







Aadivasi Vidroh : Vidroh Parampara aur Sahityik Abhivyakti ki Samasyaen आदिवासी विद्रोह : विद्रोह परम्परा और साहित्यिक अभिव्यक्ति की समस्याएँ (विशेष संदर्भ — संथाल ‘हूल’ और हिन्दी उपन्यास)
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Author(s) — Kedar Prasad Meena
लेखक — केदार प्रसाद मीणा
| ANUUGYA BOOKS | HINDI| 344 Pages | 6 x 9 Inches | 2015 |
|available in PAPER BOUND & HARD BOUND |
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Description
Description
लेखक के बारे में
केदार प्रसाद मीणा : राजस्थान के सवाई माधोपुर जिले के गाँव मलारना चौड़ में 20 जून,1980 को जन्म।
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी से प्रथम श्रेणी में एम.ए. और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नयी दिल्ली से एम.फिल./पीएच.डी. की उपाधियाँ प्राप्त कीं।
जनसत्ता, हंस, पाखी, परिकथा, कथाक्रम, वाक्, उम्मीद, युद्धरत आम आदमी, दलित अस्मिता, बयान, अरावली उद्घोष, बहुरि नहिं आवना आदि पत्र-पत्रिकाओं में लेख व कहानियाँ प्रकाशित : लेखन विशेषकर आदिवासी साहित्य, समाज, संस्कृति, इतिहास और संघर्ष पर।
पुस्तकें प्रकाशित :1. आदिवासी :समाज, साहित्य और राजनीति; 2. क्रांतिकारी आदिवासी-आज़ादी की लड़ाई में आदिवासियों का योगदान (संपादित); 3. आदिवासी कहानियाँ (संपादित);
आदिवासी मामलों की पत्रिका ‘अरावली उद्घोष’ के ‘आदिवासी विद्रोह’ विशेषांक का अथिति संपादन।
फिलहाल दिल्ली विश्वविद्यालय के शहीद भगत सिंह कॉलेज में सहायक प्रोफेसर के तौर पर अध्यापन।
संपर्क : 09868959890, ईमेल : kpmeena.du@gmail.com
पुस्तक के बारे में
डॉ. केदार प्रसाद मीणा ने ‘आदिवासी विद्रोह : विद्रोह परंपरा और साहित्यिक अभिव्यक्ति की समस्याएँ’ पुस्तक में कई अनकही बातें कही हैं। इसे पढऩे से ज्ञात होता है कि लेखक ने संथाल- विद्रोह ‘हूल’ पर यह शोध मात्र शैक्षणिक व शास्त्रीय दृष्टिकोण से नहीं किया है बल्कि इसके प्रस्तुतीकरण और अभिव्यक्ति में उनकी निजी रुचि भी स्पष्ट झलकती है। संभवत: यही कारण है कि आर्चर, बोडिंग, कल्शा और हंटर जैसे अंग्रेज लेखकों- शोधकर्ताओं के साथ ही इनको हिंदी में भारतीय लेखकों द्वारा ‘हूल’ पर प्रस्तुत विविध सामग्री का भी विस्तृत अध्ययन करना पड़ा है। इसके उपरांत इन्होंने राकेश कुमार सिंह के उपन्यास ‘जो इतिहास में नहीं है’ एवं मधुकर सिंह के उपन्यास ‘बाजत अनहद ढोल’ को केंद्र में रखकर अपना महत्वपूर्ण शोध-प्रबंध तैयार किया है। इस अध्ययन से जो मूल निष्कर्ष सामने आया है उसके अनुसार ‘हूल’ बड़ा जनांदोलन था और अब से पहले इसकी विषयवस्तु की अनदेखी भारतीय भाषा के लेखकों द्वारा बड़े पैमाने पर की गयी है। इसके अतिरिक्त इससे पूर्व जो थोड़ा बहुत लेखन हुआ है, उसमें प्रायोजित मानसिकता अधिक दिखती है व तथ्यों का विश्लेषण भी अपनी-अपनी सुविधानुसार किया गया प्रतीत होता है। मेरे लिए भी यह चौंकाने वाला तथ्य है कि वर्ष 2005 में जब ‘हूल’ के डेढ़ सौ वर्ष पूरे हुए थे तब इस ऐतिहासिक घटना को स्मरण करने के लिए किसी भी प्रकार का कोई सरकारी आयोजन हमारे देश में नहीं हुआ, जबकि उसी वर्ष ब्रिटेन के ससेक्स विश्वविद्यालय में ‘हूल’ को श्रद्धांजलि देने के लिए दो दिवसीय सेमिनार का आयोजन किया गया। प्रश्न है कि आखिर ऐसा क्यों हुआ? यदि ‘हूल’ पर भी ऐसे सरकारी आयोजन हुए होते तो क्या 1857 के सिपाही विद्रोह की महत्ता कम पड़ जाती?
