







Ghatshila (Novel) / घाटशिला (उपन्यास)
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पुस्तक के बारे में
किसी जगह या आदमी या समूह का इतिहास एक तथ्यात्मक दस्तावेज़ होता है, और औपन्यासिक गल्प उन्हीं का भावात्मक दस्तावेज़। एक ही भूगोल, लोक और समाज की कथा कहते हुए दोनों में फर्क यह होता है कि इतिहास को प्रमाणों से साबित किया जा सकता है और गल्प किसी साक्ष्य के बिना ही ऐसा असरदार होता है, अगर उसे ऐसा किसी निश्चित ध्येय से निर्मित किया जाये, कि उसकी प्रामाणिकता के लिए श्रम करना द्वितीयक हो जाता है। जीवन का बोध लेखक को जिस तरह है उसे वह शब्दों और शाब्दिक भंगिमाओं के सहारे व्यक्त करता है; और पाठक का जीवनबोध इसे सत्यापित करता है या खारिज करता है। एक लेखक के तौर पर हमारी कामयाबी इस खारिज होने से बच जाने में है, इसी से बाकी उद्देश्य भी पूरे हो जाते हैं।
उपन्यास एक ठोस कहानी कहता है और नहीं कह भी सकता है! यानी एकमात्र कथा की जगह आधार कथ्य के साथ एकाधिक कथाएँ संश्लिष्ट होकर संगुफित हो सकती हैं। दुनिया में किस्से रोज बनते हैं, आलोक धन्वा की तर्ज़ पर कि ‘दुनिया रोज बनती है’ और दुनिया के जीवन में, उसके इतिहास में हिस्सा बनते जाते हैं। समय के बहाव में उड़ती जातीं इन कथा छायाओं को अपने बूते भर समेटकर कोलाज बनाना एक चुनौती है, और दूसरी चुनौती उनके अर्थ को बरकरार रखकर अभिप्रेत समझ के साथ सम्प्रेषित करने की है।
उपन्यास के पहले शब्द या पहली पंक्ति, पहले पैराग्राफ या पहले अध्याय से जो मूड या अर्थ सामने आता दिखता है, वह अन्तिम शब्द या आखिरी पंक्ति, आखिरी पैराग्राफ या अन्तिम अध्याय तक आते-आते बदल भी सकता है। और इस समय और जीवन की विचित्रताओं और अनिश्चितताओं की तरह यह खुद लेखक में ही घटित होता है और अन्तिम चीज जो लफ्जों के एक विशालकाय पुलिंदे के रूप में वह रखता है, उसका आशय लिखना शुरू करने के वक्त से लेकर रुकने तक, इसी बीच कहीं, निश्चित हो गया होता है। उद्देश्य, लक्ष्य और ध्येय के प्रति तयशुदा मानसिकता भी होती है और कभी-कभी नहीं भी। किसी लेखक के लिए होती है और अन्य के लिए नहीं भी। लिखते हुए हम कहाँ से चले थे और कहाँ पहुँचे, यह आखिर में पता चलता है। फिर मुड़ कर देखा जाता है और असली ज़िन्दगी के विपरीत, बीते हुए रास्तों के गड्ढों, उबड़-खाबड़पन पर नज़र डालकर माँजा जा सकता है। चेखव ने बड़े अच्छे से कहा है, काश कि हम इसी जिन्दगी में अपनी जिन्दगी की रफ़ कॉपी को फ़ेयर कर सकते। यही विडम्बना या जीवन की सीमा कहिये, जिन्दगी को नहीं कर सकते, जीवन के भावात्मक दस्तावेज को कर सकते हैं… कई दफे कर सकते हैं!
एक जगह की ज़िन्दगी एक दौर की भी जिन्दगी होती है। यह जो आपके हाथ में आयी है और आगे अगर आप चाहेंगे, आपके जेहन में गूँजेंगी, एक जगह, दौर और उसके लोगों की; हाल और माजी की, बतौर एक तरफा गुफ्तगू, बमुश्किल कही जा सकी है।
–कुछ बातें अपनी ओर से
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