन्द-मंगलकारी बनेगी अगर प्रभु नाम का सिमरण हो। भाई लालो के अनुनय-विनय पर कुछ दिन उसके यहाँ ठहराव किया। वहीं दूसरी ओर भाई मरदाना अपने मालिक के अजीबो-गरीब व्यवहार से बड़ा हैरान-परेशान हो रहा था कि गुरु जी ने शहर के अमीरों को छोड़कर इस अति गरीब का घर क्यों चुना। मरदाने को तो अच्छे खाने से मतलब था। खाना उसकी कमजोरी थी। लेकिन मसला एक और था और वह था कि गुरु जी द्वारा तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था की सीमाओं का अतिक्रमण। शहर के हिन्दू बाशिन्दों में बात फैल गयी कि एक ऊँची जाति का खत्री धर्म गुरु शूद्र लालो के घर रह रहा है और एक मुसलमान को भी साथ लिये हुए है। लोगों ने उन्हें पथ-भ्रष्ट कहा। यह तो भविष्य को ही पता था कि गुरु जी बड़ी क्रान्ति की नींव डाल रहे थे।
इसी दौरान स्थानीय मुसलमान शासक के एक बड़े हिन्दू अधिकारी मलिक भागो ने बड़े सामूहिक भोज का आयोजन किया। बड़े लोग अपनी शानो-शौकत के लिए कभी-कभी ऐसा करते थे। भोज का निमन्त्रण सैदपुर शहर व पड़ोस-गवाँड़ के सभी उच्च जाति के हिन्दुओं व साधु-फकीरों को दिया गया। भोज निश्चित दिन भव्य-विशाल ढंग से सम्पन्न हुआ। लेकिन निमन्त्रण के बावजूद गुरु नानक देव जी वहाँ नहीं गये। मलिक भागो ने फिर दूत भेजकर गुरु जी को बुलाया। गुस्सेवाले स्वर में पूछा कि सारा शहर मेरे घर भोजन करने आया और तुमने मेरा निमन्त्रण नहीं माना। ‘क्या उस शूद्र का खाना मेरे खाने से अच्छा था?’ गुरु जी ने उत्तर दिया– ‘मैं तो जो परमात्मा देता है, छक (ग्रहण कर) लेता हूँ। उस अकाल-पुरख की नजरों में कोई जाति-वर्ण नहीं है।’
मलिक भागो ने कहा कि ‘तो तो जो हमारे यहाँ मिलता है वह भी खाना चाहिए।’ फिर उसने अपनी रसोई में बने पकवान मँगवाये। गुरु जी लालो को अपने घर का खाना लाने के लिए कहा। ‘बाला जन्म साखी’ के अनुसार गुरु जी ने दायें हाथ में कोधरे की रोटी, दूसरे हाथ में मलिक भागो के पकवान लिए। फिर दोनों हाथ भींच दिये, कोधरे की रोटी में से दूध और पकवानों मेे से लहू के कतरे निकले। लोगों की मजलिस आश्चर्य-चकित थी।
…इसी पुस्तक से….
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Weight | 400 g |
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Dimensions | 9 × 6 × 0.5 in |
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