यह दुखद है कि देश के अधिसंख्य प्रतिष्ठित इतिहासकारों ने 1855 के संथाल-विद्रोह ‘हूल’ को लगभग आदिम समाज की एक बर्बर कार्यवाही के रूप में ही देखा-समझा है, और यही कारण है कि 1855 का संथाल विद्रोह 1857 के सिपाही-विद्रोह की पूर्व पीठिका के रूप में स्थापित नहीं हो पाया, जो कि वास्तव में वह है। यह विचारणीय है कि 1855 के काल में जब ‘कंपनी सरकार’ तत्कालीन आधुनिक हथियारों और कानून– दोनों से लैस थी, तब वनों के परिवेश में बिंदास जीवन जीने वाले संथाल समाज को ‘हूल’ की अगुआई क्यों करनी पड़ी? क्या यह लड़ाई जीत-हार के लिए लड़ी गयी? अंग्रेजों की तोप-बंदूकों का मुकाबला क्या तीर-धनुष, तलवार, फरसे और भालों से कर पाना संभव था? यह सामान्य-सी समझ क्या ‘हूल’ के नायकों- सिदो, कानू, चाँद, भैरो, फूलो व झानो को नहीं थी? बाबा तिलका मांझी ने भागलपुर के कमिश्नर क्लीवलैंड को भागलपुर में ही तीर से निशाना बनाकर क्या सोचा था कि वे बचकर निकल जाएँगे? यदि ऐसा विचार किया होता तो वे क्लीवलैंड का ‘सेंदरा’ भागलपुर में कभी न करते। दरअसल, आदिवासी-विद्रोह की गाथाएँ प्राणोत्सर्ग के आख्यानों से अटी पड़ी हैं। विद्रोह जब भी हुए हैं, उनको प्रतिरोध के अंतिम हथियार के रूप में इस्तेमाल किया गया है। अन्यथा संथाल समाज सहित संपूर्ण आदिवासी समाज स्वयं में ही मस्त व आनंदित रहने वाला समाज है–’न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर’ वाला। संथाल समाज के इस स्वावलंबन व स्वाभिमान का श्रेय उनकी ‘स्वशासन प्रणाली’ को जाता है जिसको ‘मांझी-परगना’ स्वशासन प्रणाली के रूप में सरकारी मान्यता प्राप्त है। ‘हूल’ को संगठित कर प्रभावकारी बनाने में तत्कालीन संथाल गाँवों के मांझी-परगनैतों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। आज भी संथाल-परगना क्षेत्र के संथाल गाँवों में मांझी या ग्राम-प्रधान की सहमति के बिना किसी भी प्रकार का अनुष्ठान या कार्यक्रम संपन्न नहीं होता है। लेकिन पंचायत- राज कानून लागू होने के बाद से इन पारंपरिक संस्थाओं के ‘स्टेटस’ पर प्रतिकूल प्रभाव पड़े हैं। इस दौर में आदिवासी समाज अपनी परंपरा व विरासत को किस सीमा तक अक्षुण्ण रख पाएगा, यह विचारणीय प्रश्न है। क्योंकि आदिवासी समाज में निर्णय बहुसंख्यकों के समर्थन के आधार पर नहीं बल्कि सर्वानुमति से लिये जाते हैं, जो इनकी सामुदायिकता का प्रतीक है। यह सामुदायिकता जारी रह पाएगी? ‘आदिवासी विद्रोह : विद्रोह परंपरा और साहित्यिक अभिव्यक्ति की समस्याएँ’ पढ़ते हुए मन में ऐसे भी कई प्रश्न सहज ही उत्पन्न हो जाते हैं।
