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Es Sadi kee Umar (Vikram Soni ka Laghukatha-Sahitya) <br> इस सदी की उम्र (विक्रम सोनी का लघुकथा-साहित्य)
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Language: Hindi
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Editor(s) – Ashok Bhatia
संपादक — अशोक भाटिया
| ANUUGYA BOOKS | HINDI | 176 Pages | 6.125 x 9.25 Inches |
| available in PAPER BACK & HARD BOUND | 2022 |
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विक्रम सोनी
जन्म : 25 मई, 1943, महलपारा, तहसील बैकुंठपुर, जिला सरगुजा (म. प्र.) के सामान्य सुनार परिवार में। पिता आजीवन सुनारी का काम और छोटे-से खेत व घर के पीछे बाड़ी में अकेले खेती करते रहे। शिक्षा : यान्त्रिकी (मेकेनिकल) डिप्लोमा, एम.ए. हिन्दी, साहित्य रत्न, साहित्य सुधाकर। व्यवसाय : प्रारम्भिक वर्षों में फोटोग्राफर व घड़ीसाज़ रहे। 1964 से आई.टी.आई. अम्बिकापुर में अनुदेशक (Instructor) के रूप में आरम्भ कर प्राचार्य व सह-निदेशक के पदों पर रहे। 2004 में सेवानिवृत्त। साहित्यिक यात्रा : 1963 से गीत-ग़ज़ल लेखन। कवि-सम्मेलनों में भागीदारी व संचालन। 1973 में इन्दौर में स्थानान्तरण। वरिष्ठ सहयोगी, नामी कथाकार राजेन्द्र कुमार शर्मा के सान्निध्य में कहानी-लेखन आरम्भ। कुल 63 कहानियाँ लिखीं, जिनमें अग्निपरीक्षा, फालतू, चिनगारियाँ, पेट का गणित, कटे पंजे, चक्रवात, फाँस, ढोलकिया आदि बहुचर्चित रहीं। ‘धर्मयुग’ में पहली कहानी ‘सुख के प्रत्याशी’ 24 अगस्त, 1980 के अंक में तथा ‘गोइंठे की आग’ 4 मार्च, 1984 के अंक में छपी। 1974 में पहली लघुकथा ‘चश्मा’ लिखी। फिर इस दिशा में कलम चल निकली। सन् 1980 तक लघुकथा-लेखन का बुखार चढ़ चुका था। लघुकथा के लिए संघर्षरत लघुकथाकारों की जमात के साथ आ खड़े हुए। डॉ. सतीश दुबे द्वारा कई बार मना करने के बाद आखिर ‘आघात’ नाम से लघुकथा की सम्पूर्ण, त्रैमासिक पत्रिका का प्रारम्भ जनवरी 1981 में कर दिया, जो तीन अंकों के बाद ‘लघु आघात’ हो गयी। प्रकाशन की भी जिम्मेवारी लेते हुए चन्दा इकट्ठा करने के लिए ‘कटोरा’ लेकर निकल पड़े। विज्ञापन के लिए देश की राजधानी से लेकर प्रदेश की राजधानी तक चक्कर काटते रहे। जिद्दी स्वभाव और लघुकथा आन्दोलन से जुड़ाव के कारण रुपए जुटाने, लघुकथाकारों से मुलाकात, लघुकथा सम्मेलनों के आयोजन आदि के लिए शहर-दर-शहर भटकते रहे। सन् 1982 में बस्तर में डॉ. महेन्द्र कुमार ठाकुर द्वारा आयोजित तथा 1984 में गंज बासौदा में आयोजित लघुकथा सम्मेलन मील का पत्थर साबित हुए, जिनमें विक्रम सोनी की सक्रिय भूमिका रही। ‘लघु आघात’ का अन्तिम अंक 1989 में आया। इसके प्रकाशन के लिए खोली गयी प्रिंटिंग प्रेस और ‘महत्त्व प्रकाशन’ 1993 तक बन्द हो गयी। साहित्य भी 1996 के बाद पूरी तरह छोड़ दिया। ज्येष्ठ पुत्र के साथ विवाद होने के बाद न्यायाधीश की तरह पेन की निब तोड़ी और डेस्क में पटक दी, फिर स्याही वाले पेन से कभी नहीं लिखा। सन् 1998 के आस-पास देश के कुछ प्रतिष्ठित तन्त्र-विज्ञानियों के सम्पर्क में आ गये। तन्त्रज्ञानी और उपदेशक के रूप में ‘आचार्य विक्रम जी’ तब तक रहे, जब तक (2007 में) बीमार नहीं हो गये। प्रकाशन : ढाई सौ से अधिक छोटी-बड़ी पत्रिकाओं तथा तीस से अधिक संकलनों में लगभग तीन सौ लघुकथाएँ, ढाई सौ काव्य-रचनाएँ तथा पचास कहानियाँ प्रकाशित। लघुकथा-संग्रह : उदाहरण (जनवरी 1989, तीस लघुकथाएँ)। सम्पादन : (1) सन् 1981 से 1989 तक लघुकथा की त्रैमासिक पत्रिका ‘लघु आघात’ का सम्पादन व प्रकाशन। पहले तीन अंक ‘आघात’ नाम से। (2) लघुकथा-संकलन ‘मानचित्र’ (1983), ‘छोटे-छोटे सबूत’ (1984), ‘पत्थर से पत्थर तक’ (अक्टूबर 1985) तथा ‘लावा’ (जनवरी 1987)। निधन : 04 जनवरी, 2016। परिवार सम्पर्क : कमल सोनी, आई-169, रविशंकर शुक्ल नगर, इन्दौर-452008 (मध्य प्रदेश)। मो. : 98260-59920.
