







SATH-ASATH / साथ-असाथ
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बारिश तीन
दुनिया में जब इन्सान ने पहले-पहल देखा होगा बारिशों को
तो क्या सोचा होगा?
पानी महसूसते हुए वो भूल गए होंगे सब घाव,
मौत का पास होना,
अपने सब बिछोह या छूटे हुए अपने
और शिद्दत से याद आए होंगे?
(रोहिणी, सेक्टर पाँच में जितने कैंसर के मरीज़ रहते हैं, उतने ही मोर भी रहते हैं, तीमारदार जब सुबह-सुबह अपने मरीजों के लिए कीमोथेरेपी की दवाएँ लेने निकलते हैं, ये मोर किसी बालकनी, किसी खिड़की, किसी पेड़ या सड़क पर चलते हुए, उन्हें ध्यान से देखते हैं।
वो मोर भी बारिश का वैसे ही इन्तज़ार करते हैं, जैसे अस्पताल में रोज़ शाम को टहलने लायक मरीज़, अपने तीमारदार के कन्धे से सटे, बड़े शीशे वाली खिड़कियों से इन मोरों को देखते हैं।
बारिश में भींगते मोरों को देखकर बीमारी झेलती बहन चिड़िया हो जाती थी।)
* * *
अंचित की ये कविताएँ हमसे जिस भाषा की माँग करती हैं– वह भाषा, मैं सच कहूँ– मेरे पास नहीं है। न वो समतुल्य बोधतरंग ही है। ये बिल्कुल नयी, अप्रत्याशित कविताएँ हैं, शायद भावी शताब्दी की कविताएँ। ऐसी कविताएँ हिन्दी में आज से पहले लिखी नहीं गईं। क्योंकि ये अनुभव, भावबोध, जीवन के प्रति ऐसा संवेद पहले था– ही नहीं। यहाँ सब कुछ मिलकर एक हो जाता है और कुछ भी बहिष्कृत नहीं, जैसे कि यह अनुभूतियों का ब्रह्मांडीकरण हो। अनेक भाषा-खंड, महादेश, काल, जीवन, मृत्यु, सब एक साथ एक ही कूँची से निर्मित-अनिर्मित हो पूरी दीवार घेर लेते हैं। हरे जल में जलकुम्भी के पास चाँद, बहुत-सी दीवारों से सटकर रोता एक माथा। और साँस की राख–कब किसने देखा और जाना इस तरह? और भाषा तो जैसे रबर की हो। इतनी लचीली, या प्लास्टिक की, जिससे कोई भी आकार या आकृति बनने से बच न सके। काठ को नदी का पानी छूता है और वह काठ देर तक नम बना रहता है। यहाँ अनेक कवियों-कविताओं की ध्वनि-परछाइयाँ है, और सभी वर्जनाओं का विसर्जन। इतने सारे लोग हैं, इतनी स्त्रियाँ। प्रेम वैसे ही है जैसे रोटी।
–अरुण कमल
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अंचित
जन्म : 27.01.1990
किताबें : ऑफ़नोट पोअम्ज़ (ई-बुक, 2018)
साथ-असाथ (प्रथम संस्करण, 2018 )
शहर पढ़ते हुए (अनुज्ञा, 2019)
इंदिरा गाँधी : प्रकृति में एक जीवन (जयराम रमेश द्वारा लिखी इंदिरा गांधी की जीवनी का अनुवाद)
सम्पर्क : anchitthepoet@gmail.com
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