डॉ. केदार प्रसाद मीणा की भाषा सरल व बोधगम्य है। इस कारण प्रस्तुत तथ्य व विचार शब्दों के जाल में उलझे प्रतीत नहीं होते। इसलिए आशा की जा सकती है कि उनके द्वारा श्रमपूर्वक एकत्रित की गयी सामग्री पर किये गये प्रस्तुत शोध से आदिवासी विद्रोहों के प्रति व्याप्त दुराग्रहों के शमन में सहायता मिलेगी, अनेक भ्रांतियाँ दूर होंगी और उपनिवेश काल में किये गये इन बड़े आदिवासी-विद्रोहों को भारतीय इतिहास में उचित स्थान मिल पायेगा। शोध हेतु यह विशिष्ट विषय चुनकर इन्होंने एक महत्वपूर्ण कार्य किया है और अपने ‘दायित्व’ का निर्वाह भी बखूबी किया है।
– शिशिर टुडू
(शिशिर टुडू प्रसिद्ध संथाली विद्वान हैं। आपने 1935 में छपे ‘हूल’ केंद्रित रॉबर्ट कार्सटेयर्स के अंग्रेजी उपन्यास ‘हरमा’ज विलेज’ का हिंदी अनुवाद (‘ऐसे हुआ हूल’) भी किया है।)
अंग्रेजी में पूरी तरह से संथाल ‘हूल’ पर केंद्रित कुल तीन-चार किताबें ही मिलती हैं। इनके अलावा कुछ इतिहासकारों या ब्रिटिश प्रशासकों ने कुछेक लेख लिखे हैं। ‘हूल’ से संबंधित इस पूरे साहित्य में सबसे महत्वपूर्ण रणजीत गुहा की किताब ‘एलीमेंट्री आस्पेक्ट्स ऑफ पेजेंट इंसर्जेंसी इन कोलोनियल इंडिया’ ही है जिसमें उन्होंने संथाल ‘हूल’ के बहुत से जाने-माने तथ्यों पर नये नजरिये से कुछ नयी व्याख्याएँ की हैं। इन सब के अलावा हाल में एक ब्रिटिश प्रोफेसर डेनियल जे. रिक्राफ्ट ने संथाल ‘हूल’ पर एक वृत्तचित्र ‘हूल सेंगेल’ भी बनाया है। हिंदी में इतने सारे विद्वानों और इतिहासकारों के होने के बावजूद संथाल ‘हूल’ पर पूरी एक किताब तो छोडि़ए, पूरा एक लेख भी ऐसा नहीं मिलेगा जो मौलिक हो और किसी भी दृष्टि से महत्वपूर्ण हो। केदार प्रसाद मीणा का यह कार्य इसलिए महत्वपूर्ण है कि उन्होंने उपरोक्त वृतचित्र के अलावा अब तक अंग्रेजी में उपलब्ध पुरानी व नयी लगभग समस्त रचनाओं को परिश्रम से खोजकर एक जगह जुटाया और बहुत ध्यानपूर्वक उनका अध्ययन किया है।
वीरभारत तलवार
प्रोफेसर एवं भूतपूर्व अध्यक्ष, भारतीय भाषा केंद्र
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नयी दिल्ली
अनुक्रम
प्रस्तावना : वीरभारत तलवार
रिपोर्ट-1 : बी.पी. केसरी