पुस्तक के बारे में
…ऋग्वेद में पितृ-पूजा कथा, शतपथ ब्राह्मण में गन्धर्वों की कथा, उपनिषद् में दार्शनिक व्याख्या कथा उद्धृत है। बौद्ध, जैन, रामायण और महाभारत की लघु (उप) कथाओं को भी प्राचीनकाल की सीमा में ले सकते हैं।
बुद्ध से पूर्व सुदूर पर्वतीय अंचलों में घुमक्कड़, जीवन से विरक्त साधु-संन्यासी छोटी-छोटी कहानियों के जरिये लोगों को शिक्षात्मक उपदेश दिया करते थे। इन्हीं कथाओं को बौद्ध तथा जैनियों ने अपने-अपने ढंग से कहकर प्रचारित किया। बुद्ध की समकालीन कथाएँ ‘इतिबुद्धक’ में संग्रहीत हैं। इन कथाओं में सत्य को राजाओं, बौद्धभिक्षुओं और युद्धरत योद्धाओं के चित्र रूप में ही विशेष रूप से संकलित किया गया है। बुद्ध के बाद जातक कथाओं का समय आया। इनमें उपदेशात्मक स्वर ज्यादा था और सत्यता नहीं के बराबर। व्यंग्य लघु-कथाओं का जन्म इसी काल से माना जा सकता है। इस समय की एक विशिष्ट लघुकथा का उदाहरण ‘बुद्धिस्ट इंडिया’ में श्री टी. डब्ल्यू. हॉसडेविड ने एक व्यंग्य लघुकथा उद्घृत करके दिया है। देखिए– ‘एक बार एक बन्दर राजा के महल को देखकर लौटा। उसके साथी बन्दरों ने उसे घेरकर सब हाल पूछा। बन्दर ने उत्तर दिया– वे रात-दिन चिल्लाते रहते हैं कि यह स्वर्ण मेरा है। यह मेरी है। वे सब मूर्ख हैं। कभी सत्पथ की दृष्टि से नहीं देखते। उस घर के दो ही स्वामी हैं। एक के दाढ़ी नहीं है, लेकिन ऊँची छातियाँ हैं। कानों में छेद हैं, बाल काढ़े हुए हैं। उसने सब पर आफत ढा रखी है।’
जैनी लघुकथाओं के तीर्थंकरों की कथाएँ, डाकुओं, व्यापारियों की कथाएँ हैं। इनमें कहीं भी वैदिक काल की तरह का चमत्कार नहीं मिलता। वे सब संसार की कल्पना करती हुई कथाएँ हैं। हरिभद्र द्वारा रचित ‘प्राकृत कथा साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास’ के पृष्ठ 48 से 60 के बीच उस युग की तमाम लघुकथाओं का ब्यौरा मिल जाता है।
अन्त में महाभारत और रामायण की लघुकथाएँ आती हैं। इन दोनों ग्रन्थों में एक लम्बी कथा है, जिसके अन्तर से बहुत सारी अन्तर्लघुकथाएँ जन्मती हैं। ये लम्बी कथा से जुड़ी रहकर भी स्वतन्त्र हैं। उदाहरणार्थ उस समय (रामायण-कालीन) न्याय-व्यवस्था पर उत्कृष्ट लघुकथा वाल्मीकि रामायण के उत्तर कांड के 72वें सर्ग में गीधराज और उल्लू की लड़ाई-झगडे़ की कथा में मिलती है।
पंचतन्त्र, हितोपदेश की लघुकथाओं में सबसे पहले पंचतन्त्र को लिया जाना चाहिए। वास्तव में लघुकथा विकास की यही पहली सीढ़ी है।
…इसी पुस्तक से
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