







Avasambhavi / अवश्यम्भावी (महाभारत की घटनाओं का नाट्य रुपांतरण) -Mythological, Play
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पुस्तक के बारे में
दुर्योधन– देव! तेरा विधान अटल है। मनुष्य तेरे हाथों की कठपुतली मात्र है। योग्यता, शक्ति, सामर्थ्य के होते हुए भी असफलता की प्राप्ति तेरी कृपादृष्टि का ही परिणाम है। शक्ति एवं विवेक तुम्हारे मुखापेक्षी हैं। इसी कारण मनुष्य की समस्त योजनाएँ तुम्हारे सम्मुख असफल हो जाती हैं।
यदि यह सत्य न होता, तो मैं आज इस स्थिति में कदापि न होता। समर में यमराज का भी प्रतिरोध करने वाले भीष्म, द्रोण, कृप और कर्ण से सुरक्षित, ग्यारह अक्षौहिणी सेना के स्वामी की यह दशा!
देशपति– जिसकी आज्ञा का पालन कर अपने को गौरवान्वित अनुभव करते थे, वह अकेला मिट्टी में पड़ा हुआ है।
समय की गति निश्चय ही बलवान होती है।
मैंने सुहृद्धों के शुभ कथनों की उपेक्षा कर दम्भ भरा जिस समर यज्ञ का आयोजन किया, उसमें सभी को भस्मीभूत करा डाला।
शत्रुपक्ष को तुच्छ मानकर भी मैंने भूल की।
स्वपक्षीय गुरुजन भी मुझसे खिन्न थे। मेरे कार्यों से असन्तुष्ट होकर उन्होंने मुझे अनार्य तक कह डाला था। पर शायद मेरे द्वारा महात्मा चार्वाक को गुरु बनाए जाने के कारण हो।
सम्भव है, मेरी भौतिकवादी प्रवृत्ति ने उनके हृदयों पर आघात पहुँचाया हो।
पूज्यनीय माता-पिता, विदुर तथा भीष्म जी के वचनों को मैंने कभी गम्भीरता से नहीं सुना।
…इसी पुस्तक से…
दुर्योधन के स्वेच्छाचार-अहंकार का अन्त समीप है। स्वार्थ ने उसे अन्धा बना दिया है। राज्यलिप्सा ने उसकी श्रवणशक्ति को कुण्ठित कर दिया है। भृंगीकीट की भाँति वह एक ही रागगुन-गुनाया करता है। बाहुबल, मित्रबल, अस्त्रबल, जनबल तथा धनबल पर उसे इतना अधिक दर्प है कि वह किसी भी सुहृद का उचित परामर्श सुनने को तैयार नहीं।
वह यह भूल जाता है कि युद्ध में विजय के लिए जिस आत्म बल की आवश्यकता होती है, वह न उसके पास है, न उसके मित्रों के। पासी युद्ध में धन, जन या अस्त्र बल की नहीं, नैतिक मान्यताओं को विजय प्राप्त होती है।
जीवन में अनेक बार शक्ति सम्पन्न श्रीमानों से लोहा लेना पड़ा, पर सभी को नतमस्तक होना पड़ा।
दुर्योधन उस रीते घट की तरह है, जो थोड़े से जल से भरने से ही झलकने लगता है। पाण्डवों से युद्ध होने पर छठी का दूध याद आयेगा। अकेला पार्थ यदि चाहे तो कुछ क्षणों में दोनों दलों का संहार कर सकता है। उसके पास ऐसे दिव्यास्त्र हैं जिनका कोई प्रतिरोध नहीं, पर वह मूर्ख इन तथ्यों को समझता ही नहीं। लोभाशक्ति व कुमन्त्रणा के वशीभूत होकर वह विपरीत बुद्धि का आश्रय ग्रहण किए हुए है। सदाचार को उसने ठुकरा दिया है। अनार्थी जैसा व्यवहार कर वह प्रसन्नता अनुभव करता है। शायद चार्वाक के संसर्ग का परिणाम है कि वह परम्परागत नैतिक शास्त्रीय मान्यताओं का तिरस्कार करता है।
दुर्योधन की मूर्खता और लोभाशक्ति के कारण आज कुरुकुल ही नहीं, समस्त क्षत्रिय समाज विनाश के कगार पर खड़ा है। कुरुकुल के उत्थान के लिए मैंने अपना समस्त जीवन समर्पित किया है। वह पौधा जो मैंने अपने रक्त से सिंचित किया है आज स्वयं के अविवेक से मेरी आँखों के समक्ष ही नष्ट होने जा रहा है।
…इसी पुस्तक से…
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Description
Description
बजरंग सिंह कुशवाह
- नाम : बजरंग सिंह कुशवाह, बाराकलाँ, भिण्ड (म.प्र.)
- पिता का नाम : स्व. श्री मुलूसिंह कुशवाह
- जन्म स्थान : ग्राम व पोस्ट– बाराकलाँ, जिला– भिण्ड (म.प्र.)
- जन्म दिनांक : 1 जुलाई 1939
- शैक्षणिक योग्यता : एम.ए. हिन्दी साहित्य एवं बी.एड.
- लेखन कार्य : धारा के तिनके (उपन्यास) एवं जीवन के दिन चार
- प्रकाशित पुस्तक : 1. दो उपन्यास; 2. कहानी-संग्रह; 3. बालोपयोगी साहित्य; 4. भदावरी लोक-कथाएँ; 5. संस्कार– गीत, सोहर गीत; 6. रामायण-महाभारत – लोक साहित्य में अनुवाद
- सेवानिवृत्ति : प्रधानाध्यापक मा.वि. कचोंगरा (भिण्ड) से
- प्रकाशन में सहयोग : यशराम सिंह कुशवाह, बाराकलाँ, भिण्ड
- प्रकाशन के प्रेरक : रामभुवन सिंह कुशवाह, 40/100 शिवाजी नगर, भोपाल
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