रिपोर्ट-2 : रमेश चंद मीणा
भूमिका : ”ईश्वर महान है, मगर वह बहुत दूर है”
खंड 1 : आदिवासी विद्र्रोह परंपरा और ‘हूल’
1. भारत के प्रमुख आदिवासी विद्रोह
भील विद्रोह (1881), बस्तर क्रांति-‘भूमकाल’ (1910), भील आंदोलन-‘धूमाल’ (1913), भील-गरासिया–’एकी’ आंदोलन (1922), नागा संघर्ष-जेलियांगरांग आंदोलन (1932), वारली संघर्ष (1945-1948)
2. झारखंड में आदिवासी विद्रोह
पहाडिय़ा विद्रोह (1766), ढाल विद्रोह (1773), तिलका मांझी का विद्रोह (1784), चुआड़ विद्रोह (1769), तमाड़ विद्रोह (1819-20), लरका विद्रोह (1821), कोल विद्रोह (1831-32), भूमिज विद्रोह (1832-33), सरदार आंदोलन (1860-1895), बिरसा मुंडा का ‘उलगुलान’ (1895-1900), ताना भगत आंदोलन (1914), झारखंड आंदोलन (1920-2000)
3. संथाल आदिवासी और उनका संघर्ष
संक्षिप्त इतिहास : समाज-संस्कृति; विद्रोह : खेरवार आंदोलन (1860-1947), संथाल विद्रोह (1917), संथाल विद्रोह (1932), ओलचिकी- लिपि आंदोलन (1940), नक्सलबाड़ी के संथाल (1967), धानकटिया आंदोलन (1973)
4. संथाल ‘हूल’ : एक ऐतिहासिक जनविद्रोह
‘हूल’ के कारण, ‘हूल’ के घटनाक्रम, ‘हूल’ के परिणाम, ‘हूल’ का जनवादी स्वरूप
खंड 2 : ‘हूल’ और साहित्यिक अभिव्यक्ति की समस्याएँ
5. संथाल ‘हूल’ : ‘जो इतिहास में नहीं है’ में
अत्याचार की पराकाष्ठा और प्रतिरोध के स्वर, भोगनाडीह की सभा और सिदो का नेतृत्व, फैलता दायरा और आमजन में भय, ‘फूट डालो, राज करो’ की नीति और क्रूर दमन, हार या जीत और संघर्ष का परिणाम
6. संथाल ‘हूल’ : ‘बाजत अनहद ढोल’ में
सामंती अत्याचार और सरकारी उपेक्षा, लगान, भुखमरी और नील की खेती, संस्कृति पर नजर और असहमति के स्वर, संथालिनों का संघर्ष व संथालों का ‘हूल’, प्रतिबद्धता का सवाल या अनुभव की विडंबना
7. संथाल ‘हूल’ : इतिहास का सच और उपन्यास का सच
‘हूल’ और ‘जो इतिहास में नहीं है’, ‘हूल’ और ‘बाजत अनहद ढोल’
निष्कर्ष
संदर्भ-सूची
खंड 3 : परिशिष्ट
1. बयान-अंश : सिदो माँझी
2. बयान-अंश : कानू माँझी
3. बयान-अंश : बलाई माँझी
4. ‘ठाकुर का परवाना’
5. रिपोर्ट-अंश : ए.सी. बिडवेल
6. रिपोर्ट-अंश : डब्ल्यू. डब्ल्यू. हंटर
7. रिपोर्ट-अंश : सी. ई. बकलैंड
8. कुछ ‘हूल’ गीत
9. संक्षिप्त समीक्षा : ‘हूल’ संबंधी शोध-साहित्य
10. एक सूची : भारत के आदिवासी विद्रोह
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