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Devdaar ke Tung Shikhar se (Ek Vaishvik Sahityik Yatra) देवदार के तुंग शिखर से (एक वैश्विक साहित्यिक यात्रा)

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Language: Hindi
Book Dimension: 5.5″x8.5″

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Author(s) — Vijay Sharma
लेखक — विजय शर्मा

| ANUUGYA BOOKS | HINDI| 240 Pages | 5.5 x 8.5 Inches |

| Book is available in PAPER BACK & HARD BOUND |

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SKU: 9788193340097

Description

…पुस्तक के बारे में…

‘देवदार के तुंग शिखर से’ पुस्तक का यह नाम देने के पीछे कारण है। इस पुस्तक में जितने रचनाकारों पर आलेख हैं वे सब देवदार की तरह हैं, ऊँचे, मजबूत और दीर्घायु। भौतिक रूप से सब साहित्यकार दीर्घायु नहीं हैं, हो भी नहीं सकते हैं। भौतिक शरीर की अपनी सीमा होती है। लेकिन ये दीर्घायु हैं अपनी रचनाओं के बल पर। इसकी रचनाएँ काल की सीमा के परे जाती हैं। सौ-दो सौ साल बाद भी पढ़ी जाती हैं, याद की जाती हैं, चर्चा-विमर्श का केन्द्र बनती हैं। देवदार ऊँचाई पर पाया जाने वाला वृक्ष है, ऊँचा, मजबूत और सम्मानजनक। ये साहित्यकार भी सम्मानजनक हैं और ऊँचाई पर भी स्थित हैं। विपरीत परिस्थितियों में भी देवदार सीधा-सतर खड़ा रहता है। इस सदाबहार पेड़ की जड़ें अपनी धरती में मजबूती से गहरी धँसी होती हैं। जड़ें धरती की गहराई से अपना जीवन सत्त ग्रहण करती हैं। कम-से-कम पानी की मात्रा से जीवन सींचती हैं। तूफान और बाढ़ में भी यह नहीं उखड़ता है। इसे आसानी से नहीं हिलाया जा सकता है। इसकी पत्तियाँ नुकीली-कँटीली लेकिन हरी-भरी होती हैं। नुकीली होती हुई भी आदमी और जानवर की तीखी धूप तथा गर्मी से सुरक्षा करने में सक्षम। अन्य वृक्षों की बनिस्बत इसकी पत्तियाँ बहुत कम मात्रा में जल समेट कर रखती हैं। वे लालची नहीं होती हैं। इस वृक्ष में इसीलिए संग्रह की न्यूनतम मात्रा होती है। यह बेकार का बोझ नहीं ढोता है। बरसात का न्यूनतम पानी ले कर अधिकतम जल बिना रुकावट धरती पर बहने देता है ताकि अन्य जीवों का अधिकतम पोषण हो सके। इन रचनाकारों ने भी समाज से जितना लिया उसे कई गुणा बढ़ा कर समाज को लौटाया। देवदार खुले में निष्कवच खड़ा होता है, रचनाकार भी समाज के आदर साथ-साथ आलोचना के आघात झेलता है। इनका ऑथेंटिक लेखन समाज को दिशा देने के लिए समाज की तत्कालीन दशाओं का चित्रण करता है। दिशा देने का प्रयास करता है। सच्चा रचनाकार आलोचना से घबराता नहीं है और न ही घबरा कर अपना रचनाकर्म बन्द करता है। इसीलिए यह शीर्षक।
पुस्तक दो खण्डों में विभाजित है। एक खण्ड में विदेशी साहित्यकार हैं तो दूसरे खण्ड में भारतीय रचनाकार हैं। परिशिष्ट में दो आलेख हैं, एक उन पुस्तकों पर केन्द्रित है जिनका प्रकाशन सौ वर्ष पूर्व 1916 में हुआ था। दूसरा लेख रूसी क्रान्ति के सौ वर्ष पूरे होने पर लिखा गया है।
समय-समय पर ये लेख लिखे गये हैं। कभी किसी रचनाकर की जन्म शताब्दी, द्विशती के अवसर पर कभी किसी साहित्यकार की मृत्यु के सौ साल होने पर। कभी पत्रिकाओं ने अपने विशेषांक निकाले और लेख की माँग की तो इन्हें लिखा गया और कभी स्वयं ही मन में विचार आया और आलेख बना। कभी किसी सेमीनार में प्रस्तुत करने के लिए लेख लिखा गया। इन लेखों का उद्देश्य मात्र रचनाकारों को स्मरण करना नहीं है। इस बहाने इनकी कृतियों को फिर से देखने-पढऩे का मौका मिला और समझ में कुछ और इज़ा$फा हुआ। इनके जीवन को जानते-समझते हुए जीवन की समझ थोड़ी और बढ़ी। इन बातों को लेख का बाईप्रोडक्ट कह सकते हैं, जो मूल से अधिक कीमती हैं।
सौ-दो सौ साल बाद भी अगर किसी को उसके जन्म अथवा मृत्यु पर याद किया जा रहा है तो उसमें अवश्य कुछ खासियत रही होगी। चाहे वह व्यक्ति हो अथवा रचना। या फिर कोई आन्दोलन। आन्दोलन समाज में परिवर्तन के लिए किये जाते हैं। आवश्यक नहीं कि हर आन्दोलन से सकारात्मक परिवर्तन ही हो। हाँ, आन्दोलन की शुरुआत वर्तमान की बुराइयों को दूर करने और एक बेहतर भविष्य की कल्पना और विचार के साथ होती है। अक्सर आन्दोलन शुरू करने वालों के मन में आदर्श भावना होती है लेकिन बाद वाले लोग इसे अपना स्वार्थ साधने, अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति का साधन बनाने से नहीं चूकते हैं। कभी-कभी आन्दोलन अपनी परिणति को प्राप्त करता है, कई बार बीच में बिखर कर टूट जाता है। सफल हो अथवा असफल, हर आन्दोलन के परिणाम दूर-दूर तक असर डालते हैं। रूस की क्रान्ति के परिणाम बहुआयामी हुए, उन्होंने न केवल रूस की तस्वीर बदल दी वरन समस्त विश्व को प्रभावित किया। मैंने अपने आलेख में रूसी क्रान्ति के केवल एक पहलू को लिया है, फिल्म निर्माण पर पड़े इसके प्रभाव को। रूस की बदलती राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक परिस्थिति के कारण वहाँ फिल्म रील के कच्चे माल की किल्लत हो गयी। इसी कमी से जूझते हुए वहाँ के फिल्म बनाने वालों ने कुछ प्रयोग किये। आगे चल कर ये प्रयोग फिल्म विधा की शैली में शुमार हो गये। साथ ही हम यह भी देखते हैं कि रूस में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता बाधित हुई और कई सृजनशील लोग रूस के बाहर जाने को मजबूर हुए जो देश में ही रह गये वे तरकीब निकाल कर अपनी बात कहने लगे।

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